संकल्प सिद्धि हेतु एक विज्ञान सम्मत प्रक्रिया

March 1994

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मंत्र-जप को व्रत संकल्प को प्रबल - प्रखर बनाने का एक सशक्त माध्यम माना गया है । अतः भौतिक जीवन में उस की आवश्यकता महसूस की जाती हैं यों तो जपयोग कहने का तात्पर्य सामान्यतया अध्यात्म साधना और ईश्वर-उपासना से लिया जाता है, पर जानने योग्य तथ्य यह है कि अध्यात्म क्षेत्र में जितनी इसकी महत्ता उपयोगिता है उससे कोई कम भौतिक क्षेत्र में नहीं है। भौतिक जीवन की समृद्ध बनाने में भी इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है, कारण कि किसी व्यक्ति की सफलता-विफलता का मुख्य हेतु अस्थिर और अव्यवस्थित चित वृत्तियाँ होती है। जो इन्हें संयमित कर लेता अथवा शुभ अशुभ भाव संकल्पों के आधार पर अच्छों को सुरक्षित रख बुरी को निकाल बाहर करता है जीवन में वही सफल ही पाता है। सामान्य जीवन में उपयोग यही कार्य संपन्न करता है। वह अनावश्यक संकल्पों को शमित और शुभ संकल्पों को पोषण देकर सुदृढ़ बनाता और अंततः उसकी सिद्धि में सहयोग करता है। वस्तुतः मानवी चित भाव संकल्पों का विशाल भण्डागार है। उसमें अनेकानेक प्रकार के शुभ - अशुभ संकल्प भरे पड़े होते हैं, पर अधिकांश लोगों में इसकी स्थिति अव्यवस्थित स्टोर रूम जैसी होती है। वे जिन संकल्पों को पोषण देकर उगाना - बढ़ाना चाहते हैं प्रायः वे अधिक समय टिक नहीं पाते और जिन्हें बार-बार हटाने मिटाने की कोशिश करते हैं, विस्थापन बने रहते हैं। इसी प्रकार जो बाते स्मृति में लगातार बनी रहती आवश्यक होती है, वह विस्मृत हो जाती है। और अनावश्यक अनुपयोगी बाते बरबस याद आती रहती है। ऐसे किसी एक संकल्प पर अपने चित को स्थिर नहीं रख पाते। प्रयास तो करते हे पर अगले ही पल मन में कई अन्य विचार उमड़ने - घुमड़ने लगते हैं जिससे आरंभिक संकल्प मौन हो जाता है एवं क्षुद्र लौकिक विचार प्रमुख बन जाते हैं ऐसे अस्थिर चित्त को एकाग्र करने का एक कारगर उपाय जप है। इसके माध्यम से अंतः के समस्त संकल्प-विकल्पों को निकाल बाहर कर मन को एक निश्चित वृत्ति में लगाकर उसे उस उद्दंड भूत की तरह साधा जा सकता है जो काम नहीं मिलने पर साधने वाले को ही मार डालने की बात करता है। कुछ लोगों का विश्वास है कि एक अन्य उपाय द्वारा भी मन को सुसंस्कृत बनाया जा सकता है उनका कहना है कि यदि अंतस् की वृत्तियों पर कड़ी नजर रखकर सूक्ष्म दृष्टि से उसके शुभाशुभ का निर्धारण कर लिया जाय तो इतने भर से चित व्यवस्थित हो जायगा किंतु इस विचार में कोई प्राण नजर नहीं आता । इससे इतना तो संभव हो सकता है कि भली बुरी वृत्तियों की जानकारी मिल जाय, पर इससे अस्तव्यस्तता समाप्त हो जायगी-ऐसा नहीं कहा जा सकता। शास्त्रों में नाम-स्मरण को अमोघ उपचार सुझाया गया है। आप्त वचनों के अनुसार इसमें इतनी विलक्षण शक्ति है कि