विधाता की नीति (Kahani)

March 1994

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जब राजा ययाति आपने मुख से अपने तपस्या की प्रशंसा और अन्य तपस्वियों का तिरस्कार करने के कारण पुण्य क्षीण हो सिद्धों के लोग से नीचे गिरने लगे, तो राजा अष्टक ने उन्हें गिरते देख कहा “महाराज , समस्त देवताओं को साक्षी बना मैं अपना समस्त पुण्य आपको अर्पित करता हूँ आपका पतन न हो।” ययाति मुसकराये और कहने लगे,”नर श्रेष्ठ ! दान केवल वेदवेत्ता ब्राह्मण या दीन ही ले सकते हैं। मैं न तो ब्राह्मण हूँ, न दीन। इसलिए, है पुण्य शील अष्टक “ मुझे नीचे गिरने दो। इसी समय पास खड़े राजा प्रवर्दन ने भी ययाति को अपना पुण्य भेंट करता चाहा। ययाति के फिर अस्वीकार करने पर राजा वसुमान ने आगे बढ़कर कहा,”सज्जनों! ययाति दान ग्रहण नहीं करते, आप वृथा कष्ट न करें। “ फिर ययाति की ओर मुड़कर बोले,” महाराज समस्त पुण्य देता हूँ , आप का पतन न हो। ययाति हँसे और बोले, “पुण्यशील वसुमान! उचित मूल्य से कम में किसी वस्तु को मोल लेना भी एक प्रकार का दान लेना है। मैं न तो ब्राह्मण हूँ और न दीन, अतः मुझे नीचे गिरने दो। मैंने जो कर्म किए है उनका फल मुझे पाने दो , क्योंकि यही विधाता की नीति है।


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