आत्मानुसंधान देगा सहजानन्द

March 1994

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‘आनन्द’ अध्यात्म की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। जो व्यक्ति इसे प्राप्त कर लेता है, उसकी अवस्था आध्यात्मिक दृष्टि से काफी उच्च मानी जाती है। इस आनन्द का उद्घाटन हर एक में हो सकता है, पर सर्वसामान्य में इसका निमित्त कोई दूसरा होता है, इसलिए वह क्षणभंगुर है और भौतिक भी, जबकि आध्यात्मिक आनन्द चिरस्थायी और अभौतिक अर्थात् आत्मिक है।

यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित है कि बाह्य वस्तुओं में हमें जहाँ-जहाँ, जब-जब सुख की अनुभूति होती है, वह वस्तुतः हमारे अंतस् के आनन्द की ही छाया मात्र है, क्योंकि बाहरी उपादानों में सुख कभी होता नहीं। जो होता है, वह मात्र दुःख है। यदि भौतिक पदार्थ आनन्द के स्त्रोत रहे होते, तो जिस चीज से एक को प्रसन्नता मिलती है, दूसरे के लिए भी वह इसके ठीक विपरीत हैं। देखा जाता है कि जो सामग्री हमारे जीवन में सुख और शाँति बनकर आती है, दूसरे के लिए वही महान दुःख का कारण बन जाती है। जड़ पदार्थ सचमुच ही याद प्रसन्नता के उद्गम है।,

ते आकुलता-व्याकुलता का निमित्त उन्हें क्यों बनना चाहिए? यदि बनते हैं तो निश्चय ही समझने में कोई भूल हुई और हम कुछ-के -कुछ मान बैठे हैं। कुत्ता सुखी हड्डी से निकल रहा है। वह जोर-जोर से चूसता है और आनन्दित होता रहता है, जबकि वास्तविकता यह है कि रक्त उसके जबड़ों से निकलता रहता है। उसे वह अस्थि से बाहर आता मान चबाता रहता है। रस उसे मिलता है, यह सत्य है, पर आस्वादन उसके अपने ही रस-रक्त का है, हड्डी का नहीं-अन्दर का है, बाहर का नहीं। पानी से यदि प्यास बुझती है, तो उससे सबकी बुझनी चाहिए, ऐसा नहीं कि किसी की बुझे और किसी की नहीं। कोई यदि कहे कि सभी की तो बुझती है, पर वह अतृप्त बना रहता है, तो इसमें त्रुटि-उसकी अपनी है, पानी की नहीं।

आत्मगत सत्य और वस्तुगत सत्य में नहीं अंतर है। एक से संबंधित सत्य की उपलब्धि दूसरे में नहीं की जा सकती और न यही संभव है कि एक सच दूसरे का पर्याय बने। द्रव्य का गुण आत्मा में ढूँढ़ना बेईमानी है और आत्मा का धर्म पदार्थ और संसार में तलाशना नासमझी। संसार में सौंदर्य भरा पड़ा है। कोई उसको निहार दूसरे को उससे वह सुख नहीं मिल पाता। यदि सौंदर्य है, तो इसकी खोज करने वाले प्रत्येक अन्वेषक को इससे सुख मिलना चाहिए, एक ऐसा कहाँ होता है? जिस सौंदर्य से भोग और विलासिता से हमें आनन्द मिलता है, उसी से कोई ’बुद्ध’ भाग अतृप्त बना रहता है, जबकि दूसरा घोर नरक जैसी परिस्थिति में भी स्वर्गीय सुख की प्रतीति करता है। आखिर ऐसा क्यों?

