उस दिन चोर अकेला रह गया था। गिरोह के अन्य साथी बिछुड़ गये। सामने से तीन संपन्न आदमी आते दिखाई पड़े अकेला चोर और तीन यात्री। घात कैसे लगे। चोर को एक तरकीब सूझी उन्हें फूट डालकर एकाकी कर दिया जाय। पूछने पर उनने आनी जाति ब्राह्मण, क्षत्रिय, और शुद्र बताई। चोर ने पहले कमजोर शूद्र को पकड़ा और कहा- “यह तो हमारे पुरोहित हैं यह हमारी बिरादरी के हैं, इनसे तो कुछ नहीं कहना। तू इतनी संपदा कहाँ से लाया? बड़ी जाति वाले की बराबरी करेगा। पहले तेरी ही मरम्मत की जायेगी।” शुद्र पिटता भी रहा और जो पास में था छिना बैठा। इसके बाद पंडित जी की बारी आई, कहा- “पंडित की भिक्षा पर निर्वाह करना चाहिए। इतनी दौलत जमा करना अधर्म है।” सो उसने पंडित जी की धुनाई की और जो कुछ उनके पास था, छीन लिया। तीसरा नंबर ठाकुर का था। उनसे कहा-”अभी तो आपका पैसा ले लेते हैं। पीछे आप हमारे गिरोह में शामिल हो जाता। जो लिया है उससे अनेक गुना कुछ ही दिन में दिला देंगे।” ठाकुर ने दुर्गति कराने से पहले ही जो कुछ था, सो चोर को सौंप दिया। फूट डालकर एक चोर ने तीन राहगीरों को लूटने में सफलता प्राप्त कर ली। इसका मूल कारण था-जाति भेद संबंधी मूढ़ मान्यता। हमारे राष्ट्र के पतन-पराभव का मूल कारण यही कट्टरता रही हैं। मुगल आक्रांताओं एवं फिरंगियों को इसी आधार पर इस शस्य-श्यामला धरती पर मध्यकाल में अपना अधिकार जमाने में सफलता मिली।