सेवा-साधना ही सर्वोपरि (Kahani)

March 1994

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शबरी यद्यपि जाति की भीलनी थी, किंतु उसके हृदय में भगवान् की सच्ची भक्ति भरी हुई थी। जहाँ वह रहती थी, वन में अनेक ऋषियों के आश्रम थे उसकी उन ऋषियों की सेवा करने और उनसे भगवान् कथा सुनने की इच्छा रहती थी। अनेक ऋषियों ने उसे नीच जाति की होने के कारण कथा सुनाना स्वीकार नहीं किया और दुत्कार दिया।

किन्तु इससे उसके हृदय में न कोई क्षोभ उत्पन्न हुआ और न निराशा। उसने ऋषियों की सेवा करने की एक युक्ति निकाल ली। वह प्रतिदिन ऋषियों के आश्रम से सरिता तक का प्रथा काटकर आश्रम से सामने रख देती। शबरी का यह क्रम महीनों चलता रहा, किंतु किसी ऋषि को यह पता न चला कि उनकी यह सेवा करने वाला है कौन? शबरी आधी रात रहे ही जा कर अपना काम पूरा कर आया करती थी।

उन्होंने एक रात जागकर पता लगा ही लिया कि यह वही भीलनी है, जिसे अनेक बार दुत्कार कर द्वार से भगाया जा चुका था। तपस्वियों ने अन्त्यज महिला की सेवा स्वीकार करने में परंपराओं पर आघात होते देखा और उसे उनके धर्म-कर्मों में किसी प्रकार भाग न लेने के लिए धमकाने लगे। मत ऋषि से यह न देखा गया। वे शबरी को अपनी कुटी में स्वयं ले गये और उन्हें सबसे पहले छाती से लगाया। शबरी की कुटी में स्वयं गये और उसका आतिथ्य स्वीकार किया। भगवान उन्हें ही सर्वाधिक प्यार करते हैं, जो तप साधना की आत्म प्रवंचना में न डूबे रहकर सेवा-साधना को सर्वोपरि मानते हैं।


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