सबको न्याय मिले, ऐसा समाज बने

December 2001

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लोकताँत्रिक व्यवस्था में न्याय को मनुष्य का मूलभूत अधिकार माना गया है, क्योंकि इसी सशक्त आधार पर मनुष्य का जीवन सम्मानित और सुरक्षित रहता है। किन्तु वर्तमान में मनुष्य का यही प्राथमिक अधिकार सर्वाधिक तिरस्कृत हो रहा है। अपराधियों और समाज विरोधी तत्त्वों के लगातार बढ़ते दबदबे से देश का विशाल जनसमुदाय किंकर्त्तव्यविमूढ़ है। उसे समझ ही नहीं आ रहा है कि वह क्या करे? कहाँ जाये? इतनी भयानक स्थिति निर्मित हो चुकी है कि हमारी संवैधानिक व्यवस्था ही कटघरे में आ गई है। आज यह प्रश्न हमारे सामने आ खड़ा हुआ है कि अपराध नियंत्रित न्याय की अवधारणा आखिर कैसे पुष्पित एवं पल्लवित हो?

सृष्टि की मानव सभ्यता के जन्म के साथ ही समुदाय और समाज अस्तित्त्व में आते गये। कालाँतर में सामाजिक व्यवस्थाओं और सभ्यताओं का विकास क्रम आरम्भ हुआ और इसी विकास-क्रम में मनुष्य द्वारा मनुष्य के उत्पीड़न और शोषण का दौर भी शुरू हुआ। हमेशा से ही समाज के कुछ लोगों में द्वन्द्व, टकराहट एवं संघर्ष होता रहा है। ऐसे समाज का अस्तित्त्व कभी भी नहीं रहा, जिसमें कोई दोष न रहा हो। समाज के इसी दोष को दूर करने के निमित्त न्याय की अवधारणा का उद्भव हुआ।

न्याय का अर्थ है वह प्रणाली, नियम या योजना जिसके द्वारा सम्यक् निर्णय तक पहुँचा जा सके। प्रमाणों द्वारा अर्थ का परीक्षण, वस्तु-तत्त्व की परीक्षा न्याय है। मनुस्मृति, किरातार्जुनीय, न्याय-सूत्र, न्यायभाष्य आदि में न्याय शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में हुआ है। सामाजिक संदर्भ में सम्यक् निर्णय सामाजिक न्याय के क्षेत्र में ही करना होता है। वहीं इसकी आवश्यकता पड़ती है। यही कारण है कि भारतीय परम्परा में समाज में न्याय के लिए व्यवहार शब्द का प्रयोग हुआ है। जिसे इन दिनों ‘जस्टिस’ कहा जाता है। उसे सामान्यतः भारत में व्यवहार कहा जाता है।

व्यवहार की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि विविध संदेहों को हरण करते हुए निश्चित निर्गम की प्रतिष्ठ करना ही व्यवहार है। गृह्यसूत्रों, महाभारत, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, शुक्रनीतिसार, भविष्य पुराण आदि ग्रंथों में भी यही बात कही गई है। इन भारतीय शास्त्रों में व्यवहार-अंगों यानि न्यायाँगों का भी विशद् वर्णन मिलता है। इनमें न्याय-सभा को धर्माधिकरण, धर्मस्थान या धर्मासन कहा गया है। न्याय-करना कैसा हो, वहाँ देवमूर्तियाँ, फूल, सुगंध, जल आदि कहाँ किस प्रकार रखे जायें, न्यायाधीश कैसे हो, इन सबकी विस्तृत विवेचना है। सर्वोच्च न्यायाधीश किस प्रकार प्रसन्न, प्रशाँत, विनय सम्पन्न होकर न्याय-कक्ष में आये, इसका भी विस्तृत वर्णन मिलता है। वाद, प्रतिवाद, प्रतिरोध, पक्ष, प्रतिज्ञा, प्रत्युत्तर, साक्ष्य और प्रमाण वर्तमान न्याय व्यवस्था के भी अंग हैं और पहले भी थे।

आधुनिक राजतंत्र ने न्याय की अपनी अवधारणा प्रस्तुत की है। भारतीय संविधान की न्याय दृष्टि यह है कि भारतीय राज्य संप्रभु है, सर्वोच्च है। वह अपने समस्त नागरिकों के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक अधिकारों की रक्षा करता है। विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, श्रद्धा एवं पूजा-पद्धति की स्वतंत्रता की रक्षा भी उसका दायित्व है। इसके बाद भी आज जो घटनाएँ घट रही हैं, वे हमें बर्बर आदिम-युग की याद दिला देती हैं। बुद्ध और महावीर के काल से आज तक के लम्बे अन्तराल में अगर हम एक कदम आगे बढ़े हैं तो दस कदम पीछे हुए हैं। सभ्यता एवं विकास के तमाम दावों के बावजूद हमारी न्याय-व्यवस्था की नींव बेहद जर्जर एवं खोखली है।

