भरी रही जो भूमि सदा से स्वस्थ सुगंधित फूलों से. उस धरती को यहाँ न भरने देंगे कभी बबूलों से ॥
यहाँ संत ऋषियों का जीवन उन्नत रहा विचारों से सत्कर्मों को अधिक मान्यता मिली यहाँ मनुहारों से
इसी संस्कृति के सूर्योदय सेजग ने किरणें मांगीं यहीं आदि कविता जन्मी जग कविमन में करुणा जागीं
मानवता की संस्कृति में इन सक्षम सबल सहारों को... कभी नहीं जीने देंगे हम अब निर्बल निर्मूलों से.....
यहाँ मधुरता ही झरती थी हर उपवन अमराई से यहाँ प्यार की गंध उठा करती थी हर पुरवाई से
स्रस बसंती पवन वीरता की उमंग भर जाता था यहाँ पर्व होली दीवाली का समता सिखलाता है।
स्गम रही सबको जो संस्कृति, उसकी पथ पगडंडी को, नहीं भरेंगे घृणा-विषमता-अविश्वास के शूलों से।
था कृतज्ञ इस संस्कृति में हर व्यक्ति यहाँ हर दाता का, माना हर प्राकृतिक शक्ति को भी वरदान विधाता का,
प्यार अनुज को, अग्रजनों को मिला सदा सम्मान यहाँ, देवतुल्य थे पूज्य वृक्ष-जल-अग्नि-चंद्र-दिनमान यहाँ,
वसुँधरा जिनका कुटुम्ब थी, बंधु विश्व के वासी थे, उन्हें ना बनने देंगे हम उपहास स्वयं की अभूलों से।
इसका पत्थर भी श्रद्धा से शिवशंकर बन जाता था, सामूहिक सहकार उमड़ता था खेतों-खलिहानों से,
यहाँ लोक गाथाएं भरी रहीं अनगिन बलिदानों से, तूफानों में श्रद्धा-साहस-तप-सहकार जरूरी है,
हमें यही संकेत दे रहा महाकाल अब कुलों से।
शचीन्द्र भटनागर