कण- कण में संव्याप्त चेतन सत्ता

March 1994

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भारतीय संस्कृति की यह प्राचीन अवधारण है कि कण-कण में महत् चेतना समायी हुई है। जड़ से लेकर चेतन पर्याप्त सर्वत्र इसी की क्रीड़ा-कलोल है। सृष्टि की मूल सत्ता यही है। इसी से संसार के समस्त क्रिया-व्यापार संपन्न होते हैं। भौतिक अभौतिक शक्तियों के रूप में प्रकाराँतर का यही जीवन-प्राण है। यदा-कदा यही महत् प्राण न जाने क्यों जड़ पदार्थों में भी जीवंत जैसी हलचलें शुरू करते और लोगों को अचंभे में डालते दिखाई पड़ता है?

बैरोन फ्रेडरिक वान हृजेल ने अपने ग्रंथ “दि मिस्टिकल एलाीमेण्ट ऑफ ग्रन्थ “दि मिस्टिकल एलीमेण्ट ऑफ रिलीजन “में एक अनुठा विवरण प्रस्तुत किया है। बात उन दिनों की है, जब 1870 में सम्राट विक्टर एमेन्युएल द्वितीय रोम एवं पैपल राज्यों पर कब्जा कर इटली का क्षेत्र-विस्तार करने में लगे थे। उन्हीं दिनों सोरियेनों सैलेब्रो (दक्षिण इटली) में स्थित सेण्ट डोमिनिक गिरजाघर में एक अलौकिक घटना घटित हुई। 15 सितम्बर 1870 का दिन था। संत डोमिनिक की जयंती मनाने की तैयारी चल रही थी। मध्याह्न हो चुका था। चर्च में संत की मूर्ति पूजा के लिए अनावृत चल रही थी। मध्याह्न हो चुका था। चर्च में संत चौंक पड़े कि प्रतिमा आगे-पीछे जीवित मनुष्य की तरह टहलने लगी है। शोरगुल सुनकर चर्च के दूसरे लोग भी वहाँ आ पहुंचे। विग्रह का चलना जारी रहा । वह आग बढ़ती, फिर पीछे चलती पुनः बायीं ओर मुड़ जाती तत्पश्चात् फिर आगे-पीछे, उसके बाद दांये-बांये। इस प्रकार संत-प्रतिमा एक “क्रास” का निर्माण कर रही थी। गति लगभग एक घटें तक होती रही । इस गति से दोनों मूर्ति अपने आधार से बिल्कुल विच्छिन्न बनी रही। इस मध्य डोमिनिक का दाहिना हाथ उपदेश देते संत की तरह बराबर ऊपर-नीचे आत-जाता रहा। लिली पुष्प युक्त बायाँ हाथ यदा-कदा दांये का साथ दे देता। चेहरे का भाव इस बीच उसी प्रकार बदलता रहा , जिस तरह विषय वस्तु बदलने से क्षण-क्षण में वक्ताओं के भाव परिवर्तित होते रहते हैं। थोड़े-थोड़े अंतराल में ललाट पर बल पड़ जाते और आँखें ऐसी प्रतीत होती, मानों उपस्थित जन समुदाय पर मृदु भर्त्सना बरसा रही हों। दूसरे क्षण वह घूम कर पार्श्व में स्थित लेडी रोजरी के विग्रह पर स्थिर हो जातीं, जैसे वे कुछ निवेदन कर रही हों। तीव्र भावनाओं के आवेग में वक्तृता के समय वक्ताओं के होंठ जिस प्रकार फड़कते हैं, संत-मूर्ति भी कुछ वैसा ही दृश्य उपस्थित कर रही थी।

उल्लेखनीय है कि प्रतिभा की विलक्षण गति को जिस किसी ने भी रोकने का प्रयास किया, वे उसमें सफल तो न हो सके, उल्टे किसी अज्ञात शक्ति के वशीभूत हो वे भी वैसा ही उपक्रम करने लगे। लगभग एक घंटे पश्चात् सब कुछ सामान्य हो गया। दूसरे दिन यह बात सम्पूर्ण मिलेटों में आग की तरह फैल गई। वहाँ के विशप ने एक तरह फैल गई। वहाँ के विशप ने एक आयोग का गठन कर इसकी जांच का आदेश दिया। फरवरी 1971 में जब पड़ताल-कार्य पूरा हुआ, तो आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए कहा कि 15 सितम्बर 1870 के दिन डोमिनिक चर्च में जो कुछ घटा, वह सर्वथा अलौकिक और अद्भुत था। उसकी सच्चाई पर संदेह नहीं किया जा सकता।

