परोक्ष की रहस्यमय गुत्थियाँ

March 1994

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सामान्य दशा में काया की सत्ता जितनी असमर्थ और अशक्त दिखाई पड़ती है, वस्तुतः उतनी है नहीं। सिर पर भारी बोझ लदे रहने पर जिस प्रकार मनुष्य की हलचल सीमाबद्ध और कमजोर हो जाती है वैसी ही बात इस शरीर के साथ भी है। कल्मष इस शरीर के साथ भी है। कल्मष का वजन हटते ही वह संपूर्ण रूप से सक्रिय हो उठती है और ऐसे-ऐसे कौशल कर दिखाती है, जिन्हें अचंभा कहा जा सके। विस्मय तो तब होता है जब भार की सामान्य स्थिति में भी कई बार उसकी सूक्ष्म सत्त इतना आश्चर्यजनक कार्य कर दिखाती हैं कि उसे देख कर बार-बार यही सोचना पड़ता है कि अपरिष्कृत स्थिति में जो इतनी अद्भुत हो सकती है परिष्कृत अवस्था में वह कितनी असाधारण होगी, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। घटना “राँक” नामक एक ब्रिटिश जहाज की है। लिवरपूल से चल कर ठीक पश्चिम की ओर स्थित नोवा स्कोटिया की ओर वर अटलांटिक महासागर में बढ़ा चला जा रहा था। यात्रा में कई सप्ताह बीत गये। एक दिन जहाज के एक कर्मचारी राबर्ट ब्रूस ने कप्तान के केंबिन में एक अजनबी को देखा, वह श्यामपट्ट पर कुछ लिख रही था। एक निताँत अपरिचित को जहाज में देख कर ब्रूस चौक पड़ा। उसने इस बात की सूचना कप्तान को दी। कैपटन को ब्रूस की बातो पर विश्वास नहीं हुआ, किंतु फिर भी वस्तुस्थिति जानने वह चल पड़ा। अपने केबिन में पहुँचा तो उसकी नजर ब्लैक बोर्ड पर जा टिकी, उस पर सुस्पष्ट शब्दों में लिखा था-”उत्तर -पश्चिम की ओर बढ़े”। वहाँ कोई नहीं था, किंतु श्यामपट्ट पर लिखे निर्देश से उसे इतना आभास तो मिल गया कि सहकर्मी जो कुछ कह रहा है, वह सत्य है। कमरे के अंदर निश्चित ही कोई न कोई आया है। वह कौन हो सकता हे और फिर अचानक कहाँ गायब हो गया? उसकी समझ में कुछ न आया। फिर भी मन को आश्वत करने के लिए उसने सहयोगियों से पूछ-ताछ की। हर किसी ने इस बात से स्पष्ट इनकार किया कि उसने कप्तान के कमरे में प्रवेश किया था। उतने पर भी अधिकारी को संतोष न हुआ। उसने सभी को हैण्डराइटिंग की जाँच की, पर किसी की राइटिंग श्यामपट्ट के अक्षरों से न मिली। जहाज लिखे निर्देश के अनुसार उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़ने लगा। काफी दूर चलने के उपराँत कर्मचारियों ने देखा कि सामने बर्फ में एक अन्य जहाज फँसा पड़ा है। सभी यात्रियों को उससे बाहर निकाला गया। वे जग दूसरे जहाज पर सवार हो रहे थे, तो अकस्मात् एक व्यक्ति पर ब्रूस की आंखों स्थिर हो गई। ध्यान से देखा, तो वह आश्चर्यचकित रह गया। यह वही व्यक्ति थ, जो कप्तान के कक्ष में उक्त निर्देश लिखता दिखाई पड़ा था । अधिकारी को जब इस बात का पता चला, तो उसने उस व्यक्ति से वही वाक्य लिखने को कहा, जो जो उसके कमरे के ब्लैकबोर्ड पर लिखा हुआ था। बिलकुल वही हैडराइटिंग थी, किंतु इस विचित्र घटना के बारे में वह कुछ भी बता पाने में असमर्थ था। दुर्भाग्यग्रस्त जहाज के कप्तान ने इतना अवश्य बताया कि लगभग उसी समय जब दूसरे जहाज में इसकी अनुकृति देखी गई, तब वह सो रही था। उठने पर पूर्ण विश्वास के साथ यह कहता पाया गया कि सभी सुरक्षित बच जायेंगे। उक्त वृत्ताँत का उल्लेख राबर्ट डेल ओवेन ने अपनी पुस्तक “फुटफाँल्स आँन दि बाउण्ड्री ऑफ अनाफदर वर्ल्ड “ में विस्तारपूर्वक किया है। ऐसी ही एक अन्य घटना की चर्चा हैरोल्ड ओवेन ने अपनी रचना “जर्नी फ्राम आब्सक्यूरिटी” में की है। बात उन दिनों की है, जब प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त हुए कुछ ही दिन बीते थे। तब हैरोल्ड ओवेन “एच एम एस आस्ट्रिया” नामक