सच्चा कीर्तिस्तंभ

December 2001

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उस दिन राजमहल के द्वार पर नगर श्रेष्ठी के साथ अन्य गणमान्य जनों की एक साथ उपस्थिति अप्रत्याशित थी। महाराज विक्रम इन सबको राजप्रासाद की ड्योढ़ी पर देखकर थोड़ा चौंके, ठिठके और हतप्रभ हुए। उज्जयिनी की सतत प्रवाहमान् शिप्रा की धवलधारा की ही भाँति उज्जयिनी नरेश वीर विक्रमादित्य भी जनकल्याण के कार्यों में सतत और अविराम निरत रहा करते थे। उनके सुशासन में भूख, भय एवं भ्रष्टाचार का नामोनिशान न था। प्रजाजनों को अपने शासक पर विश्वास था, तब फिर आज...?

यह प्रश्न विक्रमादित्य के नेत्रों में तीव्रता से चमक उठा। उन्होंने उपस्थित जनों की ओर निहारते हुए नगर श्रेष्ठी से पूछा- श्रेष्ठिवर! किस समस्या ने आप सबको एक साथ यहाँ आने के लिए विवश किया है? आप सब सकुशल तो हैं? प्रत्युत्तर में नगर श्रेष्ठी ने महाराज को प्रणाम करते हुए कहा-हम सबकी कुशलता के लिए चिन्तित न हों आर्य! आपके सुशासन में सभी प्रजाजन शान्तिपूर्ण, सुखमय जीवनयापन कर रहे हैं। हम सब तो आपसे एक आवश्यक कार्य हेतु अनुमति पाने के लिए पधारे हैं।

महाराज विक्रम उन सभी को महल के एक विशाल कक्ष में लेकर आए। वहाँ सभी ने यथायोग्य आसन ग्रहण किए। तत्पश्चात् विक्रमादित्य ने नगर श्रेष्ठी से पूछा-कहिए, किस आवश्यक कार्यवश आप लोगों का यहाँ आगमन हुआ है?

नगर श्रेष्ठी ने निवेदन किया-महाराज! आपकी पराक्रम कथा, आपकी दानशीलता, आपकी न्यायपरायणता, दीन-दुःखियों का अभाव दूर करने वाली आपकी तत्परता, प्रजा के दुःख में दुःखी एवं सुख में सुखी होने वाली मनोभावना की प्रशंसा करने में शब्दों की सामर्थ्य बौनी है। आप सच्चे अर्थों में इस जगत् रूपी नभ मण्डल में तेजोमय सूर्य के समान है।

महाराज विक्रमादित्य नगर श्रेष्ठी के इस कथन को सुनकर पहले तो कुछ पलों के लिए चुप रहे, फिर हल्के से मुस्कराते हुए बोले-तो आप सब यहाँ मेरी प्रशंसा के लिए पधारे हैं, किन्तु आप सब इतना तो समझते ही हैं कि प्रशंसा मनुष्य की प्रगति में बाधक ही बनती है।

‘ऐसा नहीं है वीरवर!’ नगर के एक गणमान्य सज्जन ने सभी उपस्थित जनों की भावनाओं को अपना स्वर देना प्रारम्भ किया। ‘हम लोग आपकी इस प्रकार के केवल प्रशंसा करने के लिए नहीं आए हैं, हम लोग तो एक निवेदन लेकर आए हैं।’

अपना आशय स्पष्ट करें आर्य! महाराज विक्रम उपस्थित नागरिकों के विचारों को स्पष्ट तौर पर जानना चाहते थे।

‘हम सबकी इच्छा है कि मध्यवर्ती विशाल चौक में संगमरमर पत्थर का आपका एक गगनचुम्बी कीर्ति स्तम्भ निर्माण कराया जाए।’ नगर श्रेष्ठी ने सबकी बात आखिर अपने शब्दों में पिरो ही दी।

‘कीर्ति स्तम्भ’ शब्द सुनते ही विक्रमादित्य ने नगर श्रेष्ठी से पूछा-इस कीर्ति स्तम्भ से आपका तात्पर्य और उसका लाभ?

श्रेष्ठी ने अपने कथन का निहितार्थ समझाते हुए कहा-’महाराज! आपका यह भव्य कीर्ति स्तम्भ आगामी पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्रोत बना रहेगा। भावी पीढ़ियाँ भी आपके प्रजाहित के कार्यों को सुनकर वैसे ही कार्य करने के लिए प्रेरित होती रहेंगी। राज्य का क्या आदर्श होना चाहिए उसकी व्याख्या से कीर्ति स्तम्भ द्वारा उन्हें मार्गदर्शन मिलेगा। आपकी कीर्ति के गुणगान के लिए नहीं, बल्कि भावी पीढ़ी के लिए कुछ प्रेरणा की प्राप्ति हो सके, इसी शुभाशय से हम लोग आपके नाम का कीर्ति स्तम्भ स्थापित करना चाहते हैं। आपकी खुशामद करने का हमारा कोई इरादा नहीं है।

