‘अपने उपासनास्थल की एक विशेषता है, वहाँ होते रहने वाला अखण्ड यज्ञ। गत 42 वर्षों से हमारा अखण्ड घृतदीप (1926 से) जलता है। साथ ही अगरबत्तियों एवं धूपबत्तियों के रूप में हवन सामग्री भी वहाँ यथाक्रम जलती रहती है। दीपक का घी और बत्तियों की सामग्री निरंतर जलने से दोनों का सम्मिश्रित धूम्र, वर्चस, तेज और प्रभाव उपासना कक्ष में यज्ञीय वातावरण उत्पन्न करता है। अतएव वह केवल अखण्ड दीप मात्र ही नहीं रहता वरन् अखण्ड यज्ञ बन जाता है, वहाँ अनायास ही हमें अपनी मनोभूमि उच्चस्तरीय रखने और उस स्थिति के महत्त्वपूर्ण लाभ लेने में सुविधा मिलती है।’ (अखण्ड ज्योति मई 1961, पृष्ठ 61) उपर्युक्त प्रसंग उस अखण्ड दीपक के विषय में हैं, जो आँवलखेड़ा, आगरा एवं मथुरा के बाद अब शाँतिकुँज हरिद्वार में सतत प्रज्वलित है एवं जिसकी साक्षी में हमारी गुरुसत्ता द्वारा उस प्राणचेतना का आह्वान किया गया, जिसके प्रत्यक्ष स्वरूप के रूप में ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका निकलती है। वस्तुतः अखण्ड दीपक से प्रेरणा लेकर ही 1937-38 में पूज्यवर ने यह विलक्षण नाम इस पत्रिका को दिया था।
इसी के विषय में वे जनवरी 1988 की पत्रिका में लिखते हैं, ‘अखण्ड ज्योति मानवी चेतना के अंतराल में दृश्यमान होने वाला वह तत्व है, जिसे अध्यात्म की भाषा में ‘श्रद्धा’ कहते हैं। इसका जहाँ जितना उद्भव होता है, वहाँ उतना ही आदर्शों के प्रति निष्ठा का परिचय मिलता है। उसी के सहारे पुण्य-परमार्थ बन पड़ता है। यही है जो उत्कृष्टता के प्रति समर्पित होती है और अगणित विघ्न-बाधाओं के साथ जूझती-उलझती अपने गंतव्य तक पहुँचती है। श्रद्धा में आभा भी है और ऊर्जा भी। उच्चस्तरीय संकल्प इसी के कारण उभरते हैं और प्रबल प्रयत्न बनकर उस स्तर तक पहुँचते हैं, जहाँ मानव को महामानव, देवमानव का स्थान मिलता है। जिसके अंतराल में श्रद्धा उभरी, समझना चाहिए कि उसने महानता के उच्च शिखर पर पहुँचने की आधी मंजिल प्राप्त कर ली। शेष आधी को उस आधार पर उभरा पुरुषार्थ पूरी करा देता है। यही है ‘अखण्ड ज्योति’ का परिचय, स्वरूप और प्रभाव।’
इन शब्दों से ‘अखण्ड ज्योति’ की गंभीर गरिमा भरी महत्ता को समझा जा सकता है। विगत 64 वर्षों से सतत प्रवाहित यह ज्ञानगंगोत्री जन-जन को अभिशप्त मानसिकता से उबारती चली आ रही है। जिस-जिसने भी इसे पढ़ा है, वह इसके प्रतिपादनों से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। आज के याँत्रिक युग में जहाँ अनास्था का दौर हैं, इसका टिमटिमाता दीपक सतत जाज्वल्यमान है, प्रकाशवान है एवं आदर्शवादी संकल्पों का प्रतीक है। विगत अंक में हम पाठकों को बता चुके हैं कि यह एक पत्रिका नहीं, एक आँदोलन है, मिशन है एवं हमारी गुरुसत्ता के सूक्ष्म व कारण शरीर की अभिव्यक्ति है ज्ञान के रूप में। यह ज्ञान गुरु की भूमिका निभाता है, संशयों को मिटाता है एवं गीताकार के शब्दों में अति पवित्र एवं पापनाशक है। पापी से भी पापी व्यक्ति को ज्ञान की नौका में बिठाकर पार कराया जा सकता है (4/36 एवं 4/38 श्रीमद्भगवद्गीता)। आज जिसका सबसे अधिक अभाव है एवं अभाव के कारण दुखों का जन्म होता है वह ज्ञान ही है। अखण्ड ज्योति इसी ज्ञान की लाल मशाल को लेकर सारे समाज व विश्व में अपना आलोक फैला रही है।
आज के इस युग का कोई सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ हो सकता है, तो वह है ज्ञानयज्ञ द्वारा विचारों को बदलने का कार्य- विचारक्राँति अभियान। संस्कृति की सबसे बड़ी सेवा यही है कि हर व्यक्ति को आशावादी चिंतन मिले, जीवन जीने का दिशाधारा का सच्चा मार्गदर्शन मिले। जानकारी देने वाला ज्ञान तो शिक्षा के रूप में, विज्ञान के रूप में, अन्य पत्र-पत्रिकाओं के रूप में ढेर सारा फैला पड़ा है, इंटरनेट से लेकर लाइब्रेरी में पाया जा सकता है, पर आत्मसत्ता को महानता की दिशा में अग्रसर करने वाले ज्ञान विस्तार का कहीं कोई तंत्र नहीं नजर आता। इस ज्ञान की विशेषता यह है कि यह तर्क, तथ्य, प्रमाणों की कसौटी पर प्रस्तुत किया गया है। आज के युग की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने वाले ‘वैज्ञानिक अध्यात्मवाद’ का पोषक-समर्थक-प्रस्तोता है।
जो भी इस पत्रिका को अधिक-से-अधिक पाठकों तक पहुँचाएगा, वह सहज ही वह श्रेय प्राप्त कर लेगा जो गीताकार ने सातवें अध्याय के तीसरे श्लोक में ‘कश्चिन् माँ वेत्ति तत्त्वतः कहकर समझाया है। इस ज्ञान को जान लेना, समझ लेना परमात्मा को तत्त्वरूप से जान लेने के समान है। वार्षिक शुल्क विगत वर्ष जितना ही है। सन 2002 सामने है। प्रत्येक पाठक को न्यूनतम पाँच अतिरिक्त पाठक बढ़ाने हैं, ताकि इस ज्ञान यज्ञ में-युगधर्म में सबकी भागीदारी हो सके।