नवयुग आगमन की वेला में हो रहा विश्वमंथन

December 2001

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विश्व मन्थन की जिस घड़ी में आज हम सब जी रहे हैं, वह असाधारण है। इसकी प्रक्रिया भले ही अभी ऊहापोह भरी लगे, पर इसकी परिणति आश्चर्यजनक होनी है। इस समय को विधाता ने धरती और मनुष्य की भाग्य लिपि लिखने के लिए युगों के बाद चुना है। जिनकी अंतःसंवेदना जाग्रत् है, जो अन्तरिक्ष में उमड़ रही सूक्ष्म हलचलों को समझ सकते हैं, वे इन दिनों कुछ आश्चर्यजनक और अलौकिक होता हुआ देख रहे हैं। इन्हीं दिनों भगवान् महाकाल की रुद्र चेतना प्रचण्ड सौर शक्ति के रूप में पृथ्वी पर अवतरित हो रही है। इस अवतरण के परिणाम स्वरूप धरती के इतिहास में ही नहीं भूगोल में भी बदलाव आया है। हालाँकि यह प्रक्रिया लम्बी है इसे लम्बे समय तक चलना है, फिर भी इन पलों का महत्त्व कुछ अलग ही है। क्योंकि इक्कीसवीं सदी में अभिनीत होने वाली सृजन कथा की भूमिका इन्हीं दिनों लिखी जाती रही है।

हमेशा ही असाधारण समय के कर्त्तव्य भी असाधारण होते आये हैं। राजनीति, प्रशासन, अर्थव्यवस्था सभी कुछ विश्वमन्थन की महाहलचलों से प्रभावित हैं। जिसे संवारना-दिशा देना उस क्षेत्र विशेष के विशिष्टों, वरिष्ठों एवं विशेषज्ञों का दायित्व है। उनमें से जो अपने दायित्व को सच्चाई, ईमानदारी एवं विश्वमानवता के प्रति समर्पित भाव से निभाएँगे, उन्हें भगवान महाकाल अपनी आगामी सृजन योजना के लिए चुनेंगे एवं विशेष दायित्व सौंपेंगे। परन्तु जिनकी बुद्धि मोह एवं भ्रष्टाचार के पंक से अभी भी नहीं निकल पा रही है, उन्हें सृजन शक्तियाँ सर्वथा अप्रासंगिक बनाकर एक ओर कूड़े के ढेर में डाल देंगी।

लेकिन इन सभी से कहीं अधिक विशेष दायित्व उनका है, जो ईश्वर विश्वासी और अध्यात्म परायण हैं। इनमें से भी उनका दायित्व तो और भी अधिक बढ़ जाता है, जिन्हें प्रज्ञावतार ने अपना अंग-अवयव कहा और माना है। विश्वमन्थन की इस घड़ी में उन्हें प्रज्ञावतार की कारण सत्ता के प्रखर तप में अपने भी तप-प्राण घोलने हैं। इस महामन्थन में उन्हें भी देव शक्तियों के पक्षधर बनकर अपनी भागीदारी निभानी हैं। जब पल चुनौती भरे हों तो शूरवीर कहीं कोने में दुबककर सिमटे-सिकुड़े नहीं बैठे रहते। पलायन तो कायरों और डरपोकों को ही शोभा देता है। तपस्वी तो हमेशा ही प्रचण्ड पौरुष का मूर्तिमान रूप होते आए हैं। उन्हें भला ऐसे में असुरता से दो-दो हाथ किए बिना चैन कहाँ? और फिर तब तो उनकी जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है, जब देव सेना के महानायक बने श्रद्धेय गुरुवर ने अपनी शिष्य-सन्तानों और देवत्व के पक्षधरों को अपने प्रचण्ड तप में भागीदार बनने के लिए संकेत दिए हों।

‘तप’ दो अक्षरों का शब्द भर नहीं है, यह वह महाशक्ति है, जो हमेशा ही असुरता के उद्दाम एवं प्रचण्ड वेग को घुटने टेकने के लिए मजबूर करती आयी है। इतिहास और पुराणों में इसके आश्चर्यजनक प्रभावों के उदाहरण भरे पड़े हैं। अगस्त्य एवं विश्वामित्र के महातप ने रावण और उसके संगी साथियों के दिल दहला दिए थे। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के माध्यम से इन्हीं महर्षियों की तपशक्ति क्रियाशील थी, जिसने देखते-देखते समूचे युग को आसुरी प्रभावों से मुक्त कर दिया था। द्वितीय विश्वयुद्ध में हिटलर के प्रचण्ड आसुरी वेग को जब महर्षि अरविन्द ने अपने तपशक्ति से टक्कर दी, तो उसे मिटते ही बना। स्वयं परम पूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन काल में राष्ट्रीय एवं मानवीय संकट के समय अपने तप के प्रचण्ड प्रभाव से संकटों के महापर्वतों को रौंद-मसलकर धूल में मिला दिया।

उनकी सक्रियता अभी थमी नहीं है। वह अभी भी तप-निरत हैं। बस हमें भी ग्वाल बालों की भाँति गोवर्धन के नीचे आकर खड़ा होना है। इससे हमें सुरक्षा एवं श्रेय दोनों ही मिलेगा। साथ ही देवशक्तियों के ऐसे अगणित अनुदान हम पर बरसेंगे, जिससे हमारा जीवन धन्य और कृतकृत्य बन सके। प्रज्ञावतार की पराचेतना से प्रेरित तप के इस विशिष्ट अनुष्ठान का स्वरूप जटिल होते हुए भी अपने प्रभाव में प्रचण्ड ऊर्जा उत्पादक एवं असुरता के लिए भयकारक एवं संहारक है। इसको शामिल होने के लिए जाति-वर्ग, आयु एवं स्थान का कोई बन्धन नहीं है। हर कोई अपने स्थान पर रहते हुए अपनी नियमित दिनचर्या का निर्वाह करते हुए इसे कर सकता है।