एक और इसी प्रकार की घटना सैक्रामेण्टो,अमेरिका की है। इसकी चर्चा रेमण्ड लेमोण्ट ब्राउन ने अपनी प्रसिद्ध कृति “फैण्टम्स ऑफ दि थियेटर “में विस्तारपूर्वक की है। प्रसंग फ्राँसीसी क्राँति के बाद का है। सन् 1867 में रिचर्ड टर्नर ने सैक्रामेण्टो में “टर्नर्स वैक्सवर्क थियेटर” नाम से एक रंगशाला की स्थापना की। थियेटर का मुख्य आकर्षण मंद प्रकाशित गिलोटीन दृश्य के साथ उन फ्राँसीसी नर-नारियों के पुतले थे, जिन्हें फ्राँसीसी-क्राँति के दौरान फ्राँसी दे दी गई थी। इनमें प्रमुख थे-एक अभिजात वर्गीय दंपत्ति, एक युवती एवं काले वस्त्राभूषण में सज्जित मोनजियर निकोडिम लियोपोल्ड-लोपिड नामक एक टैक्स कलक्टर। इन सबके मोम के पुतले पीठिका में प्रतिष्ठित थे।

थियेटर के शुरू हुए अभी एक सप्ताह भी नहीं हुआ था। एक प्रातः पहरेदार ने जब उसका दरवाजा खोला, तो वह यह देख कर चौंक पड़ा कि लियोपोल्ड लोपिड की मोम-मूर्ति पीठिका से पृथक होकर दरवाजे के निकट फर्श पर खड़ी है। उसका सिर धड़ से अलग होकर नहीं पास में पड़ा था। पहरेदार एजरा-मोटर ने इसकी सूचना टर्नर को दी। टर्नर ने इसके बाद रात्रि पहरा और कड़ा कर दिया, साथ ही द्वार का ताला भी बदल कर मजबूत लगा दिया। इतने पर भी घटना रुकी नहीं। प्रायः प्रत्येक सुबह कमरा खोलने पर कलक्टर का पुतला आधार से नीचे फर्श पर मिलता। जब यह नित्यप्रति होने लगा, तो टर्नर और पोटर ने थियेटर में रात्रि बिता कर रहस्य जानने का निश्चय किया। नियत समय पर दोनों रंगशाला पहुँचे, पर दुर्भाग्यवश उन्हें नींद आ गई और मामला समझ पाने में वे असफल रहे। सबेरे जब उनकी आँखें खुली, तो पुतला आज भी अपने आसन से नीचे पाया गया दूसरी रात दोनों ने जागते हुए बिताने की योजना बनायी।

रात्रि के करीब ढाई बजे होंगे। दोनों ने देखा कि मोनजियर की मूर्ति हिलने-डुलने लगी है। पैरों में गति शुरू हुई और धीरे धीरे वह पीठिका से नीचे उतर आयी। कुछ दूर बढ़ने हिलने के पश्चात् स्थिर हो गई। अब हाथ हिलने लगे और इसी के साथ होठों में कंपन प्रारंभ हुए। एक मानवी आवाज से कमरे की निस्तब्धता भंग हो गई। मूर्ति फ्राँसीसी भाषा में बोल रही थी “शांति की नींद यहाँ सो पाना किसी के लिए संभव नहीं। यदि तुम्हें अपनी जान संभव नहीं। यदि तुम्हें अपनी जान प्यारी है, तो फिर कभी निशाकाल में इधर मत आना, अन्यथा पछताओगे।”

इतना कहकर आकृति शाँत हो गई। दूसरे दिन जब इस रात्रि घटना को जानकारी समाचार पत्रों में छपी तो एक पत्रकार टर्नर के पास आया और थियेटर में रात बिताने का आग्रह करने लगा।बहुत समझाने पर भी न माना अंततः अँधेरा घिरा, तो उस व्यक्ति को रंगशाला में पहुँचा दिया गया। बाहर से दरवाजा बन्द कर चौकीदार वहीं बाहर बना रहा।

