वातावरण हमें स्वयं ही बनाना होगा

March 1994

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जन्मतः मनुष्य कोरे कागज की तरह होता है संपर्क में आने वाले वातावरण द्वारा उसका स्वभाव या रुझान गढ़ा जाता है। प्रचंड गर्मी के दिनों में पानी के स्त्रोत सुख जाते हैं और घास पात के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं पर वर्षा आने पर वह बात नहीं रहती। देखते-देखते ठंडक का माहौल बन जाता है और सर्वत्र जल भरा दीखता है। जमीन पर हरी मखमल का फर्श बिछ जाता है। यह परस्पर विरोधी चमत्कार वातावरण के परिवर्तन से ही बन पढ़ते हैं। ऋतुएँ अपने प्रभाव से हर किसी को अपने-अपने ढंग से प्रभावित करती है। युद्ध उपद्रव आतंक से प्रत्यक्ष प्रभावित भले ही सीमित लोग ही होते हों पर उनके कारण भयभीत अस्त−व्यस्त अधिकांश लोगों का मानस बनता है। वसंत ऋतु हर किसी को उल्लास और सौंदर्य को अनुभूति कराती है। पर्व त्यौहारों और हर्षोत्सवों के दिनों में सर्व साधारण का मन हुलसने लगता है। समुचित सुसंस्कृत वातावरण में साधारण जनों को भी सभ्यता का स्वरूप जानने और उस ढाँचे में ढलने का अनायास ही सुयोग मिलता है। इसके विपरीत दुष्ट, दुर्जनों, अनाचारी व्यभिचारी, दुर्व्यसनी, लोगों के बीच रहते हुए अच्छे भले भी उसी प्रवाह में बहने लगते हैं। व्यक्तिगत प्रयास और साहस का मूल्य समझते हुए भी देखने में यही आता है कि वातावरण का प्रभाव दबाव भी कम सशक्त नहीं है। वह भी बहुत कुछ कर गुजरने में समर्थ होता है। जर्मनी में नाजीवाद रूस में साम्यवाद जनता की निजी उपलब्धि नहीं थी। वहाँ लोक मानस को शासन तंत्र ने अपने अनुरूप ढालने में सफलता पाई थी। सतयुग भी सीमित संख्या वाले ऋषि मनीषियों की ही अनुभूति मात्र था। समाज सुधारकों और राष्ट्र निर्माताओं ने योजना बुद्ध रूप से सुसंगठित प्रयास किये है और जन समुदाय को अपनी अनुयायी आदर्श अपनाने के लिए भी बनाया है। ऐसे लोगों में गाँधी, बुऋ ईसा, आदि मनस्वी लोग निर्माताओं का उदाहरण सर्व साधारण के सामने आंखों के सामने तैरता रहता है। आत का अनौचित्य भरा चिंतन स्वभाव एवं क्रियाकलाप उन लोगों की देन है जिनने लोकमानस को प्रभावित करने को शक्ति को उभारा ओर अपने मन चाहे प्रयत्नों से लोक प्रचलन को अनुपयुक्त मार्ग पर धकेला। इसमें साहित्यकारों, अभिनेताओं, प्रचारकों, नेताओं का विशेष रूप से उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। टेलीविजन शिक्षित- अशिक्षित सभी को अपने प्रभाव से प्रभावित करते हैं। शासन या समाज द्वारा जिन लोगों का जिन कृत्यों का समर्थ किया जाता है प्रोत्साहन मिलता है उसी प्रकार का लाभ प्राप्त करने के लिए असंख्यों का मन मचलता है समारोहों जुलूस प्रदर्शनों के माध्यम से उत्पन्न किये जाने वाला वातावरण भी उन लोगों तक को अपने प्रवाह में घसीट ले जाता है जिनका प्रत्यक्षतः इससे कुछ लेना देना नहीं है। वातावरण के प्रभाव से बच निकलना या उससे विपरीत दिशा में स्वतंत्र चिंतन के आधार पर चल सकता किन्हीं बिरलों के लिए ही संभव होता है। व्यक्ति निर्माण से लेकर समाज निर्माण तक के