पोत पर एक अफसर थे। पोर उस समय अबुल की खाड़ी पर लंगर डाले खड़ा था। युद्ध की समाप्ति की खुशी में जहाज के कप्तान ने एक भेज का आयोजन किया और उसमें सभी अफसरों को निमंत्रित किया। लेकिन ओवेन प्रसन्न नहीं लग रहे थे। उन्हें एक विचित्र प्रकार का अवसाद घेरे हुए था। न जाने क्यों उनके मस्तिष्क में बार-बार एक ही विचार आ रहा कि क्या उनका भाई इस लड़ाई में जीवित बच सका है? जन्दी ही पोत ने कैमरुन के लिए प्रस्थान कर दिया। वहाँ जाकर ओवेन बीमार पड़ गये। इसी अवस्था में उन्हें एक विलक्षण अनुभूति हुई। जिसका उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि एक दिन चिट्ठी लिखने के विचार से वे अपने कक्ष में गये। दरवाजे के पर्दे को हटाकर ज्यों की उनने केबिन में कदम रखा, वे चौक पड़े। सामने की कुर्सी पर उनका भाई विल्फ्रैड बैठा दिखाई पड़ा। उसे देखते ही एक विचित्र सिहरन समस्त शरीर में दौड़ गई। हाथ पैर पस्त से हो गये। उनने धीरे से पूछा कि वह किस प्रकार यहाँ आ गया? विल्फ्रैड ने इसका जवान तो नहीं दिया, पर उसकी भंगिमा से यह स्पष्ट प्रकट हो रहा था कि वह चाह कर भी कोई चेष्टा नहीं कर पर रहा था और जड़वत् बना हुआ था। प्रश्न का उत्तर मात्र एक बेजान मुसकान से दिया। अल्फ्रेड को वहाँ पाकर ओवेन को प्रसन्नता भी ही रही थी और अचंभा भी। उत्सुकतावश ओवेन ने एक बार पुनः प्रश्न दुहराया किंतु इस बार भी वह हँसी हँस दी। ओवेन लिखते हैं कि उन्हें अपने भाई से असीम प्यार था अतः उसकी उपस्थिति उस समय सुखद प्रतीत हो रही थी उन्होंने आगे फिर इस बात को जाने का प्रयास नहीं किया कि वह किस प्रकार केबिन में आ पहुंचा कुल मिलाकर उस क्षण उसे पाकर वे संतुष्ट थे। उस समय अटलगेड अपनी सैनिक पोशाक में था। यह देखकर ओवेन सोचने लगे कि इस शालीन और सुरुचिपूर्ण कक्ष में यह ड्रेस कितनी अवांछनीय प्रतीत हो रही हैं इसी के साथ उनकी आंखें कुछ पल की लिए कक्ष की सज्जा पर जा टिकी। दृष्टि जब वापस मुड़ी, तो कुर्सी खाली थी। वहां अल्फ्रेड नहीं था इसके साथ ही ओवेन को ऐसा महसूस हुआ, जैसे उनके हाथ-पाँव अनायास ही सामान्य स्थिति में आ गये हों और यह भी आभास मिला, मानो कोई अपूरणीय क्षति हुई हो। वे अत्यधिक थकान अनुभव करने-लगे और सुस्ताने के लिए लेट गये। गहरी नींद के उपराँत जब लगे, तो उनका मन पूरी तरह आश्वस्त हो चुका था कि अल्फ्रेड अब इस दुनिया में नहीं रहा। कुछ दिन पश्चात् सैनिक हैडक्वार्टर की ओर से इस आशय की सूचना मिल गई। इस घटनाओं से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि स्थूल शरीर की सुषुप्ति की शिथति या इसके विनष्ट होने पर भी मनुष्य की सूक्ष्म यथावत बनी रहती है और इस सूक्ष्म शरीर से वह चाहे जहाँ आ-जा सकती और चाहे कभी भी किसी को भी कोई सूचना, मार्गदर्शन या सहायता दे सकती है। सर्वसामान्य में यह शरीर अत्यंत निम्न स्थिति में उपेक्षणीय पड़ा रहता है अतः कोई समर्थ सहायता कर पाना तो दूर अपना आभास तक भी वह नहीं दे पाता। मरणोपराँत ही उसकी थोड़ी बहुत झलक झाँकी कौतुक-कौतूहल के रूप में देखने को मिलती है अन्यथा वह बिलकुल ही अंजान, असमर्थ जैसी दशा में पड़ा-पड़ा सड़ता रहता है। जब हाड़-माँस के शरीर को सशक्तता के लिए पौष्टिक भोजन और नियमित व्यायाम अनिवार्य है तो फिर सूक्ष्म स्तर के शरीरों के लिए यह शर्तें क्यों भूला दी जानी चाहिए? निश्चय हो उनकी सामर्थ्य का परिचर हम तभी पा सकते हैं जब उन्हें बलवान बनाने वाले आध्यात्मिक आहार-उपचार को व्यवस्था की जा सके। आत्मिकी तंत्र में इसकी पूरी-पूरी व्यवस्था हैं आध्यात्मिक जीवन के अंतर्गत जब इन्हें परिपुष्ट करते हुए जगाया और उभारा जाता है तो वे