गहराई से विचार करने पर यही ज्ञात होता है कि जिस शाश्वत संतोष की तलाश हम बाहर करते रहते हैं, वस्तुतः वह अन्दर की वस्तु है। बाहर यदि उसकी अनुभूति होती है, तो वह भी भीतर का ही विस्तार हैं जैसे-जैसे हम गहराई में प्रवेश करते चलते हैं, वैसे-वैसे इस तथ्य की अनुभूति और अधिक स्पष्ट होती जाती है। इस सुख को बाहरी वस्तुओं में ढूँढ़ना चाहते हैं। सुख वहाँ है नहीं, इसलिए दुःख भोगना पड़ना है। इतना जानते समझते हुए भी व्यक्ति आज संसार में साधनों के पीछे शाँति के लिए भागता फिर रहा है। कोई इसे किसी चीज में खोजने का प्रयास कर रहा है, तो दूसरा किसी अन्य प्रयास कर रहा है, तो दूसरा किसी अन्य विषय में इसके अन्वेषण का प्रयत्न कर रहा है। सभी प्रयत्नशील हैं, पर आज तक इनमें से कोई भी इस सनातन सुख को उपलब्ध कर पाने में सफल न हो सका । पत्नी सोचती है कि उसे पति में सुख मिलेगा और पति का विश्वास है कि वह इसे पत्नी से प्राप्त कर लेगा। माँ, बेटे में सुख ढूँढ़ रही है, जबकि बेटे में पुत्र, पिता में-संसारी,संसार में और वैरागी, विराग में इसे अपने-अपने ढंग से खोज-यात्रा पूरी न हो सकी है और न भविष्य में पूरी होने की आशा है क्योंकि जिन्हें हम सुख का स्त्रोत मान बैठें हैं, वे इसके उद्गम है नहीं ।

आश्चर्य तो तब होता है, जब यह विदित होता है कि जिनमें हमें शाँति की तलाश है, वे इसकी खोज कहीं कर रहा है, मन कुछ और ढूँढ़ रहा है। शरीर अधिकाँश व्यक्ति की आज ऐसी ही स्थिति है। वे अपने में होते नहीं। संपूर्ण आपा वहाँ उपस्थित नहीं होता। इसलिए उनसे भेंट सम्पूर्ण रूप से होती नहीं। मिलन मात्र शरीर से हो पाता है, जो मन-प्राण के बिना अधूरा है। जो तृप्ति का अन्वेषण बाह्य विश्व में करते रहते हैं, उनकी सता हर वक्त अधूरी बनी रहती है। ऐसे लोगों को थोड़ी भी ठोकर लगती है, तो एकदम असंतुलित होकर गिर पड़ते हैं, और फिर गिरते ही चलती हैं, गिरने पर या तो आत्महत्या कर लेते हैं, गिरने पर या तो आत्महत्या कर लेते हैं या फिर पागल हो जाते हैं। जो तनिक बुद्धिमान हैं वे ना मात्र के वैरागी बन कर इधर-उधर भटकने लगते हैं। यही कारण है कि इन दिनों विक्षिप्तों,अर्धविक्षिप्तों और वैरागी कहे जाने वाले वेश धारियों की संख्या कुकुरमुत्तों की तरह द्रुतगति से बढ़ती ही जा रही है, क्योंकि वर्तमान में लोगों की यात्रा भीतर से बार की ओर हो गई है, जबकि होना इसके विपरीत चाहिए।

