संयमी सदासुखी

March 1994

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जीवन तो सभी को मिलता है और वह जैसे-तैसे कट भी जाता है, पर जीवन को अच्छे ढंग से जीना बहुत कम लोग जानते हैं किसी भी प्रकार का असंयम निश्चय ही जीवन को अल्प कालीन को दीर्घायु और सुखी बनाने के लिए प्रत्येक बात में संयम से काम लेना बुद्धिमानी है। जिस प्रकार उत्तम स्वास्थ्य का रसथ्य संतुलित सात्विक भोजन है, उसी प्रकार सुखी का रहस्य भी संतुलित और संयमित व्यवहार-व्यापार है। जैसा कि मि0 गेलार्ड हासर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “लुक यंगर लिव लागर” में लिखा है जीवन का उत्तरार्द्ध ही वह महत्वपूर्ण भाग है जिसमें प्रवेश करने पर हमें अपने जीवन का वास्तविक बोध हो जाता है कि हमारा जीवन सफल रहा या विफल। वस्तुतः हमारा जीवन एक पुस्तक के समान है और उसका एक-एक दिन एक-एक पृष्ठ के समान हैं यदि हम अपनी जीवन पुस्तक को संतुलित रखते हैं, तो उसके पूर्वार्द्ध के पृष्ठो को पढ़कर उत्तरार्द्ध जीवन में लाभ उठाया जा सकता है। यदि ऐसा नहीं करते हैं तब भी जीवन के पूर्वार्द्ध के समाप्त होने पर उसके उत्तरार्द्ध भाग को संतुलित बनाया जा सकता है। अतः निराश होने का कोई कारण नहीं है। जीवन में जहाँ कही भी कमी अथवा असंतुलन हो तो उसे ठीक करने का हमें सतत् प्रयत्न करना चाहिए। ऐसा करने से ही जीवन सुखमय बन सकेगा। जीवन की दो अवस्थाएँ होती है। एक बहिर्मुखी और दूसरी अंतर्मुखी पहले हमें इस बात का पता लगा लेना चाहिए कि इनमें से किस अवस्था को उन्नत करना है। यदि पूर्वार्द्ध में जीवन संतुलित एवं संयत नहीं हो सका, तो वह उत्तरार्द्ध में संतुलित एवं संयत हो सकता है। बशर्ते कि हम में साहस हो और अपने अन्दर छिपी हुई शक्ति को विकसित करने की कला हमें ज्ञान हो। उस कला द्वारा हम अपने में सोई शक्ति को जगाकर नवचेतना, नई उमंग तथा नवजीवन प्राप्त कर सकते हैं। आज तक यह नहीं देखा गया कि असंतुलित जीवनयापन करने वाले, शरीर और मन से स्वस्थ रहकर लंबी आयु पाये हों और उनकी स्वाभाविक मृत्यु हुई हो, जब कि इसके विपरीत ऐसे अनगिनत उदाहरण दिये जा सकते हैं। कि लोगों ने सतर्क रहकर संतुलित और संयमी-जीवनयापन किया है और उसके फलस्वरूप उनकी लंबी आयु हुई है और वे प्राकृतिक मृत्यु से मरे है। इसलिए हम इस बात को बलपूर्वक कह सकते हैं कि एक वृद्ध व्यक्ति, भले ही वह दुर्बल हो, पर संयमों जीवन बिताने वाला ही, उस युवा व्यक्ति से कही अधिक दिनों तक जीने को क्षमता रखता है, जो तथ्य में शंका करने की ले मात्र भी गुंजाइश नहीं है। शरीर के स्वास्थ को पूर्णतः बनाये और स्थिर रखने के लिए जीवन को ऐसे संयमित ढंग से ढालना चाहिए, जिसका मानव-जीवन के कल्याण से संबंध रखने वाले प्राकृतिक विधानों के साथ पूरा-पूरा सामंजस्य हो। इसका अभिप्रायः सब तरह की अनीतियों, बुरी आदतों और व्यसनों से दूर रहना है, जो हमारी जीवनी- शक्ति कर शोषण और शरीर में आरोग्य प्रदान करने वाली एवं स्वस्थ रखने वाली शक्ति को क्षीण किया करते हैं। प्राकृतिक जीवन-पद्धति के अनुयायी यह भली-भांति जाने है कि अस्वास्थ्य की दशा अयुक्त आहार के ही कारण उत्पन्न हुआ करती है, जो सभी प्रकार के रोगों का कारण और आयु को क्षीण करने वाली है। पर ऐसे लोग भी कम नहीं है, जो खाने-पीने के लिए गलत तरीके को अपनाये हुए है और उसे अपनाये ही रहना चाहते हैं , यद्यपि वे अच्छी तरह जानते हैं कि उनके खान-पान का वह तरीका उनके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इस प्रकार की मनोवृत्ति को आत्म - घात की भूमिका की कहनी चाहिए। संतुलित जीवन और संयम एक दूसरे के बिना काम नहीं चल सकता। संयम मानव जीवन का सर्वोच्च आदर्श है। खान-पान, रहन-सहन, विचार-व्यवहार आदि संतुलित जीवन के समस्त कार्य-कलाप में संयम की मर्यादा का पालन कर मनुष्य शरीर, चित और मस्तिष्क स्वस्थ और सुखी बना रह सकता है संयम अर्थात् इन्द्रिय - निग्रह करना जरा कठिन अवश्य है, पर यही वास्तविक जीवन कला है जिसके बिना मनुष्य किसी भी अवस्था में सुखी नहीं रह सकता।