नारी चेतना अब जाग्रत हो चली है

December 2001

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‘कल तक वे घर की दहलीज के भीतर थीं सहमी, सकुचाई, ठिठकी-ठिठकी, आज वे दहलीज के पार हैं अपनी जमीन तलाशती, कल तक उनके सपने आँखों की पलकों पर ही चिपके रहते थे, आज वे सपने साकार बन रहे हैं, धीरे-धीरे।’

नारी शक्ति का यह समवेत स्वर, आज युगपरिवर्तन के इन महान क्षणों में अपनी यथार्थता की गूँजी के साथ सर्वत्र प्रतिध्वनित हो रहा है। विश्व के हर कोने में ऐसी हवा चल पड़ी है महिलाओं के विकास के अनुरूप वातावरण बनता जा रहा है। नारी भी अपने घर की चहारदीवारी में सिमटे दोयम दर्जे से उबरकर अंतर्निहित क्षमता, सूझ-बूझ एवं साहस का परिचय देती हुई और दृढ़ एवं आत्मविश्वासपूर्ण कदमों के साथ आगे बढ़ रही है। पुरुष प्रधान समाज में वह अपने स्वतंत्र अस्तित्व का अहसास दिला रही है।

रूस में जनसंख्या की 53 प्रतिशत महिलाएं हैं, जिनमें 47 प्रतिशत महिलाएं रोजगार में लगी हैं। नौकरी में लगी उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाओं की संख्या 50.5 प्रतिशत है और 56.2 प्रतिशत विशिष्ट उच्चतर शिक्षा प्राप्त है। राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए कई प्रयास चल रहे हैं। इसी उद्देश्य से अक्टूबर 1993 में ‘वीमेन ऑफ एशिया’ नामक राजनैतिक आँदोलन की नींव रखी गई थी। 19993 के संसदीय चुनाव में इस आँदोलन की 21 सदस्या विजयी होकर आई थी। इसी क्रम में तत्कालीन राष्ट्रपति बोरसि येल्तिसन ने महिलाओं के हित में एक अध्यादेश जारी किया था, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया था कि स्त्रियाँ समाज में जो भूमिका अदा कर रही हैं, उसी अनुपात में उन्हें राज्य प्रणाली के उच्च व मुख्य पदों पर भी प्रतिनिधित्व दिया जाए। प्रथम बार अध्यादेश के माध्यम से महिलाओं के लिए न्यूनतम कोटा रखने की बात की गई थी।

ईरान के उदारवादी राष्ट्रपति मोहम्मद खातमी ने एक महिला सम्मेलन में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार देने की वकालत की है और कहा है कि मजहब के आधार पर महिलाओं को उनके वाजिब अवसरों से वंचित नहीं करना चाहिए। अपने वादे को निभाते हुए उन्होंने महिलाओं को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त भी किया। जिनमें मैसीमेह उल्तेकार तो उपराष्ट्रपति पद पर हैं। इस समय ईरानी संसद में 13 महिला सदस्य और एक महिला उपाध्यक्ष हैं। महिलाओं को समान अधिकार देने संबंधी प्रयास के ही परिणामस्वरूप वर्ष 97 के अंत में ईरान ने पहली बार महिला न्यायाधीशों की नियुक्ति की। ईरान में 1978 में हुई इस्लामी क्राँति के बाद से महिलाओं की पारिवारिक भूमिका पर ही बल दिया जाता था और अब तक उनके न्यायाधीश बनाए जाने पर रोक थी, पर अब स्थिति बदल रही है।

उगते सूर्य के देश जापान में भी नारियों की स्थिति में बहुत परिवर्तन आ गया है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद छह वर्ष के अमेरिकी कब्जे व पुनर्निर्माण के गत चार दशकों में आर्थिक सुधार व सबके लिए अनिवार्य शिक्षा को इस बदलाव का कारण माना जाता है। गत बीस वर्षों में जापान के श्रम बाजार में महिलाओं ने पुरुषों की अपेक्षा तेजी से प्रवेश किया है। 1996 में संपूर्ण श्रम शक्ति की 50 प्रतिशत पूर्ति महिलाएं कर रही थीं। वर्ष 1976 से 1996 के बीच प्रबंधकीय पदों पर महिलाओं की उपस्थिति में 60 प्रतिशत वृद्धि हुई। अभी तक अधिकाँश महिलाएं बैंक व डिपार्टमेंटल स्टोर तक सीमित थीं, जबकि आज भव्य व्यापारिक मंत्रणा कक्ष भी उनके लिए अछूते नहीं रह गए हैं। वर्षों से जापानी कंपनियों में प्रबंधकीय श्रेणी केवल पुरुषों के लिए आरक्षित मानी जाती थी व महिलाएं लिपिकीय कार्य तथा चाय परोसने तक सीमित थीं। अब पहली बार महिलाएं प्रबंधन की ओर अग्रसर हुई हैं और उनकी संख्या बढ़ती जा रही है।