इसके लिए भागीदार स्त्री-पुरुष सभी अपनी नियमित साधना के साथ रुद्र गायत्री मंत्र की एक माला असुरता के संहार के लिए करें। इस विशेष जप में रुद्र गायत्री महामंत्र के साथ क्लीं बीज का संपुट लगाएँ। यह संपुटित रुद्र गायत्री मंत्र है- “ॐ क्लीं क्लीं क्लीं पंचवक्त्राय विद्महे महादेवाय धीमहि। तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् क्लीं क्लीं क्लीं ॐ।” इस संपुटित महामंत्र के जप के साथ यह गहन भावना रखें कि हम प्रज्ञावतार परम पूज्य गुरुदेव की तप साधना में विशिष्ट भागीदार हैं। और हमारी तप ऊर्जा उनकी तपश्चेतना के साथ एक होकर आतंकवादी असुरता का संहार और विश्व कल्याण कर रही है। इस महाप्रयोग को करते समय हमारी गहन आस्था यह भी रहे कि हम और हमारे सभी परिजन परम पूज्य गुरुदेव के तप-तेज से सुरक्षित हैं। भगवान् सूर्य की रश्मियाँ शक्ति किरणें बनकर हमें अजस्र ऊर्जा अनुदान दे रही हैं।

इस साधना अनुष्ठान का दूसरा चरण रुद्र गायत्री महामंत्र से दी आहुतियों के रूप में है। इन आहुतियों की संख्या अपने समय एवं सामर्थ्य के अनुसार पाँच या ग्यारह हो सकती है। रुद्र गायत्री के साथ पाँच या ग्यारह की संख्याएँ विशेष शुभ योग देती हैं। क्योंकि शास्त्रानुसार भगवान् रुद्र पंचमुखी हैं और उनके रूप ग्यारह हैं। तभी शास्त्रकारों ने एकादश रुद्रों की चर्चा की है।

इस अनुष्ठान साधना को करने वाले ध्यान रखें कि जिस-तिस तरह जप संख्या पूरी कर लेने का नाम साधना नहीं है। जप संख्या तो ज्यों-त्यों करके कोई भी खाली समय में पूरा कर सकता है। पर विलासी एवं अस्त-व्यस्त दिनचर्या अपनाने वाला व्यक्ति उतनी भर चिह्न पूजा से कोई बड़ा काम नहीं कर सकता। साथ में तपश्चर्या के कठोर विधान भी जुड़ने चाहिए, जो स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण तीनों ही शरीरों को तपाते एवं हर दृष्टि में समर्थ बनाते हैं। संचित कषाय-कल्मष भी तप साधना में बहुत बड़े व्यवधान होते हैं। उनका निवारण एवं निराकरण भी इसी भट्टी में प्रवेश करने से बन पड़ता है। ऋषि-मुनियों की जिस प्रखरता की चर्चा शास्त्रों में होती है, वह उनकी विद्वता के कारण नहीं, गहन तप साधना का परिणाम है।

इसलिए इस अनुष्ठान साधना के भागीदारों को अपनी शारीरिक एवं मानसिक स्थिति के अनुसार कुछ व्रतबन्ध अवश्य अपनाने चाहिए। उदाहरण के लिए स्थूल शरीर का शोधन- उपवास अथवा अस्वाद व्रत से आसानी से होता है। इसे अपनी स्थिति के अनुसार सप्ताह में एक दिन हो सके तो रविवार या गुरुवार को अपनाया जा सकता है। इसी तरह सूक्ष्म शरीर के परिशोधन के लिए नियमित रूप से स्वाध्याय का सहारा लिया जाना चाहिए। कारण शरीर की साधना तो अपनी गुरु सत्ता को भाव भरा समर्पण करने से ही पूर्ण होती है समर्पण की गहनता हमें श्रद्धेय गुरुवर की तपचेतना एवं उनके द्वारा सम्पन्न किए जा रहे युग प्रत्यावर्तन का परिचय अपने आप ही दे देगी।

इस विशेष तप साधना में भाव और उद्देश्य मुख्य है- क्रिया विधि नहीं। सो अन्य धर्मों को मानने वाले, अन्य साधना पथो-पन्थों के अनुयायी अपनी साधना में इन भावों को समावेशित कर युग चेतना के भागीदार एवं सहचर बन सकते हैं। देवत्व के पक्षधर, विश्व मानवता का कल्याण चाहने वालों को इसमें बढ़-चढ़कर अपनी भागीदारी निभानी चाहिए। विचारशीलों एवं जाग्रत् आत्माओं का कर्त्तव्य है कि वे इसके लिए स्वयं तो आगे आएँ ही, अपने साथी-सहचरों को भी इसके लिए प्रेरित करें। जिन्हें युग देवता भगवान् महाकाल की चमत्कारी सामर्थ्य पर भरोसा है- उन्हें इस विशेष साधना-अनुष्ठान की परिणति एवं परिणाम के बारे में भी आश्वस्त रहना चाहिए। आज हो रहे विश्व मन्थन के परिणाम स्वरूप नवयुग आएगा और निश्चित ही आएगा। इक्कीसवीं सदी- उज्ज्वल भविष्य का अभिप्राय एवं पर्याय बनकर रहेगी।


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