संयम मन, वाणी और कर्म तीनों का होना चाहिए मनः संयम में इन्द्रियों के अधीन रहने की आदत सबसे बड़ी बाधा होती है। इस बाधा को दूर करने के लिए हमें बुद्धि के अंकुश से काम लेना होगा। स्वयं बुद्धि को इन्द्रियों के पीछे-पीछे भागने नहीं देना चाहिए। कौन - कौन से अहार-विहार श्रेयस्कर है और उनका किस सीमा तक सेवन करना चाहिए, कब और कितना परिश्रम या विश्राम करना चाहिए आदि बातों का निर्णय अंधी इन्द्रियों पर छोड़ना बुद्धिमानी नहीं। ये काम तो स्वयं बुद्धि के है और उसे ही करने चाहिए। भ्रष्ट बुद्धि को अभ्यास द्वारा धीरे-धीरे शुद्ध बना लेना चाहिए, ताकि वह इंद्रियों पर शासन कर सके, उन पर नियंत्रण रख सके पर यदि उसको इन्द्रियों का दास ही बना रहने दिया जायेगा तो धोखा होगा और मन कभी संयत न हो सकेगा। फलतः जीवन में असंतुलन की स्थिति न आ सकेगी जीवन सुखी न हो सकेगा। मन के संयम से वाणी का संयम कम महत्वपूर्ण नहीं है। वाणी में इन्द्रियों को चलायमान करने की शक्ति होती है। अतः वाणी का संयम सुखी जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है। व्यर्थ वाद - विवाद,, बकवास ,गाली , गलौज तानाशाही, भद्दे मजाक तथा असत्य भाषण आदि असंयमित वाणी के लक्षण हैं। इससे वैमनस्य की उत्पत्ति होती हे, वैर भाव बढ़ता है, जीवन में कटुता आती है। इसके विपरीत प्रेम भरे मीठे वचन और सत्य भाषण विश्व विमोहन होते हैं। इनसे मैत्री बढ़ती है, वातावरण में प्रसन्नता आती हे और जीवन में आनंद की लहर उमड़ पड़ती है। सत। कर्म और असत् कर्म समझना तथा तदनुसार आचरण करना कर्म का संयम कहलाता है। इस कार्य में विवेक - बुद्धि की सहायता आवश्यक होती है। क्रम का संयमी सच्चा कर्मयोगी कहलाता है। चाहे मार्ग में कितनी ही विघ्न बाधाएं हो, वह कर्तव्य पथ से विचलित नहीं होता अपनी जीवन यात्रा को सुगम सुगम, सरल और सुखद बनाने के लिये यह निताँत आवश्यक है कि हम यथा संभव कर्तव्य परायण बनें सच्चे कर्मयोगी बने। सच्चा कर्मयोगी ही सफल जीवन का सच्चा आनन्द प्राप्त कर सकता है। संसार में सभी दीर्घजीवी संयमित जीवनयापन से ही लंबी आयु के अधिकारी हुए थे। इस संबंध में कुछ दिन पूर्व अमरीका में 10 वर्ष से अधिक आयु वाले व्यक्तियों की आदतों और रहन-सहन का अध्ययन किया गया था जिन बातों से वे दीर्घायु हुए थे उनका लोगों में प्रचार करना इस अध्ययन किया गया था। जिन बातों से वे दीर्घायु हुए थे, उनका लोगों में प्रचार करना इस अध्ययन का लक्ष्य था। पता लगा कि उनकी लंबी आयु का रहस्य मुख्यतः उनका संयमित जीवन ही था। वे शराब और तम्बाकू आदि छूते तक न थे। उनमें से बहुतेरों ने कभी माँसाहार भी नहीं किया था। वे फल, दूध, शहद सब्जी और मक्खन का सेवन विशेष रूप से करते थे वे खूब परिश्रम करते थे और गहरी नींद सोते थे। हमारे देश के अनेकों दीर्घजीवी संतों, राजनेताओं ने अपने ।स्वस्थ जीवन का रहस्य इन शब्दों में व्यक्त किया “शारीरिक दृष्टि से में पूर्णतः सुखी हूँ। प्रतिदिन सूर्य नमस्कार करना नहीं भूलता । मुझे स्फूर्ति और ताजगी का अनुभव होता है। सिर दर्द, मैं कभी जानता ही नहीं । मुझे इस बात से बड़ी हैरानी होती है। “ जीवन में संयम हो और करने के लिए काम हो , तो 101 तक स्वस्थ जीवन बिताया जा सकता है। “स्व पंडित सातवलेकर जी, स्व लोकमान्य तिलक, सरदार पटेल, महात्मा गाँधी , तथा 101 वर्षीय डा कर्वे विश्वेश्वरैया आदि जितने भी महान व्यक्ति हो गये हैं या अभी विद्यमान है। सभी संयमी ओर संतुलित जीवन अपना कर ही महान और आयुष्मान् बने है।


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