कभी यही स्थिति भर्तृहरि के समझ भी उपस्थित हो गई थी। उनका विश्वास था कि संतुष्टि बाहरी विषय वासनाओं द्वारा संभव है। इसकी प्राप्ति के लिए न जाने वे कितने मार्गों में भटकते रहे, कुछ कहा नहीं जा सकता। हर जगह-उन्हें निराशा हाथ, लगी, फिर भी वे हताश नहीं हुए। एक सामान्य व्यक्ति और उनमें यही मूल-भूत अंतर से उस बात की पुष्टि कर लेना चाहते थे, जिसमें आनन्द को संसार में बिखरा बताया गये विषयों और वस्तुओं में आनन्द तो मिला, पर चिरस्थायी न रह सका। फिर दूसरे तीसरे और चौथे में उनकी खोज आरंभ हुई। हर बार स्थिति एक-जैसी अनुभव हुई। हर बार स्थिति एक जैसी अनुभव हुई। इस प्रकार भटकाव भरी लम्बी जिन्दगी के उपराँत उनने जिस पुस्तक की रचना की उसका नाम हैं ”श्रृंगार शतक”। इस पुस्तक में उन्होंने बाह्य जगत में सुखोपलब्धि की व्यर्थता का विस्तार से उल्लेख किया है। इसके बाद उनकी अंतर्यात्रा शुरू प्रसिद्ध किया है और बताया है कि स्थित आनन्द की उपलब्धि आँतरिक एवं मात्र आँतरिक है। लगभग मिलता-जुलता भव प्रकट करते हुए मूर्धन्य मनीषी जंग ने अपनी पुस्तक “माडर्न मैन सर्च ऑफ ए सोल” में कहा है कि आरंभ में मनुष्य संबंधी मान्यता यह भी वह मात्र एक शरीर है और यह संसार उसके उपभोग के निमित्त है। ऐसी स्थिति में वह तुष्टि का संधान साधन-सामग्रियों में करता था और उसी के अधिकाधिक भोग में लिप्त रहता था। इसमें कइयों को संतुष्टि अनुभव हो भी जाती थी और कई अशाँत बने इधर-उधर शाँति की तलाश करते रहते थे। अब जबकि शरीर के अन्दर आत्मा की उपस्थिति को विज्ञान ने भी करीब-करीब स्वीकार लिया है, संभव है उसकी उपलब्धि से व्यक्ति को संपूर्ण सुख की उपलब्धि हो जाय और उसे पहले की तरह निरर्थक भटकता न पड़े। इसीलिए वे सलाह देते हुए कहते हैं कि यदि सचमुच ही मनुष्य के अन्दर वैसा कोई अद्भुत तत्व है, जिसकी प्राप्ति ही चरम प्राप्ति साबित हो और जिसके उपलब्ध हो जाने से सब कुछ उपलब्ध हो जाता हो जाने से सब कुछ उपलब्ध हो जाता,तो मनुष्य को उसी परम तत्व की शोध में जुट जाना चाहिए।

“स्वीरिचुअल क्रइसिस ऑफ मैन”नामक ग्रंथ में विख्यात विचारक पॉल ब्रण्टन लिखते हैं कि अध्यात्म की खोज वस्तुतः अपने ही अन्दर की खोज है, जबकि संसार जड़ पदार्थों के अनुसंधान की यात्रा है। विज्ञान जड़ युक्त है। अध्यात्म चेतनायुक्त है। जड़ में जड़ शोध की जानी चाहिए। उससे जो कुछ हस्तगत होगा, वह जड़वत् होगा, जबकि आनन्द चेतनामय है। यह आत्मा गुण है। आत्मा चैतन्य है, अस्तु इसे प्राप्त कर ही उस अवस्था में प्रतिष्ठित हुआ जा सकता है, जिसे भारतीय अध्यात्म में “सच्चिदानन्द” कहकर अभिहित किया गया है वे लिखते हैं कि इन दिनों भूल यह हो गई कि हम जड़ में चेतना को आत्मा की खोजते फिर रहे है, पुरा प्रकृति को अपरा प्रकृति में ढूँढ़ रहे है, जबकि दोनों पृथक विज्ञान है जिस दिन यह निरर्थक प्रक्रिया बेद होगी, उसी दिन से मनुष्य की वास्तविक आध्यात्मिक यात्रा शुरू होगी। फिर उसे शाँति और संतोष के लिए बाहर भटकना नहीं पड़ेगा।