दूसरा पहर बीतने जा रहा था। ठीक इसी समय कमरे से चीखें आने लगीं और दरवाजे पर लगातार आघात होने लगे। प्रहरी ने ताला खोला, तो पत्रकार चीख मार कर बेहोश हे गया बाद में संपूर्ण वृत्ताँत सुनाते हुए पत्रकार ने बताया “ करीब दो घंटे तक सब कुछ सामान्य रहा । इसके उपराँत अचानक कलक्टर की आकृति में कंपन हुई। पहले हाथ हिला, फिर गर्दन मुड़ी। अब वह अपने चबूतरे पर चलने लगी, उससे नीचे उतरी और मेरी ओर मुड़ी। अब वह अपने चबूतरे पर चलने लगी, उससे नीचे उतरी और मेरी ओर मुड़ी। अब वह अपने चबूतरे पर चलने लगी, उससे नीचे उतरी और मेरी ओर मुड़ी। अब वह अपने चबूतरे पर चलने लगी, उससे नीचे उतरी और मेरी ओर मुड़ी। मैं खड़ा हुआ। मोम आकृति अब भी मेरी ओर बढ़ रही थी। मैं भय से काँप उठा और दरवाजा पीटने लगा। इस समय तक वह मेरे काफी निकट आ चुकी थी, इतना अधिक कि उसने अपने हाथों का घेरा मेरी गर्दन के गिर्द डाल दिया। मेरे प्राण जुबान तक आ गये। मैं चौंककर उठा । तभी किवाड़ खुले और इसके बाद बेहोश हो गया।”

इन्हीं घटनाओं के तारतम्य में हर्बर्ट थर्स्टन ने अपनी पुस्तक”व्यूरैंग एण्ड अदर एपेरिशन्स” में लिखा है कि माल्टा द्वीप के वालेटा शहर के एक स्कूल के छात्रों ने एक बार पिकनिक के उपराँत शहर के उत्तर पश्चिम में स्थित मरियम की एक भव्य प्रतिमा के दर्शन को कार्यक्रम बनाया। मेलाइहा ग्राम की इस मूर्ति के बारे में जनश्रुति थी कि वह अद्भुत चेष्टाएँ करती है, विशिष्ट भंगिमा बना कर दर्शकों को आशीर्वाद देती है। छात्र जब वहाँ पहुँचे, तो कुछ विद्यार्थियों ने फादर जॉन मैकहेल के साथ “ग्रोटा डेला मैडोना” की उस प्रसिद्ध गुफा में प्रवेश किया, जहाँ मरियम का विख्यात विग्रह प्रतिष्ठित था। संपूर्ण विवरण का उल्लेख करते हुए फादर मैकहेल ने अपनी डायरी में लिखा है कि जैसे ही वे लोग विशाल कन्दरा के द्वार पर पहुँचे, दूर से ही जीवंत मूर्ति ने उन लोगों को एक प्रकार से मोहित कर लिया। सभी गुफा के अंदर गये, तो ज्ञात हुआ कि श्वेत पाषाण से विनिर्मित वह एक प्राचीन प्रतिभा थी। उसका बायाँ हाथ एक सुन्दर शिशु को थामे हुए था, जबकि दाहिना स्वतंत्र था। फादर मैकहेल ने मोमबत्ती की रोशनी में मूर्ति का गहराई से निरीक्षण किया। वह एक बड़े प्रस्तर खण्ड से बनी थी और बिलकुल संधि रहित थी। अभी वह उसे निहार ही रहे थे। कि अकस्मात् उंगलियों में हलचल हुई। वे सतर्क हो गये। कनिष्ठ अँगुली पीछे की ओर मुड़ी। कुछ क्षण पश्चात् अनामिका और मध्यमा ने भी उसका अनुसरण किया, तत्पश्चात् तर्जनी की बारी आयी और सबसे अंत में अंगूठे ने भी उनका साथ दिया। इस प्रकार आरंभ में जो उंगलियां सामने फैली हुई थी, अब उनकी दिशा विपरीत हो गई थी। इसके बाद संपूर्ण हाथ ऊपर की ओर उठा, मानों मरियम आगन्तुकों को आशीर्वाद प्रदान कर रही हो। कुछ पल आशीर्वाद प्रदान कर रही हों। कुछ पल तक उक्त में रहने के उपराँत हाथ पुनः नीचे आ गया एवं उंगलियां पूर्ववत् हो गई।

इसे महत् प्राण का चमत्कार कहें या कौतुक, उसके रहस्य को भलीभाँति समझने के लिए उस सत्ता को संपूर्ण विदित हो सकेगा कि जनसामान्य में कौतूहल पैदा करने वाली इन अलौकिकताओं के पीछे उसका प्रयोजन क्या है?


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