सिडनी में हुए एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार पुरुषों की तुलना में महिलाएं अच्छी ‘बाँस’ सिद्ध हो सकती हैं, क्योंकि वे अपने काम के प्रति अतिरिक्त प्रयास के लिए तैयार रहती है और उनका सहयोगी व्यवहार आधुनिक कार्यस्थली के लिए उपयुक्त रहता है। महिला प्रबंधक अपने कर्मचारियों को ऊंचे-से-ऊंचा लक्ष्य हासिल करने के लिए प्रेरित करती है और कर्मचारियों के अच्छे कार्यों के लिए उनको प्रतिफल भी प्रदान करती है। महिलाएं अपने स्टाफ को कार्यों के संबंध में नए विचार और तरीके अपनाने के लिए प्रेरित करती हैं। सर्वेक्षण में आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, अमेरिका और कनाडा के उत्पादन और सेवा संस्थानों के 1332 से अधिक कर्मचारियों के विचार लिए गए थे। इस सर्वेक्षण से यह भ्रम तो टूटा ही है कि नेतृत्व की भूमिका के लिए महिलाएं उपयुक्त नहीं होती, सर्वेक्षण में यह भी कहा गया है कि पुरुष नेतृत्व क्षमता विकसित करने के लिए महिलाओं से सीख ले सकते हैं।

अपने देश की पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी एक क्राँतिकारी कदम है। 73वें संविधान संशोधन बिल के परिणामस्वरूप अधिक-से-अधिक महिलाओं को लोकतंत्र के आधारभूत स्तर पर राजनैतिक प्रक्रिया में भाग लेने के अवसर मिल रहे हैं। पंचायती राज के तीनों स्तरों-गाँव, ब्लॉक एवं जिला स्तर पर महिलाओं के लिए एक तिहाई स्थान आरक्षित किए गए हैं। अपनी भूमिका सक्षमता से निभाते हुए उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि महिलाएं किसी तरह कम नहीं है। अनुभव से ज्ञात हो रहा है कि वे बहुत अच्छा काम कर रही हैं। कहीं-कहीं तो पथभ्रष्ट पुरुष को सीधे रास्ते पर लाकर सभ्य समाज की परिकल्पना साकार कर रही हैं।

पंचायती राज व्यवस्था के अंतर्गत मिले अधिकारों एवं कर्त्तव्यों का सदुपयोग करते हुए बस्तर जिले की ग्राम पंचायत कलगाँव की महिलाओं ने अपने पिछड़े गाँव को एक आदर्श गाँव के रूप में बदलकर एक मिसाल कायम कर दी है। 800 महिलाओं से बने महिला मंडल ने जब रचनात्मक कार्यों को हाथ में लिया तो सर्वप्रथम शराब के विरुद्ध आँदोलन छेड़ा। गाँव में शराब में डूबे पुरुषों द्वारा लड़ाई-झगड़ा एवं नारी शोषण आम बात हो गई थी। घर-परिवार की आर्थिक स्थिति की बिगड़ती जा रही थी। महिलाओं के शराब विरोधी आँदोलन से शराबियों की शामत आ गई। उन्हें दंडस्वरूप 157 रुपये जुर्माना देना पड़ा था। प्रति रविवार मद्यपान, निरक्षरता एवं अंधविश्वास के विरुद्ध अभियान रूप में रैली होती थी और दिनभर गलियों की सफाई। साथ ही ‘स्कूल चलो’ अभियान के अंतर्गत बच्चों को स्कूल भेजा जाने लगा।

पंचायती राज से मिले एक तिहाई आरक्षण का उत्तराखंड की पहाड़ी महिलाएं भी भरपूर उपयोग कर रही हैं। इसके परिणामस्वरूप कई महिलाएं ग्राम प्रधान, ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत की सदस्य चुनी गई हैं। इनमें से कई स्वतंत्र रूप से अपने प्रभाव का उपयोग कर रही हैं। विशेषकर चेतना आँदोलन से जुड़ी महिलाएं पंचायती संस्थाओं के ऊपर अपनी छाप छोड़ती जा रही हैं। ये सभी पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों की पहचान बनाने व उनकी सामाजिक सुरक्षा दृढ़ करने में संघर्षरत हैं। भ्रष्टाचार एवं शराबखोरी के विरुद्ध ये मुहिम छेड़े हुए हैं।

हरियाणा के पंचायती राज में महिलाओं की भूमिका पर सेंटर फॉर डेवलपमेंट एंड एक्शन ने दो वर्ष के अंतराल में एक अध्ययन किया है। इनके अनुसार एक मौन क्राँति का शुभारंभ हो चुका है। अधिकाँश चुनी गई महिलाएं दो वर्ष पूर्व अनपढ़ थीं, लेकिन दो वर्ष में सरकारी कागज-पत्र व दस्तावेजों को पढ़ने में अक्षम व शिक्षित पति-पुत्रों पर निर्भरता के कटु अनुभवों ने उन्हें शिक्षित होने की प्रबल प्रेरणा दी है और ये महिलाएं अपनी पुत्रियों को शिक्षित करने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं। आरंभ में उन्हें पंचायत तंत्र का कोई ज्ञान नहीं था। आज वे इसमें सक्रियता से भाग ले रही हैं व अपनी शक्तियों का प्रयोग कर रही हैं।