न्याय व्यवस्था की पूरी परिकल्पना ही इस तथ्य पर आधारित है कि ताकतवर द्वारा कमजोर के साथ हो रहे अन्याय को रोका जा सके और अपराधी को दण्डित किया जा सके। चाहे राज्य की ताकत के खिलाफ आम आदमी के हक का सवाल हो या बलशाली व्यक्ति द्वारा किसी निर्बल, बेसहारा आदमी पर हो रहे अन्याय का प्रश्न हो। पर सच्चाई यह है कि आज की स्थिति में 23246 मुकदमे सर्वोच्च न्यायालय में, 30 लाख मुकदमे देश के विभिन्न उच्च न्यायालय में एवं 2 करोड़ 80 लाख मुकदमे देश के विभिन्न अधीनस्थ न्यायालयों में लंबित है। विभिन्न मामलों में लोग 20-25 साल से अपने मुकदमों के फैसलों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। बहुत से मामलों में यह प्रतीक्षा कई पीढ़ियों तक करनी पड़ती है।

अपराधियों के मनोबल में लगातार हो रही वृद्धि और न्याय का उस बढ़ते मनोबल को तोड़ पाने में असफल रहना, दैनिक जीवन की अत्यंत कटु सच्चाइयाँ है। इससे एक यह बात तो स्पष्ट हो ही जाती है कि हमारे संविधान निर्माताओं से एवं विशेषज्ञों से कुछ भूल अवश्य हुई है। पहली तो यही कि हमारा संविधान जिन विदेशी संविधानों के अध्ययन के आधार पर निर्मित किया गया है वहाँ की परिस्थितियाँ अलग हैं। उन देशों में 50 प्रतिशत अपराधी सजा अवश्य पाते हैं। दूसरी भूल यह हुई है कि सिद्धान्त और व्यवहार से समन्वय स्थापित नहीं किया जा सका। यह हमारे देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि हम अभी भी दो सौ वर्षों की गुलामी मानसिकता से ऊपर उठकर अपनी न्याय व्यवस्था नहीं बना पाये।

आज जबकि सम्पूर्ण समाज आदर्श-विहीन हो चुका है। प्रत्येक व्यक्ति का लक्ष्य मात्र यही रह गया है कि येन-केन प्रकारेण कैसे धन अर्जित किया जाये, तब ऐसे में हम समाज के किसी भी विशिष्ट अंग से यह अपेक्षा कैसे कर सकते हैं कि यह भ्रष्टाचार से मुक्त हो, चाहे वह न्यायपालिका ही क्यों न हो? परन्तु यह भी सच है कि देश में चारों ओर जितना भ्रष्टाचार व्याप्त है उस अनुपात में न्यायपालिका में भ्रष्टाचार कम है। चाहे अधीनस्थ न्यायालय के न्यायधीश हों या उच्च न्यायालय के अब भी वे अपने दायित्व का निर्वाह भय, लोभ व मोह से मुक्त होकर करते हैं। इसके बाद भी वर्तमान न्याय-व्यवस्था ने देश के आम आदमी को निराश ही किया है। वह न्याय के लिए अदालतों के चक्कर लगाने की अपेक्षा यह प्रयास करता रहता है कि मुकदमा न करना पड़े। देश के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने न्यायाधीशों की गोष्ठी में इस सच्चाई को स्वीकार करते हुए कहा था कि ‘लोग नरक में जाना अदालत जाने से बेहतर समझते हैं।’

ऐसा नहीं है कि न्याय व्यवस्था को सुधारने का प्रयास ही नहीं किया गया। न्याय-व्यवस्था सुधारने के लिए देश के आजाद होने के बाद विभिन्न विधि-आयोगों का गठन किया गया। ये विधि आयोग सर्वोच्च न्यायालय के विद्वान न्यायाधीशों की अध्यक्षता में गठित हुये। उन्होंने देश के विभिन्न वर्गों से विस्तृत संपर्क करके विभिन्न विधि-क्षेत्रों की व्यवस्था की अनुशंसाएँ की, किन्तु अधिकतर विधि आयोग की रिपोर्ट एवं अनुशंसाएँ विधि-मंत्रालय के पुस्तकालय की शोभा बढ़ाने तक ही सीमित रही।

आज आवश्यकता इस बात की है कि वर्तमान न्याय-प्रक्रिया को सरल और द्रुतगामी बनाया जाये। जिससे दो बातें सुनिश्चित हो सके। पहला यह कि मुकदमों का निस्तारण एक निर्धारित समय सीमा में किया जा सके। दूसरा न्याय व्यवस्था उन लोगों तक पहुँचे जो न्यायालय तक पहुँचने में असमर्थ हैं। इस सम्बन्ध में बहुत से विशेषज्ञों एवं विधि आयोगों ने महत्त्वपूर्ण एवं सुविचारित सुझाव दिये हैं।

निःसन्देह न्याय के बिना सजीव समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। परन्तु पूर्ण न्याय तभी सम्भव है जब समाज में नैतिक एवं मानवीय शक्तियों का विकास हो। इसके लिए आज समाज में सामूहिक सोच वाले आध्यात्मिक-व्यावहारिक लोगों को विराट् बहुमत में आगे आना होगा; क्योंकि प्रश्न किसी व्यक्ति विशेष या समाज विशेष का नहीं अपितु राष्ट्र का है। इसके बिना समाज में न्याय व्यवस्था की स्थिति नगण्य ही रहेगी।


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