स्वामिभक्त सेवक की भूमिका निबाहते देखे जाते हैं। तिब्बती भाषा में छाया पुरुष जो सूक्ष्म शरीरधारी होते हैं, तुल्य कहलाते हैं दक्ष योगी अपना ही अथवा किसी जन्य व्यक्ति का तुल्या प्रयास पूर्वक तैयार कर उससे तरह तरह के काम लिया करते हैं कई बार यह तुल्या इतना सामर्थ्यवान होता है कि वह अपनी ही जैसी संतति पैदा करने लगता है प्रथम पीढ़ी की यह संति “याँग-तुल” कहलाती है। यह भी यदि सशक्त हुई, तो इससे पुनः दूसरी पीढ़ी का आविर्भाव होता है यह तुल्या “नाइंग-तुल” कहलाता है। इस प्रकार समर्थ तुल्या लंबी वेशावली के निर्माण में अनेक बार सफल होता देखा जाता है। तुल्या वंशज भी अपने मूल आदि तुल्या की तरह क्षमतावान् होते हैं और अनेक अद्भुत कार्य करते देखे जाते हैं लामाओ के अनुसार यह छाया जैसी अनुकृतियाँ मनुष्यों को भी विनिर्मित को जा सकती है और पशुओं की भी। दोनों समान रूप से शक्तिशाली होती है। कई बार तो एक-एक तिब्बती योगी मनुष्य पशु सहित दशाधिक तुल्पाओ का निर्माण कर लेते हैं और उनसे विभिन्न प्रकार के महत्वपूर्ण काम करा लेते हैं, ऐसा गुह्यविदों का मत है। ऐसे ही एक प्रसंग का वर्णन सुप्रसिद्ध फ्रांसीसी पर्यटक एवं मूर्द्धन्य तंत्रविद्-एलेक्जेण्ड्रा डेविड नील ने अपने ग्रंथ”मैजिक एण्ड मिस्ट्री इन तिब्बत” में किया हैं वे लिखती है कि तिब्बत के 14 वर्षीय प्रवास काल में यद्यपि उनने इस प्रकार की कई छाया कृतियों को कई अवसरों पर इधर-उधर तैरते देखा था, किंतु न जाने क्यों उन्हें इन पर सहज में विश्वास न हो सका था अतः एलेक्जेण्ड्रा ने स्वयं इस साधना को संपन्न करके इसकी सच्चाई को जानने का निश्चय किया। इस निर्मित जिस व्यक्ति का उनने चयन किया, वह एक सीधा-सादा ठिगने कद का संन्यासी था। कई महीनों तक एकाँत साधना करने के पश्चात् वह उस व्यक्ति का तुल्या बनाने में सफल हो गई। कई महीने बाद फ्रांसीसी महिला ने तिब्बत के दूसरे भागो को देखने का कार्यक्रम बनाया और अपने नौकर के साथ एक दिन चल पड़ी। उन्हें यह देख कर घोर आश्चर्य हुआ कि उनका तुल्या भी यात्रा में साथ-साथ चल रहा है। वे लिखती है कि यद्यपि यह संरचना पूर्णरूप से दृश्य सूक्ष्माकृति थी किंतु यदा कदा उसके स्पर्श की स्पष्ट प्रतीति भी होती थी। एलेक्जेण्ड्रा ने इससे कई आवश्यक पर असंभव जैसे लगने वाले कार्य लिए, ऐसा वे लिखती है अंततः फ्राँस लौटने से पूर्व उतने इसे विगलित कर दिया। यह सूक्ष्म की शक्ति है। सूक्ष्म में स्थूल से महान सामर्थ्य होती हैं प्रयासपूर्वक हाड़ माँस की देह से गुँथी हुई सूक्ष्म सत्ता को पृथक किया जा सके तो दृश्य कलेवर से अनेक गुने चमत्कारी कार्य स्वल्प समय में इनके अदृश्य शरीरों द्वारा लिये जा सकते हैं, पर इसके लिए शोधन प्रक्रिया से गुजरना आवश्यक है। कषाय-कल्मषों से लदा शरीर वैसा कुछ भर कर पाने में असमर्थ होता है, जैसी कि इसकी वास्तविक क्षमता और योग्यता बतायी गई है। यह भार उठते ही उसकी विशिष्टताएँ स्वयमेव प्रतिभासित होने लगती है। विभिन्न अवयवों का जैसे जैसे शोधन परिमार्जन होता चलता है, वैसे ही वैसे उनमें दिव्य सूक्ष्म तत्वों का विस्तार भी बढ़ता जाता है और इसी के साथ सूक्ष्म शरीर को विशेषताएँ भी शनैःशनैः अप्रकट से प्रकट होने लगती है। शरीर मन की शुद्धि क्रिया जब संपूर्ण हो जाती हे तो सूक्ष्म काया की दिव्यता अपनी पूर्ण प्रखरता के साथ दृष्टिगोचर होने लगती है और उन उन विभूतियों से व्यक्ति को संपन्न कर देती हे जिन्हें प्रायः महापुरुषों से जुड़ा हुआ माना ताजा है। इसी को सिद्धियों का जागरण कहा गया है जो हर किसी के लिए संभव है।


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