दिल्ली स्थित लेडी इरविन कॉलेज के कम्यूनिटी रिसोर्स मैनेजमेंट तथा एक्सटेंशन विभाग की विदुषी शोधार्थियों ने सत्ता के विकेंद्रीकरण एवं स्थानीय की विदुषी शोधार्थियों ने सत्ता के विकेंद्रीकरण एवं स्थानीय प्रशासन में महिलाओं की भागीदारी से उनकी स्थिति में होने वाले परिवर्तन का पता लगाने के लिए एक सर्वेक्षण किया। अखिल भारतीय महिला संघ की सहायता से होने वाला यह सर्वेक्षण पाँच राज्यों में किया गया। 86 महिला कार्यकर्त्ताओं की संगोष्ठी में सर्वेक्षण की रिपोर्ट प्रस्तुत की गई। विभिन्न राज्यों में महिला समाज के अंदर होने वाली उथल-पुथल के रोचक प्रसंगों को उजागर करते हुए संगोष्ठी इस निष्कर्ष पर पहुँची कि ग्रामीण महिलाओं में राजनीति के प्रति जाग्रति बढ़ रही है। सत्ता में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका एवं अनुकरणीय सफलता की कहानियाँ तो इन्हें प्रोत्साहित करती ही हैं, महिला समाज में हो रहे सामाजिक एवं राजनैतिक परिवर्तन की ओर भी संकेत करती हैं।

विभिन्न क्षेत्रों के पंचायती राज में सक्रिय महिलाओं के विचार इस तरह से थे। लखनऊ में एक ब्लॉक पंचायत की सदस्य का कहना था, ‘हम आरक्षण को बैसाखी की तरह नहीं देखते, इसे प्रमुख धारा से जुड़ने तथा कुछ सार्थक कार्य करने की शुरुआत मान रहें हैं।’ फरीदाबाद जिला पंचायत की एक सदस्या का कहना था, ‘वे महिलाएं जो पहले घर से बाहर निकलने में झिझकती थीं, आज प्रशासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। यही एक क्राँतिकारी कदम है।’ हिमाचल प्रदेश के सोलन जिले की एक ग्रामप्रधान का कथन था, ‘पंचायत चलाने में क्या कठिनाई है? एक महिला यदि एक परिवार को चला सकती है, तो वह पंचायत भी चला सकती है। संभवतः पुरुषों की अपेक्षा अधिक दक्षता से।’

महिलाओं में शिक्षा के प्रसार के उद्देश्य से नेशनल पॉलिसी ऑफ एजुकेशन 96 का सूत्रपात हुआ था। इसके द्वारा शिक्षित महिलाओं की संख्या में सुधार हुआ है। प्राथमिक स्कूलों में लड़कियों के प्रवेश की वृद्धि दर 1981 की 66.2 प्रतिशत से 1991 तक 88.6 प्रतिशत तक रही। साक्षरता कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने से भी महिलाओं में एक जाग्रति पैदा हुई है। पश्चिमी बंगाल व आंध्रप्रदेश में शराबबंदी इसी जागरुकता का परिणाम रही। तमिलनाडु में पुडुडुकोट्टाई में साक्षरता व कराटे के अभ्यास ने महिलाओं को साहसी बना दिया है। इस क्रम में दिल्ली में साक्षरता अभियान के अंतर्गत 30 हजार कक्षाएं चलीं। प्रत्येक कक्षा में 10 छात्र थे, इनमें महिलाओं की संख्या 90 प्रतिशत थी। यहाँ कई क्षेत्रों में 50 प्रतिशत महिलाएं साक्षर हो चुकी हैं।

उपयुक्त सहायता, समर्थन और प्रशिक्षण मिलने से अशिक्षित, अप्रशिक्षित महिलाएं भी परिवार से लेकर राष्ट्र के आर्थिक विकास में अपना योगदान किस कुशलता से दे सकती हैं और आर्थिक परावलंबन को भी पछाड़ सकती है- राजस्थान सहकारिता आँदोलन से जुड़ी सैकड़ों महिलाएं इसका उदाहरण है। विविध सहकारी संगठनों के द्वारा अभिसिंचित आदिवासी महिलाओं का रेशम उत्पादन व्यवसाय आज लंबे संघर्ष एवं कठोर श्रम के परिणामस्वरूप फल-फूल रहा है। जिससे सैकड़ों आदिवासी महिलाएं न केवल आर्थिक रूप से बल्कि सामाजिक शक्ति के रूप में उभर रही हैं। यही नहीं अपने बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वच्छता आदि पर भी उचित ध्यान दे रही हैं।

इस तरह नारी चेतना अब जाग्रत हो उठी है। जागी ही नहीं, बल्कि उठकर आगे भी बढ़ चली है। उसके बढ़ते चरणों को अब कोई रोक नहीं सकता और शीघ्र ही वह अपने गौरवमयी पद पर प्रतिष्ठित होकर रहेगी। नारी की जाग्रत चेतना ही इक्कीसवीं सदी में सतयुगी संभावनाओं का आधार बनेगी।


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