इसके लिए उपाय यही है कि हम उपलब्ध साधनों में ही संतुष्ट रहें और धीरे-धीरे संतोष को बढ़ाते हुए साधन को घटाते चलें, तो एक दिन उस अवस्था में पहुँच सकते हैं। शुरुआत यदि इससे उलटी हुई, अर्थात् साधन को यदि इससे उलटी हुई, अर्थात् साधन को बढ़ाया और संतोष को घटाया गया, तो वह वासदायी अवस्था आ पहुँचेगी, जो आजकल चारों ओर दिखाई पड़ती है। प्रथम स्थिति में हमारी यात्रा अंतर्जगत की ओर होती है, जबकि दूसरी अवस्था हमें बहिर्जगत की ओर ले जाती है। प्रथम सुखदायी है, दूसरी दुःखदायी इस अर्थ में कि यदि हम बाहरी दुनिया और उसकी वस्तुओं से अपना सुख जुड़ा मानते हैं तो उसके दुःख भी हमसे संलग्न होते चले जायेंगे। यह पंचभौतिक विश्व नश्वर है। उसकी एक-एक चीज नाशवान है। हमारा मोह जिससे संयुक्त है, वह भी एक-न-एक दिन समाप्त होगा ही। इसीलिए तत्वेत्ताओं ने प्रेम की वस्तु परमात्मा को उपलब्ध करना ही अध्यात्म का उद्देश्य है। सर्वोच्च शांति एवं परमानंद इसी अवस्था में प्राप्त की जा सकती है। इसी के निमित्त हमारा प्रयत्न होना चाहिए।

दिग्भ्राँत प्रतिभा-प्रखर प्रज्ञा में बदले आज के इस वैज्ञानिक युग में एक बढ़ी-चढ़ी मूर्खता जनसाधारण के मन में कुछ अधिक गहरी जड़ें जमाकर बैठ गयी है। कि ईश्वर के संबंध में ज्यादा माथापच्ची करने के बजाय उसकी किसी सिद्धांत रहित ऐसे भूतप्रेत के रूप में कल्पना कर ली जानी चाहिए। जो निशिदिन उपहार बटोरने और नाक रगड़ने वाले भक्तजनों के पीछे पड़ा रहता है। साथ ही पूजा-पाठ की छिटपुट टंट घंट कर देने भर से फूल कर कुप्पा हो जाता है और मन चाहे, उपहार वरदान बाँट कर हर किसी की मनोकामनाएँ पूरी करता है, भले ही वे कितनी ही अनावश्यक या अनुचित क्यों न हो।

इसके अतिरिक्त इस तथाकथित मनुष्य निर्मित “परमेश्वर” में एक और भी बुरी आदत है कि पूजा−पत्री में कोई छोटी-मोटी गलती हो जाय तो वह आग-बबूला हो जाता हो जाय और कल तक जिसे भक्त किसी दूसरे देवता की पूजा करने लगे तो उसकी भी अच्छी खासी सी खबर लेता है। ऐसे लोगों की इस ईश्वर के संबंध में भ्राँतिपूर्ण मान्यता है।

आज का सशक्त माना जाने वाला परमेश्वर यही है, जिसे जातियों, वर्गों कबीलों और महा मतान्तरों वाले लोग, अपने-अपने तरीके से खोजते और अपनी-अपनी मान्यता के अनुरूप नाम रूप देते हैं। इस काल भैरव से किसी का क्या भला होता है इसे तो पूजने वाले ही जानें, पर एक बात निश्चित है कि इन स्वयंभू देवी-देवताओं के स्वयंभू एजेंटों की पाँचों उंगलियां हर घड़ी घी में रहती हैं। वे मनोकामना पूरी करने अथवा गरीबी दूर कराने के बहाने हर स्थिति में अपना एजेंटों का धन्धा बढ़ाते चलते रहे हैं।

विचारणीय यह है कि क्या सिद्धांत रहित उपहार मनुहार को लालची और किसी भी चाटुकार की सही गलत मनोकामनाएँ पूरी करने वाला कोई परमेश्वर हो भी सकता है क्या? इस संदर्भ में किसी भी दृष्टिकोण से विचार करने पर उत्तर नहीं में ही देना पड़ता है, क्योंकि सिलसिला यदि चल पड़े तो रही बची विवेकशीलता और न्याय निष्ठा के तो परखच्चे ही उड़ जायेंगे।

