अपने भाग्य के निर्माता हम स्वयं

December 2001

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यह एक ऐसे व्यक्ति की जीवन कथा है, जो किसी के भी जीवन की गाथा हो सकती है। इसमें निहित भाव एवं तथ्य शाश्वत हैं। यह अंधकार में भटक रहे जीवन से प्रकाश की ओर गमन की कहानी है। यह आत्मघाती दुष्प्रवृत्तियों के शिकंजे से उबरने की संघर्ष गाथा है, जो इस आशा को जगाती है कि मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं है और वह अपने भाग्य का निर्माता एवं विधाता स्वयं आप है। फ्रेंक हेर्म्बग ने अपने जीवन में इसे ही चरितार्थ किया।

वह प्रतिकूल परिस्थितियों की मार से त्रस्त व्यक्ति था। इसे भाग्य का दोष कहें या नियति का क्रूर मजाक, जो उसे बचपन से ही माता-पिता का उचित संरक्षण एवं स्नेह नहीं मिल पाया और न ही विज्ञजनों का सत्संग एवं सही मार्गदर्शन। जीने का कोई स्पष्ट उद्देश्य न रहा तो, स्वाभाविक रूप से जीवन की ऊर्जा निम्नगामी मार्ग में प्रवाहित होती रही, और जीवन के दुःख एवं संघर्ष के बीच धूम्रपान और शराब जैसे दुर्व्यसन अभिन्न सहचर बन गए। इसी के साथ बिना कठोर श्रम किए सुख, सुविधापूर्ण जीवन जीने की भ्राँत धारणा भी मस्तिष्क में आ उभरी। इसी क्रम में किशोरावस्था में ही चोरी के दुष्कृत्य को अंजाम दे बैठा। और इसके परिणाम में मिली पुलिस की हिरासत, जेल की यात्रा, समाज से घृणा, जेल से मुक्ति और पुनः चोरी एवं बदले कल आग में विभत्स कुकृत्यों को अंजाम देने का दुष्चक्र चलता रहा।

दिशाहीन अपराधी जीवन के ये क्षण उन दिनों जेल की काल कोठरी में बीत रहे थे। कुछ ही महीनों में जेल के दुष्प्रभाव भी दिखने लगे। अनिद्रा, सरदर्द और कब्ज आदि जीवन चर्या के अभिन्न अंग बन गए थे। दवाइयों से कोई राहत नहीं मिल रही थी। बल्कि शारीरिक एवं मानसिक रोगों के और गम्भीर लक्षण प्रकट हो रहे थे। लगा कि ये सब जेल के आहार की गड़बड़ी के कारण हो रहा है। अतः आहार के चुनाव के संदर्भ में आहार विज्ञान पर एक पुस्तक की व्यवस्था की।

एक दिन फ्रेंक हेर्म्बग जेल के बूचड़खाने में पहुँचा, वहाँ मारे हुए पशु की लाश उल्टी लटक रही थी। इस दृश्य से उसे गहरा झटका लगा और इसी के साथ उसने माँसभक्षण को त्यागने का संकल्प किया। जेल के अंदर यह सब करना काफी कठिन था। जहाँ अन्य शराब और माँस पर जी रहे थे, वहाँ वह ताजा और सुपाच्य आहार लेने का प्रयास कर रहा था।

धीरे-धीरे इसके सत्परिणाम आने लगे। मन-मस्तिष्क का बोझ हलका होने लगा, जो सही दिशा में बढ़ रहे कदमों का संकेत था। संयोग से इसी दौरान योग की एक पुस्तक उसके हाथ लगी और इसे पढ़कर उसे जीवन की सही दिशा का और स्पष्ट आभास हुआ। अब तो विविध योगासनों एवं ध्यान के अभ्यास का क्रम चल पड़ा। उसे इस सबसे जीवन में एक गम्भीर आँतरिक परिवर्तन की अनुभूति होने लगी, और यह धारणा प्रबल होती गई कि अब तक जीवन त्रुटियों की एक लम्बी शृंखला रहा और अब इसे सुधारकर सार्थक दिशा की ओर नियोजित करना है।

किन्तु वह अभी शराब नहीं छोड़ पाया था और दिन में तीन पैकेट सिगरेट के पी रहा था। साथ ही उसे यह भी लग रहा था कि हृदय दुर्बल हो रहा है और वह फेफड़ों को बर्बाद कर रहा है। इसी दौरान उसने निश्चय किया कि वह चलते समय सिगरेट नहीं पीएगा, जो स्वयं में एक कठिन कार्य था। किन्तु निश्चय पक्का था अतः वह क्रमशः सिगरेट की संख्या कम करता गया। इस तरह यह संकल्प दृढ़ होता गया कि वह शीघ्र ही धूम्रपान की इस आदत से मुक्त हो जाएगा और साथ ही वह गहरे श्वास का अभ्यास सचेतन रूप से करता रहा। अन्ततः वह सिगरेट की जगह मीठी गोलियाँ लेने लगा। यह आवश्यकता भी क्रमशः क्षीण होती गयी और वह धूम्रपान से पूरी तरह से मुक्त था। इसी के साथ उसने शराब की लत को भी जीतने का निश्चय किया। यह उसकी दूसरी विजय थी। क्रमशः वह कई अन्य अस्वस्थ आदतों से भी मुक्त होता गया। और अब वह शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक एवं आत्मिक हर स्तर पर पहले से अधिक स्वस्थ एवं संतुलित अनुभव करने लगा।