उज्जयिनी नरेश को भी लगा कि यदि आगामी पीढ़ियों को योग्य मार्ग पर चलने के लिए ऐसे कीर्ति स्तम्भ द्वारा शिक्षा दी जा सकती है, तो ऐसा निवेदन मेरे द्वारा क्यों अस्वीकार किया जाए। इसके अतिरिक्त और भी कुछ विचार राजा के मन में आए। अन्त में उन्होंने उपस्थित जनों से कहा-इस प्रकार की बात मेरे लिए सर्वथा नयी और असाधारण है। अतः मैं तुरन्त कोई उत्तर नहीं दे सकता। आज की रात्रि में इस पर विचार करूंगा। अतः आज का समय मुझे आप लोग दें। उपस्थित जन समुदाय उज्जयिनी नरेश के इस कथन को सुनकर आशान्वित होकर अपने-अपने स्थानों की ओर चले गए।

वह पूरा दिन राज दरबार के कार्यों में व्यतीत हो गया। रात्रि में थोड़ी विश्राम के पश्चात् वीरवर विक्रम रात्रि के समय नगर भ्रमण के लिए चल पड़े। यह उनकी जीवनचर्या का नियमित कार्यक्रम था। अभी वह थोड़ी दूर चले थे कि दो अलमस्त साँड एक दूसरे से लड़ते-लड़ते सामने आते देख राजा विक्रम रास्ते से एक ओर सरककर एक ब्राह्मण की गोशाला में बने एक मोटे खम्भे पर चढ़ गए।

गोशाला का मालिक वह ब्राह्मण अभी तक जाग रहा था। वह बड़ा ही विद्वान ज्योतिषी था। भूत, भविष्य और वर्तमान की बातें वह बड़ी ही आसानी से बयान कर देता था। आज की रात्रि के आकाश में मंगल और शुक्र ग्रह को देखकर उसने पास ही खाट पर सोई अपनी पत्नी को जगाकर कहा-अरी सुन! इस समय इन दोनों ग्रहों का योग लाभकारी नहीं है।

उसकी पत्नी इस तरह अचानक जग पड़ने से थोड़ा खीज गयी थी। इस खीज में ही उसने कहा-लाभकारी नहीं है, तो क्या होगा? क्यों बेकार अपनी और हमारी नींद खराब करते हो। फिर थोड़ा ऊँघते स्वर में बोली-अपनी तो इससे कुछ हानि नहीं होगी।

नहीं, अपने लिए तो इनका कोई बुरा प्रभाव नहीं है, लेकिन दुःखभंजक महाराज विक्रम के लिए आज इन ग्रहों का योग बड़ा ही भयकारक एवं घातक है।

फिर वह ब्राह्मण अपने आप से कहने लगा-यह तो बड़ी खराब बात होगी। प्रजापालक महाराज विक्रमादित्य के जीवन में भय और दुःख आए यह हम कैसे सह सकते हैं?

इतनी बातें कहकर ब्राह्मण किसी विचार में मग्न हो गया। वह मौन बना रहा। पति के इस मौन से पत्नी उकता गयी। उसने पति का हाथ झकझोरते हुए कहा-चुप क्यों हो, तुम ही कोई उपाय निकालो। राजा के इस संकट के निवारण का उपाय तुम्हारे शास्त्रों में कुछ तो होगा? अरे भाग्यवान्! मैं इस संकट के निवारण का उपाय ही सोचने में लगा हूँ। मुझे लग रहा है कि संकट के निवारण के लिए अनुष्ठान की आवश्यकता है।

‘कैसा अनुष्ठान?’

‘राजा पर आए सम्भावित संकट के निवारण के लिए सेतु महात्म्य खण्ड का पाठ करना होगा।’

‘तब तुम कल प्रातः जाकर राजा से सारी बातें बतलाओ और कहो कि वह पाठ का आयोजन करें।’

‘नहीं, राजा को यह सब बतलाना मुझे अच्छा नहीं लग रहा है। हमीं स्वयं महाराज के जीवन के लिए सेतु महात्म्य खण्ड के पाठ कर अनुष्ठान करेंगे।’

ब्राह्मण की पत्नी को अपने पति की यह बात ठीक नहीं लगी। उसे पता था कि इस अनुष्ठान में पर्याप्त खर्च आता है। इस खर्च की बात सोचकर वह थोड़ा भड़क गयी और कहने लगी-’राजा ने अब तक हमारे लिए क्या किया है, जो हम उनके लिए यह बेमतलब का खर्च उठाएँ। हम तो पहले से ही अपनी चिन्ताओं की वजह से परेशान हैं।’