ऐसे कबायली परमेश्वर को पूजने वाले ही मनोकामनाएँ परमेश्वर को पूजने वाले ही मनोकामनाएँ पूरी होने पर उसे सौगुनी गाली भी देते देखे गये है जिसमें कि आशाएँ लगाये रहने से पूर्व मित्रता करने और चमचागिरी दिखाने में अतिवाद की सीमा ताक पहुँच जाते हैं। इस भ्राँत मान्यताओं वाले जंजाल को ही यदि परमेश्वर माना जाय तो फिर इसी के साथ एक बात और भी जान लेनी चाहिए कि इसके पीछे वास्तविकता कुछ भी न होने से लाभ कुछ भी नहीं होने वाला है। अँधे के हाथों कभी बटेर लग जाय तो बात दूसरी है।

उपरोक्त को पढ़ने से संभवतः तथाकथित पूजापाठ करने वालों की मान्यताएँ डाँवाडोल हो सकती है। जो थोड़ी-बहुत आधे-अधूरे मन से टंट-घंट करते थे, उसमें भी कमी आ सकती है। भक्तिवाद की आड़ में यह मिथ्या भ्रम-जंजाल चलाते रहने वाले को तो अपने व्यवसाय में घाटा दीख पड़ते ही अनख होने में ऐसी स्थिति भी आ सकती है जो प्रतिपक्ष पर किसी भी स्तर का आक्रोश लेकर पिल पड़े।

किन्तु यथास्थिति न कर यह भली-भाँति समझ लिया जाना चाहिए कि धर्म क्षेत्र में रूढ़िवादिता अंधविश्वास-मूढ़मान्यताएं अंधविश्वास-मूढ़मान्यताएं तथा मानव मात्र में भाग्यवाद-पलायनवाद अथवा अकर्मण्यता की प्रमोद भरी असुरता अकर्मण्यता की प्रमोद भरी असुरता फैलाने वाला भ्रम जंजाल जब भी बढ़ता है, तब तब उस समाज की तत्कालीन सभ्यता का पराभव आरंभ हो जाता है। प्रत्यक्षतः आस्तिक दीखते हुए भी प्रच्छन्न नास्तिक जब इस परिमाण में बढ़ने लगते हैं। तो प्रतिक्रिया स्वरूप परसता के वास्तविक स्वरूप को समझाने-धर्म का परिशोधन, परिष्कार कर इसका आमूलचूल कायाकल्प करने वाला तंत्र भी स्वतः विकसित होने लगता है। ऐसा समय संधिकाल परिवर्तन काल-युगाँतरकारी चेतना का कार्यकाल माना जाता है। वैजानिक धर्म-तर्क सम्मत धर्म-प्रमाण एवं तथ्यों पर आधारित सांस्कृतिक मान्यताएँ जब समाज में स्वीकारी जाने लगें तो समझना चाहिए कि प्रज्ञा जाग्रत हो रही है एवं समूह चेतना को बदलने का प्रयास कर रही है। आज का समय कुछ ऐसा ही है।

हमें वस्तुस्थिति को रंगीन चश्मा हटाकर अपनी अंतःदृष्टि से देखना चाहिए एवं धर्म-संप्रदाय से देखना चाहिए एवं धर्म-संप्रदाय-संस्कृति के नाम पर फैले धर्माडंबर से मुक्ति पाने हेतु अब तत्पर हो जाना चाहिए। विचारक्रांति, संस्कृति चेतना का नवोन्मेष, देवसंस्कृति चेतना का नवोन्मेष, देवसंस्कृति दिग्विजय का पराक्रम सब इसी पुरुषार्थ के पर्यायवाची नाम हैं। लक्ष्य एक ही है दिग्भ्राँत प्रतिभा-प्रखर प्रज्ञा में बदले तथा समष्टिगत चेतना विकसित हो। परम सत्ता के सही रूप को समझे, व्यवहार में जीवन में उतारे ताकि मानवी गरिमा के अनुरूप आचरण शक्य हो सके। ऐसा अलभ्य अवसर जिसमें सब कुछ बदलने वाला है। बार-बार आने वाला नहीं है।