किन्तु अभी भी वह नकारात्मक विचारों से मुक्त नहीं हो पाया था। अतः उसने सचेतन रूप से अपने विचार पद्धति को भी बदलने का निश्चय किया। उसे यह समझ आ गया था कि रूपांतरण का प्रथम चरण, अपने स्वास्थ्य और आदतों के लिए अपनी पूरी जिम्मेदारी लेने में है। इसी के साथ सुधार का सचेतन प्रयास अपनी दुर्भावनाओं में सबसे घातक भाव-घृणा से शुरू हुआ। लगा कि जहाँ घृणा है, वहाँ सद्भावना भी होनी चाहिए और जहाँ स्वार्थ है, वहाँ उदारता भी होनी चाहिए। अपने अन्दर उभरते हुए इन शिव भावों एवं विचारों को वह कहावतों की तरह लिखित रूप में साथ रखता गया और प्रतिदिन संकल्प की तरह इन्हें पढ़ता रहा।

उसने गहराई से अनुभव किया कि वह अपनी दुष्प्रवृत्तियों के लिए स्वयं जिम्मेदार था। अपने जीवन में अब तक दूसरे व्यक्तियों से जो भी अन्याय अनुभव कर रहा था वह सब गलत था। इस संदर्भ में उसने बदला लेने के विचारों को भुलाने का निश्चय किया। सबके साथ सद्भावपूर्ण जीवन जीने के संकल्प के साथ शान्ति की एक अद्भुत लहर उसकी अन्तर्चेतना में दौड़ गई। और अस्तित्व इसकी शीतलता से सराबोर हो उठा। अब जेल की संकरी और त्रासदायक कोठरी पहले से अधिक बड़ी और सुखद लग रही थी। जीवन का जैसे एक नया पुष्प खिल रहा था, जिसमें अपने प्रति, दूसरों के प्रति और समूचे विश्व के प्रति सद्भाव, शान्ति एवं प्रेम का भाव महक रहा था। सात्विक आहार-विहार, सतत् स्वाध्याय, आत्मचिंतन एवं योगाभ्यास द्वारा जैसे एक नया इन्सान जन्म ले रहा था। पहली बार उसे यह प्रतीत हो रहा था कि, बाह्य जगत् का परिवर्तन, आँतरिक जगत् के विकास के अनुरूप ही होता है।

जेल के पाँच वर्ष अब बीत चुके थे। एक दिन जेल का वार्डन कोठरी में आकर कैदी से बोला कि ‘अब तुम आजाद हो।’ यह सुनकर फ्रेंक हेर्म्बग मुस्कराया। क्योंकि वह तो उन आदतों, दुष्प्रवृत्तियों एवं विचारों से पहले ही आजाद हो चुका था, जिन्होंने उसे जेल व अन्य बाहरी यंत्रणाओं की अपेक्षा अधिक जटिल रूप से जकड़ रखा था। और गम्भीर कष्ट एवं त्रास पहुँचाया था। जीवन का अनुभव उससे कह रहा था कि बाहरी स्वतंत्रता की अपेक्षा आँतरिक स्वतंत्रता अधिक मूल्यवान है। और परिस्थितियाँ जो भी हों, इनकी प्रतिक्रियाएँ मनःस्थिति पर ही निर्भर करती हैं।

जेल में एक नष्ट-भ्रष्ट जीवन के रूपांतरण की यह गाथा थोड़े-बहुत बदले रूप में किसी भी व्यक्ति के जीवन का सत्य हो सकता है। बचपन के त्रुटिपूर्ण प्रशिक्षण एवं दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों के दंश की मार से पीड़ित व्यक्ति, किसी भी स्थिति में जीने के लिए बाध्य क्यों न हो, यदि व्यक्ति इस दुर्दशापूर्ण स्थिति के लिए बाहरी परिस्थितियों एवं दूसरे व्यक्तियों को दोष देने की बजाए, इसकी पूरी जिम्मेदारी स्वयं पर ले तो, इसे जीवन के रूपांतरण का श्रीगणेश हुआ मान सकते हैं। इसी के साथ आत्म-सुधार एवं निर्माण का अगला मार्ग स्वतः ही प्रशस्त होता जाएगा, जिसमें ‘मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है।’ की उक्ति को पग-पग पर चरितार्थ होते देखा जा सकेगा।


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