लिए देश को ऊँचा उठाने एवं आगे बढ़ाने के लिए जहाँ व्यक्तिगत जीवन को आदर्शवादिता के सहारे प्रखर प्रतिभावान् बनाने की आवश्यकता है। वही यह भी उचित है कि ऐसा वातावरण बनाने का प्रयत्न किया जाय जिसमें शालीनता को पनपने का अवसर मिल सके। जिसमें जल विरोध के कारण अवाँछनीयताओं को बेमौत मरना पड़े। जितना आवश्यक अपना उज्ज्वल उदाहरण प्रस्तुत करना है, अनौचित्य भर वातावरण को उलटने ओर शालीनता का पक्षधर माहौल बनाने के लिए सुविस्तृत क्षेत्र में सुनियोजित ढंग से व्यापक प्रयास किये जायेँ। व्यक्तिगत सेवा सहायता भी सामयिक आवश्यकताओं के अनुरूप सराहनीय हो सकती है। पीड़ितों पिछड़ों के लिए, अपंगों-असमर्थों के लिए उनकी आवश्यक सहायता उदारचेताओं द्वारा जुटाई ही जाती चाहिए। वह सहृदयता का, उदारता का परिपोषण करने के लिए आवश्यक भी है। उदारचेता इन अभिव्यक्तियों को दुर्भाग्यग्रस्त लोगों के कष्ट व व्यथाओं को निष्ठुर मन से देखते रहना, सेवा सहायता के लिए हाथ न बँटाना आत्मधिक्कार और लोक अपयश का कारण बनता है। इस संदर्भ में सभी को आवश्यक ध्यान रखना चाहिए। इतने पर भी यह नहीं समझ लिया जाना चाहिए कि दरिद्रों की आर्थिक सहायता या पीड़ितों की प्रत्यक्ष सेवा करने मात्र से ही कर्तव्य की इति श्री हो जाती है। सार्वजनीन हित कामना और अभ्युदय की योजना बनाते समय यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि निकृष्टता भरा मानस और आचरण ही समस्त विपत्तियों का व आज के आस्था संकट का प्रधान कारण है, अवांछनीयताओं के दलदल से मानवी सत्ता को उबारने के लिए असाधारण स्तर का ऐसा प्रबल प्रयास किया जाय जो प्रचलन को ही उलट सके। उलटे को उलट कर सीधा कर सके

। मनुष्य सीखने वाला प्राणी ही। परिस्थितियों के अनुरूप वह बुराइयों को अपनाने के लिए भी चल पड़ता है। और यदि प्रेरक वातावरण के साथ रहने का सुयोग जुट सके तो वह कुछ से कुछ भी बन सकता है। पारस छूकर लोहा बनने की उपमा इसी संदर्भ में दी जाती है। संसार के महामानव के ने अंतः प्रेरणा के अतिरिक्त प्रेरणाप्रद संपर्क सान्निध्य से ही बहुत कुछ पाया था। बुद्ध, गांधी, शंकराचार्य, विवेकानंद जैसे प्रखर व्यक्तित्वों ने ऐसा वातावरण विनिर्मित किया था, जिसके चुम्बकत्व वाले दबाव से खिंच कर असंख्य छोटे बड़े उनके बताये मार्ग पर चल पड़ने के लिए कटिबद्ध हुए। जब युद्धोन्माद उत्पन्न करके धन जन का विशाल समुच्चय उस ज्वाला में होमा जा सकता है तो कोई कारण नहीं कि प्रेरणाप्रद वातावरण बनाकर असंख्य जन समुदाय को उत्कृष्ट आदर्शवादिता अपनाने के लिए प्रोत्साहित न किया जा सके। प्राचीन काल में मनीषाएँ, प्रतिभाएँ इस प्रयोजन को व्यक्तिगत रूप से मिलजुल कर पूरा कर लिया करती थी। पर आज तो परिस्थितियाँ ही दूसरी है। इसमें समर्थ प्रवाह तंत्र ही अभीष्ट वातावरण बनाने में समर्थ हो सकता है। उदाहरण के लिए ईसाई धर्म और साम्यवाद के दूत गति से अग्रगामी होने के प्रत्यक्ष प्रमाण सामने प्रस्तुत है। इन दोनों ने आंधी तूफान की तरह बढ़कर जन समुदाय के सामान्य मस्तिष्कों को अपने ढाँचे में ढाल लेने की अप्रत्याशित सफलता पाई है। प्राचीन