मनश्चेतना के उच्चस्तरीय आयाम

मानव मस्तिष्क को क्षमता असीम एवं अप्रत्याशित है। उसे समस्त शक्तियों, अतीन्द्रिय क्षमताओं का केन्द्र मात्रा गया है। उसका पूरा नियंत्रण सारे शरीर पर होता है। उसकी इच्छा से ही नाड़ी संस्थान काम करता है और ज्ञानतंतुओं के माध्यम से उसी का वर्चस्व छोटे से लेकर बड़े अंगों पर छाया रहता है। मस्तिष्क के अरबों बड़े अंगों पर छाया रहता है। मस्तिष्क के अरबों पर छाया रहता है। मस्तिष्क के अरबों स्नायु कोषों में रहता है। मस्तिष्क के अरबों स्नायु कोषों में से प्रत्येक की अपनी विशेषता, अपनी दुनिया और अपनी संभावनायें हैं। वे प्रायः अपना अभ्यस्त काम निपटने भर में दक्ष होते हैं। उनकी अधिकाँश क्षमता प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती है। काम न मिलने पर हर चीज निरर्थक रहती है। इसी प्रकार इन ज्ञान तंतुओं से-स्नायु कोषों से दैनिक जीवन की आवश्यकतायें पूरा कर सकने के लिए आवश्यक थोड़ा सा काम कर लिया जाता है, तो उतना ही करने में वे दक्ष रहते हैं। यदि अवसर मिला होता, उन्हें उभारा और प्रशिक्षित किया गया होता तो वे अबकी अपेक्षा लाखों गुनी क्षमता प्रदर्शित कर सके होते। इस रहस्य को यदि जाना-समझा जा सके तो अब की अपेक्षा मनुष्य हजारों गुनी अधिक विभूतियों से भरा पूरा हो सकता है।

हमारे मस्तिष्क के भीतर जिस ऊर्जा का सत्त निर्माण होता रहता है उसका क्रियाशीलता में उपयोग होना आवश्यक है, किन्तु जब उसकी क्रियाशीलता पर अंकुश लगाकर उसे अवरुद्ध कर दिया जाता है। तो उसके परिणाम अनेकानेक मनोरोगों के रूप में सामने आते हैं। इस संदर्भ में सुविख्यात मनोवेत्ता मैस्लो का कहना है कि किसी व्यक्ति विकास को अवरुद्ध करने से उसमें न्यूरोसिस जैसे रोग विकसित होते हैं। उनके अनुसार मस्तिष्क को स्वस्थ क्रियाशीलता के लक्ष्य को प्राप्त करने की चाह होता है और जब व्यक्ति को उस योग्य और उचित कार्य करने से वंचित किया जाती है तो न केवल उसका मानसिक संतुलन बिगड़ता है, वरन् वह रोग का आकार ग्रहण कर लेता है। मस्तिष्कीय क्षमताएं कुँठित होने लगती है और वह व्यक्ति ऊब, निराशा, निष्क्रियता एवं अकर्मण्यता जैसी मनोविकृतियों की चपेट में जकड़ने लगता है। इसका विस्तार क्रमशः उसी प्रकार होता जाता है जिस प्रकार से कि एक तालाब के बंधे हुए जल पर काई का विस्तार होता है।