पत्नी की ये बातें सुनकर ब्राह्मण ने थोड़ा क्रोधपूर्वक कहा-’ऐसी बातें कहना ठीक नहीं है। महाराज वीर विक्रमादित्य के लिए इस तरह की बातें करना किसी भी तरह से उचित नहीं है।’

परन्तु ब्राह्मण की पत्नी के मन में गुबार कुछ ज्यादा ही था। उसने अपना रोष व्यक्त करते हुए कहा-’अब रहने भी दो। यह भी कभी सोचा है, अपनी तीन कुँआरी कन्याएँ हैं। इनके विवाह के लिए हम लोग कितने हैरत, परेशान रहते हैं। किन्तु पास में पैसा न होने के कारण हम उनका विवाह नहीं कर पा रहें।’

‘हाँ यह बात तो सच है, फिर...’

‘फिर क्या? क्या राजा का यह फर्ज नहीं बनता कि कन्याओं का विवाह की वह व्यवस्था जुटाए। बाद में हम उसके लिए अनुष्ठान की व्यवस्था करें।’

पत्नी की बातों ने ब्राह्मण को चिन्ता में डाल दिया। वह कुछ बोल नहीं सका। खम्भे पर बैठे राजा ने अपने कानों से ब्राह्मण दंपत्ति की सारी बातें सुन ली थी। इतनी देर में लड़ते हुए दोनों साँड़ भी कहीं दूर चले गये थे। रात्रि भी समाप्त हो चली थी। वह खम्भे से उतरकर अपने महल की ओर चल पड़े।

रात्रि बीती, प्रभात हुआ। महाराज विक्रम ने अपने निजी सेवक से ब्राह्मण को दरबार में बुला भेजा। साथ ही नगर श्रेष्ठी के साथ उन गणमान्य जनों को भी बुलाया गया जो कल कीर्ति स्तम्भ के निर्माण की प्रार्थना लेकर आए थे।

आज का दरबार अपनी सज-धज में कुछ विशेष था। कुछ ही देर में सभी लोग उपस्थित हो गए। राजा ने संकेत कर ब्राह्मण से कहा-विप्रवर आप आसन ग्रहण करें। राजा के सिंहासन के बगल में रखे एक ऊँचे आसन पर बैठने का संकेत प्राप्त होते ही ब्राह्मण के मन की सारी शंका-कुशंकाएँ समाप्त हो गयी। वह आश्वस्त होकर बैठ गया।

दरबार की कार्यवाही प्रारम्भ करते हुए कहा-विप्रवर! आपकी कन्याओं के विवाह का सारा खर्च राजकोष से होगा। आप घर जाकर वर ढूंढ़े और उनके विवाह का मुहूर्त्त निश्चित कर लें। खर्च की कोई चिन्ता नहीं करेंगे। निश्चिन्त होकर पुत्रियों का विवाह करें।

राजा की बातें सुनकर ब्राह्मण निश्चिन्त हो गया। दरबार में नगर श्रेष्ठी और उनके साथ आए हुए गणमान्य जन भी उपस्थित थे। उनकी ओर देखते हुए राजा वीर विक्रम ने कहा-श्रेष्ठिवर! आपका निवेदन मैं स्वीकार नहीं कर सकता। मुझे अपने कीर्ति स्तम्भ की जरा भी आवश्यकता नहीं है। जनता की सेवा करना, दुखियों का दुःख मिटाना यही मेरा सच्चा कीर्ति स्तम्भ है। स्तम्भ की स्थापना मेरे अभिमान का कारण बनकर रह जाएगा, ऐसा मेरा मन कह रहा है।

दरबार में उपस्थित लोग एक दूसरे की ओर देखने लगे। पर अभी वे कुछ बातें इससे पूर्व राजा विक्रम ने कहा-मेरी आपसे एक विशेष प्रार्थना है।

‘आज्ञा करें राजन्!’ नगर श्रेष्ठी ने कहा।

आप लोगों ने मेरे कीर्ति स्तम्भ के निर्माण के लिए जो भारी धन व्यय करने की योजना बनायी है। उस सम्पूर्ण धन को आप जनहित के कार्यों में खर्च कर दें। यही मेरा सच्चा कीर्ति स्तम्भ होगा। भावी पीढ़ियाँ भी इसी से प्रेरणा प्राप्त कर सकेंगी।

नगर श्रेष्ठी समेत सारे जन राजा विक्रमादित्य के भावोद्गारों पर मुग्ध हो गए। सभी ने समवेत स्वरों में महाराज विक्रम के आदेश को शिरोधार्य करने की घोषणा की। इस स्वीकारोक्ति के अनुसार कार्य भी हुआ। और इस कार्य की परिणति सभी जानते हैं कि आज 2058 वर्ष बीत जाने पर भी महाराज वीर विक्रमादित्य की कीर्ति उतनी प्रखर, तेजस्वी एवं प्रेरणादायी है।


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