वह चित को सदा निर्धारित संकल्प पर स्थिर रखता है। आर्षग्रंथों संकल्प पर स्थिर रखता है। आर्षग्रंथों में इसकी महिमा का बखान किया गया है। जिसके पीछे अनुभवगम्य आध्यात्मिक और तर्क सिद्ध बौद्धिक दोनों आधार है। अनुभवगम्य इसलिए कि आत्मा को गति सदा सत् संकल्पों की ओर होती है। इस कार्य में भगवान की ओर से भी सहायता मिलती है। यदि इच्छा शक्ति दृढ़ रही तो उस संकल्प की जीवन में उतरते देखा जा सकता है दूसरे शब्दों में प्रबल संकल्प सदा सिद्धि हो कर रहते हैं। उनकी सिद्धि प्रत्यक्ष गतिविधियों पर जितनी निर्भर है उससे कही अधिक महत् सत्ता की परोक्ष इन्द्रियातीत शक्ति पर अवलंबित है। यह सत्ता मात्र संकल्प के अनुरूप बुद्धि विकसित ही नहीं करती वरन् किसी अगोचर विधि द्वारा स्थिति के अनुरूप परिस्थिति भी निर्मित करती है। जप द्वारा इसी का सफल क्रियान्वयन सहल संभव हो पाता है वन-उपवन के वृक्ष वनस्पतियों को यह नहीं विदित होता कि वे बादलों को अपनी ओर आकर्षित कर उन्हें बरसने के लिए किस प्रकार बाधित करते हैं। पर उन्हें इतना अवश्य पता होता हे कि इससे पूर्व उनने इसकी आवश्यकता महसूस की थी। ठीक यही बात मनुष्य के संबंध से भी है। उसे यह नहीं ज्ञात होता है कि ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति अनुकूल कैसे बनेगी, और उसकी इच्छा पूर्ति कैसे संभव हो सकेगी? यदा कदा परिस्थितियां इतनी विकट होती है। कि उन्हें देखकर व्यक्ति को नैराश्य घेरने लगता है पर यदि दृढ़व्रती हो तो न केवल उसके स्वयं के प्रयत्न पुरुषार्थ से वरन् अन्य अनेक माध्यमों से भी उसे ऐसी सहायता प्राप्त होने लगती है। कि प्रतिकूलता धीरे-धीरे अनुकूलता में जीवन में ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई हो आत्म निरीक्षण करने पर उसे इसकी सत्यता का आभास अवश्य होने लगता है संभव है। वह इस प्रक्रिया की वैज्ञानिकता से अनभिज्ञ हो और इसे पूर्णतः भगवद् कृपा, अपना सौभाग्य अथवा देव-अनुकंपा मान बैठा हो पर वास्तविकता यह कि यह उसके दृढ़ संकल्प तीव्र अंभरप्सा और परमसती के अनवरत स्मरण का ही परिणाम है। वस्तुतः जब किसी व्रत को उच्चस्तरीय उद्देश्य का बारंबार स्मरण किया जाने लगता है तो वह व्यक्ति के मन मस्तिष्क में इस तरह छा जाता है। कि तब जो क्रिया प्रयास बन पड़ते हैं, उनमें न्यूनाधिक मात्रा में उसकी अभिव्यक्ति अवश्य होती हैं इस प्रकार ध्यान उस ओर लगा रहने और लगातार प्रयत्न बन पड़ने से उसकी संसिद्धि संभव हो जाती हे छोटे-शब्दों अथवा वाक्यों से अभिव्यक्त होने वाले व्रत-संकल्पों का स्मरण तो इस विधि द्वारा संभव है पर लंबे -चौड़े संकल्पों का निरंतर स्मरण कैसे बन पड़े ? इसके लिए शार्टहैण्ड में किस प्रकार कई-कई वाक्यों को कुछ ही शब्द संकेतों द्वारा व्यक्त कर देने की व्यवस्था है वही प्रक्रिया अपनाने का निर्देश विशेषज्ञ यहाँ देते हैं इस