काल के अनेकानेक धर्म सम्प्रदाय, दर्शन और संगठन ऐसे ही सामूहिक प्रयासों की प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न हुए और क्रमशः चक्र वृद्धि रीति नीति अपना कर आगे बढ़ते चले गये । इन दिनों भी यह यथार्थता यथा-स्थान अवस्थित है। समाचार पत्र, साहित्य, सिनेमा, टी0वी0 जैसे कुछेक समर्थ तत्रो ने सामान्य जन मानस को अपने ढाँचे में ढाल लेने में असाधारण सफलताएँ पाई है। तानाशाही राजतंत्र भी इसी अस्त्र के सहारे इच्छा या अनिच्छा को अपने आदेशों का परिपालन करने के लिए बाधित करते रहे है। तथ्य बताते हैं कि जाम भूमिका किसी समय में अवतारों, देवदूतों, विशिष्ट प्रतिभाओं, द्वारा संपन्न की जाती रही है, आज उनका अभाव होने पर भी समर्थ प्रचार एवं प्रभाव तंत्र के सहारे बहुत कुछ संपन्न किया जा सकता है। समय को देखते हुए यही अनुरूप भी लगता है। मनीषियों को इन सामयिक आवश्यकताओं पर पूरी गंभीरता पूर्वक विचार करना और प्रचार तंत्र का सदुपयोग करने का एक सशक्त ढाँचा खड़ा करने में जुट जाना चाहिए। अपने समाज में इन दिनों अनेकों अवाँछनीयताएँ अनैतिकताएँ, मूढ़मान्यताएं अंध परंपराएँ, कुरीतियाँ प्रचलित है। बाल विवाह, खर्चीले विवाह कन्या विक्रय, वर विक्रय, मृतक भोज भिक्षा व्यवसाय, फैशन अपव्यय, जातिगत ऊँच-नीच पर्दा प्रथा आदि कुप्रचलनों की परिणतियों ने दूरगामी दुष्परिणाम उत्पन्न करने वाली समस्याओं के बवंडर खड़े किये हुए है। आलस्य और प्रमाद के कारण मनुष्य की आधी उत्पादक शक्ति नष्ट हो रही है। शिक्षितों की बेरोजगारी का एक बड़ा कारण यह है कि कुर्सी मेज पर बैठकर काम करना उन्हें श्रम की तुलना में श्रेयस्कर लगता है भाग्यवाद भूत−पलीत, ग्रह−नक्षत्र, शुन, मुहूर्त, टोना-टोटका, जादू, चमत्कार जैसी अनेकानेक भ्राँतियों ने समझदारों की नासमझी के रूप में अपने समाज में गहरी जड़े जमा रखी है। पुराने लोग स्वर्ग मुक्ति, सिद्धि, देवदर्शन, आदि के फेर में पड़े रहते हैं। नई पीढ़ी के लोग वासना, तृष्णा और अहंता के लिए समूची तत्परता नियोजित किये रहते हैं। आत्मशोधन का पुण्य और लोकमंगल का परमार्थ रास नहीं आता। संक्षेप में यही है समाजगत मान्यताओं और प्रचलनों का सर्वविदित स्वरूप है। दूर-देर तक फैली विष-वृक्ष की इन्हीं जड़ों में लंबे समय तक कुठाराघात करने की आवश्यकता है। साथ ही नंदनवन जैसे चंदन वन जैसे सत्प्रवृत्तियों के अभिनव उद्यानों का आरोपण अभिवर्धन भी उतना ही आवश्यक है। इसके लिए प्राणवान प्रतिभाओं के उच्चस्तरीय प्रयासों, संगठनों को योजनाबद्ध रूप से हाथ में लेकर समुद्र पर सेतु बाँधने का प्रयास अभीष्ट है। इमारतों को गिराने में थोड़े से प्रयत्नों से ही काम चल जाता है, पर यदि उन्हें विनिर्मित करना हो तो अत्यधिक साधनों की, कुशल श्रमिकों और इंजीनियरों की जरूरत पड़ती है जिन्हें भी सदाशयता, सृजन, संवर्धन अभीष्ट है, उन्हें मिलजुल कर ऐसे प्रयास करने होंगे, जो वातावरण के उलटे प्रवाह को उलट कर सतयुगी निर्माण को संभव बना सके। यही विचार क्रांति अभियान का लक्ष्य है।


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