सुप्रसिद्ध मनोविज्ञानी एल्हुअस हक्सले ने मानव मस्तिष्क की संभावनाओं पर विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि मानवी मस्तिष्क अनेकानेक विभूतियों एवं क्षमताओं का भाण्डागार है। शरीर शास्त्री एवं चिकित्सा विज्ञानी अभी तक मात्र उनके स्नायुकोषों और ज्ञानतंतुओं का ही थोड़ा-बहुत आकलन कर भर पाये हैं, पर उन विशिष्ट क्षमताओं को नहीं खोज पाये है जो मस्तिष्क की अविज्ञात अचेतन परतों में छिपी दबी पड़ी है। उनके अनुसार मानव मस्तिष्क का एक भाग चेतन है तो दूसरा अचेतन जिसमें अतीन्द्रिय सामर्थ्य से लेकर मनुष्य के जन्म जन्मांतरों के भले-बुरे संस्कार दबे हुए रहते हैं। इस परत को सामान्यता देख नहीं जा सकता । इस परत को सामान्यता देखा नहीं जा सकता। इसी तरह उसका सर्वोच्च स्तर परम चेतन है इस परत तरह उसका सर्वोच्च स्तर परम चेतन हे जिसकी पिटारी में पराशक्तिओं का रुचिकर उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उनने बताया है कि आर्कविषप वाँटले ने पाँव वर्ष की आयु में ही परिकलन की एक असामान्य क्षमता का विकास कर लिया था। वह कठिन से कठिन गणितीय प्रश्नों को अपने को अपने मस्तिष्क में हल कर लिया करता था, किन्तु नौ वर्ष की आयु में उसमें इस क्षमता का पूर्णतः को मानसिक रूप से हल कर दिया करते थे जिनके उत्तर 36 अंकों तक हुआ वर्षों में ही खो दिया था। बेंजामिन-फ्रेंकलिन ने जब कि उसकी आयु छः वर्ष की ही थी, अपने पिता से पूछा था कि उसके जन्म का ठीक समय क्या है? उतर मिलने पर उसने मौखिक रूप से अपनी आयु की अवधि को सेकेंडों में रूपांतरित कर दिया था। इस गणना में दो लीप ईयर के हिसाब का भी ध्यान रखा गया था। इसी तरह की इतनी ही घटनायें सामने आती रहती है जिनमें पर्व जन्म की स्मृतियाँ भी सम्मिलित है।

अब प्रश्न उठता है कि एक छः वर्ष के बच्चे में इतनी क्षमता कैसे विकसित हो सकती है? इस प्रश्न के उत्तर में यही कहा जा सकता है कि वह क्षमता उसमें पूर्व से ही विद्यमान है कि वह क्षमता उसमें पूर्व से ही विद्यमान थी, जो कि हम सब में भी विद्यमान है, किन्तु हम उसका उपयोग नहीं कर सकते। यही बात हमें मानसिक चेतना के उच्चस्तरीय आयामों के अस्तित्व में होने का बोध कराती है। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे मस्तिष्क में कुछ ‘हायर सर्किट्स’ भी होते हैं। वाटले सफोर्ड, फ्रेंकलिन जैसे बच्चों का आकस्मिक रूप से इन सर्किटों से संबंध जुड़ गया था, रूप से इन सर्किटों से संबंध जुड़ गया था, किंतु जैसे-जैसे उनकी आयु बढ़ती गयी, वे जीवन की वास्तविक समस्याओं आवश्यकताओं के निकट पहुँचते गये और वह क्षमता लोप नहीं हो जाता, वरन् वह मानसिक चेतना की किन्हीं अज्ञात परतों में जा छिपती है। इस तथ्य का रहस्योद्घाटन करते हुए विश्वविख्यात, भौतिक विट् आइन्स्टीन ने कहा था कि जब वे एकाँत में शाँत चित होकर किसी विषय पर गहराई से उच्चस्तरीय गहन परतों में छिपे गूढ़तम सूत्रों की जानकारी हस्तगत हो जाती है।

भारतीय ऋषि मनीषियों ने आदिकाल से ही ऐसे उपाय-उपचार खोज लिये थे और कहा था कि योग, साधना, तप तथा एकाग्रता परक ध्यान की प्रक्रियाओं से मानव की मस्तिष्कीय क्षमताओं-मानसिक शक्तियों में असीम वृद्धि हो जाती है। इससे मस्तिष्क में लगता है जिससे मानसिक क्षमताओं का विकास स्वतः बढ़ जाता है। आज विज्ञान भी एक ऐसे कगार पर आ खड़ा हुआ है जहाँ पर मस्तिष्कीय विकास के विभिन्न पक्षों पर व्यापक शोध अद्भुत मानसिक आवश्यकता मात्र सी और विधेयात्मक दिशा देने की है।


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