प्रकार सुविधानुसार अपने संकल्प का कोई छोटा प्रतीक -प्रतिनिधि शब्द गढ़ा जा सकता है। और उसका लगातार स्मरण करते रहकर उस व्रत को परिपुष्ट किया जाता रह सकता है। इसी को मंत्र जप कहा गया है। अध्यात्म जगत में इसके लिए ( हरि ( हरि ( तत्सत् सोऽहम् जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है। यहाँ इसका वैज्ञानिक तरीका है। यह कहना उपयुक्त न होगा कि जो कोई खुदा, अल्लाह , राम आदि का नाम जप रहा है। वह ‘ईश्वर ‘ का ही स्मरण कर रहा है वरन् उसकी इस प्रक्रिया का वैज्ञानिक अर्थ मात्र इतना है कि उससे वह मन के किसी संकल्प की सिद्धि प्राप्त कर रहा है। यदि कोई निर्धन जीभ से मात्र राम नाम जपता है, तो यह समझा जा सकता है कि इसमें उसका धन की कामना निहित है या दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है। कि वह “ऐश्वर्य” की कामना हेतु जप कर रहा है। इसी प्रकार यदि कोई व्यापारी नाम पर करता है तो इसमें उसकी व्यापार सफलता का उद्देश्य किया हो सकता है। या यों कहा जाय कि वह ‘सफलता’ का जप करता है। दोनों के प्रयत्न -पुरुषार्थ भी किसी लौकिक संकल्प की पूर्ति के लिए नियोजित होते हैं यहाँ जानने योग्य यह है कि अध्यात्म मार्ग को जपयोग प्रस्तुत जपयोग प्रक्रिया से नितांत भिन्न है। अध्यात्म पथ के पथिकों को इसके लिए कोई शाँत - एकांत तलाश करें भगवद् सत्ता का स्मरण और उसमें अपना विलय- विसर्जन करना पड़ता है इस स्थिति में जपयोग में यह सब कुछ करने की आवश्यकता नहीं पड़ती । यहाँ इसके द्वारा मात्र उस संकल्प को प्रबल बनाये रखना पड़ता है। जिसकी संसिद्धि हम चाहते हैं। आजकल इसी जप का एक स्वरूप संस्करण है। सार्वजनिक आँदोलनों में अपने लक्ष्य पर जनता को ध्यान एकाग्र करने के लिए एक ‘नारा’ बना लिया जाता है। ताकि अंत तक जनता उस ध्येय प्राप्ति के लिए अपना संघर्ष जारी रख सके। वस्तुतः जपयोग का ही एक प्रकार है। इसकी तुलना निस्संदेह उस ‘राम धुन’ के साथ की जा सकती हैं जो भक्त मंडलियों में गाई गुनगुनाई जाती है। चूँकि वहाँ इसका उद्देश्य मात्र भक्ति - भावना का उत्पादन करना होता है। अतः इससे अधिक कोई परिणाम वहाँ प्राप्त भी नहीं हो पाता, मगर नारों में निश्चित प्रयोजन, लक्ष्य व संकल्प निहित होने के कारण वे अपनी क्षमता का प्रमाण - परिचय स्थूल रूप में परिणति प्रस्तुत कर ही देते हैं। इस प्रकार जपयोग अथवा नाम स्मरण की प्रक्रिया स्थिर चित्त वृत्ति और संकल्प सिद्धि का एक वैज्ञानिक आधार है। यह सभी के लिए समान रूप से उपयोगी और लाभकारी हो सकता है। जिस संकल्प संकेत के साथ यह क्रिया आरंभ होती है, उसकी सिद्धि सुनिश्चित हो जाती है। विभिन्न व्यक्ति एक ही नाम का जप कर भिन्न-भिन्न प्रकार के संकल्पों की सिद्धि को प्राप्त होते हैं यही इस जपयोग की सबसे बड़ी विशेषता है।


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