जिस तरह सघन-तिमिर के बीच सूर्य का दर्शन निश्चित है उस तरह ही विभीषिका बीच कि युग परिवर्तन निश्चित है।
हुआ है जब भागीरथ तप, हिमालय तो पिघलेगा ही चीरकर हिमनग की छाती, स्रोत-सुरसरि निकलेगा ही धरा के सूखे अधरों पर, सजल-अभिसिंचन निश्ति है।
ठीक है मानव मूल्यों का, निरंतर ही पतझर हो रहा रही हैं सद्प्रवृत्तियां सूख, हृदय नीरस जरजर हो रहा किन्तु पतझर के बाद, वसंत, स्नेह, संवेदन निश्चित है।
हो रहा है समुद्रमंथन और विषघट भी निकला है असुर हावी होते जाते, सुरों का साहस उथला है किन्तु विषपायी का विषपान, सुधा संवर्धन निश्चित है।
आज भी कोई कारण नहीं, न हो परिस्थितियों का बदलाव। हो रही है वैचारिक क्राँति, न रुक पाए मानव-भटकाव। हुई हैं युग प्रज्ञा गतिमान, मनुज परिवर्तन निश्चित है।
खोलकर रखें खिड़कियाँ द्वार, प्रकाशित हो चिंतन का कक्ष। परोसा जाए श्रेष्ठ चिंतन, अरे! जनमानस के भी समक्ष श्रेष्ठ चिंतन चरित्र दोनों, स्वर्ग का सर्जन निश्चित है॥
मंगल विजय विजयवर्गीय