औरों के हित जो जीता है!

March 1994

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बुधवार की यह सुबह अहमदाबाद के लिए अब तक की सबसे मनहूस सुबह में थी। निजामुल मुल्क के चाचा हामिद खाँ ने भारी फौज के साथ पूरे नगर को घेर लिया। अहमदाबाद के शासक, हामिद खाँ की विशाल सेना से डर कर किले में जा छुपे। हामिद खाँ और उसके सिपाहियों ने जब नगर में प्रवेश किया तो उनका स्वागत गली सड़कों के सन्नाटे ने किया।

कोई डेढ़ प्रहर दिन चढ़ा होगा जब खाने-पीने आदि ने निवृत्त हो यह विशाल वाहिनी अहमदाबाद पर उमड़ आयी। थोड़ी देर पहले इस नगर से रात का अंधकार छटा था। थोड़ी देर बाद ही इसे दूसरे अंधकार ने घेर लिया। यह अंधकार था घोड़ों के खुरों से उड़ी धूल के बादलों का।

प्रतिपक्षी सेना को नदारद पा हामिद खाँ और उसके सैनिक नदारद पा हामिद खाँ और उसके सैनिक खुले हाथ कत्लेआम और लूट-पाट में लग गए। हजारों सिपाही विभिन्न टुकड़ियों में बँट,नगर के विभिन्न इलाकों में फैल गए। भाले की नोकों में नारियों और शिशुओं के शरीर उछाले जाने लगे। तलवारों की तेज धारें नागरिकों को गाजर-मूली की तरह काटने लगीं। इन चीख पुकारों के करुण स्वर के बीच बिना किसी दर्द और सहानुभूति के नगर निवासियों के कच्चे-पक्के निवासों को आग के हवाले करना प्रारंभ कर दिया।

शत्रु का अत्याचार प्रतिक्षण बढ़ रहा था। यह देखकर अहमदाबाद के अग्रगण्य पुरुष इकट्ठे हुए और यह विचार करने लगे कि नगर को इस समय एक धनी व्यापारी आगे आए। उनका नाम नगर सेठ खुशहाल चन्द्र था। उस सामूहिक हत्याकाण्ड के समय वह अपने प्राणों की चिंता न करके सेनापति हामिद खाँ के पास पहुँचे और विनम्र वाणी में कहा-”यह अराजकता रोककर नगर में व्यवस्था स्थापित कीजिए।”

हामिद खाँ ने रोषपूर्ण नेत्रों से नगर सेठ की ओर देखा। सिर पर अहमदाबादी जरी की पगड़ी, कानों में स्वर्ण कुण्डल और मुख पर सौम्य भाव। वह आरक नेत्रों से कई क्षण तक उन्हें देखता रहा। फिर बोला-”मैं धन चाहता हूँ। उसके बिना यह हत्याकाण्ड बन्द नहीं होगा।”

नगर सेठ का हृदय द्रवित हो उठा। करुण स्वर में उन्होंने कहा “कितना धन चाहते हो? मैं दूँगा। दो। व्यर्थ ही निर्दोष नागरिकों की हत्या और संपत्ति का यह महानाश मैं नहीं देख सकता। “हामिद खाँ बोला-”जितना माँगूँगा उतना धन दोगे?” आप सेना को लूटमार करने से रोकिये । मैं अभी लौट कर आता हूँ।”

हामिद खाँ ने एक बार नगर सेठ की ओर देखा। नगर सेठ जानते थे कि सारा धन मुझे ही देना होगा। लेकिन इस समय अपनी संपत्ति बचाने का विचार उन्हें छू भी नहीं गया था। इसलिए उनके मुख पर दृढ़ता थी। इस दृढ़ता ने अत्याचारी के हृदय को छुआ। उसने तुरन्त रणभेरी बजाने की आज्ञा दी। लूटमार करने वाली सेना अपने अपने शिविरों की ओर लौट पड़ी। जनता ने राहत की साँस ली।

थोड़ी ही देर बाद दिखाई दिया कि चार बैलों के सुन्दर रथ पर स्वर्ण मुद्राओं से भरी असंख्य थैलियां लिये हुए नगर सेठ हामिद खाँ की ओर जा रहे हैं। दूसरे ही क्षण सेनापति के सामने मुहरों का ढेर देखकर सेनापति की आंखें चमक उठीं। मुक्त कण्ठ से उसने कहा-”नगर सेठ, तुम्हारा, नगर अब सुरक्षित है। “नगर सुरक्षित था, मगर नगर सेठ अपना सब कुछ लूटा बैठे थे। पीढ़ी दर पीढ़ी उनके पूर्वजों ने जो धन इकट्ठा किया था, वह अब विदेशियों के हाथ पहुँच चुका था।

नगर सेठ के सामने प्रश्न था-अब व्यापार कैसे चलेगा? कल बाजार में हुण्डिया कैसे चलेगा? कल बाजार में हुण्डियाँ कैसे सरकेगी? लेकिन उनके मुख पर चिंता की एक की एक भी रेखा दिखाई नहीं देती थी । वहाँ एक अनिवर्चनीय आनन्द की आभा थी। धन गया तो क्या हुआ, शहर तो बच गया। जनता की रक्षा तो हो गई। नगर सेठ वापस लौटे। दूसरे ही क्षण चारों ओर यह खबर फैल गई कि अपना सर्वस्य लुटाकर नगर सेठ खुशहाल चन्द्र ने हमें और हमारे शहर को बचाया है। जो काम सेना नहीं कर सकती थी, वही काम अकेले एक नगर सेठ ने किया है। बस, नगर के सभी प्रमुख व्यापारी इकट्ठे हुए और उन्होंने सर्व संपत्ति से यह निर्णय हुए और उन्होंने सर्व संपत्ति से यह निर्णय किया कि अहमदाबाद की मण्डी में जितना भी माल काँटे पर तोला जाय, उसका चार आना प्रतिशत सेठ जी को मिले।

आज भी नगर सेठ की स्मृति में भारत सरकार की ओर से प्रतिवर्ष उनके वंशजों को कुछ रकम बराबर दी जा रही है। प्रदत्त धनराशि बहुत नगण्य है। पर इसके साथ जो नगर सेठ खुशहाल चन्द्र के साहस और उदारता की कहानी जुड़ी हुई है, उसका मूल्य असीम है। आज हमारे देश में भी एक नहीं अनेक करोड़पति, अरबपति मौजूद हैं। पर राष्ट्र और विश्व के कल्याण की किसे परवाह है? सभी अपने-अपने भोग विलास में लिप्त हैं। यदि यह धन कल्याणकारी योजनाओं में लग सका होगा तो देश का नक्शा ही और होता।


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