अपनी सहज संकरुण दृष्टि डालते हुए तथागत भगवान बुद्ध ने पूछा- ”बिंबिसार! स्वस्थ तो है न ? प्रजा को कोई कष्ट तो नहीं ? पाटिल- पुत्र पर गंगा का प्रकोप बढ़ रहा था, वह रुक गया या नहीं? “ और बिंबिसार तब तक मौन थे, जब तक उन्होंने तथागत को प्रणिपात नहीं कर लिया। चरण धूलि मस्तक पर लगाकर भगवान बुद्ध के समीप ही एक ओर बैठ गए। बैठते हुए तथागत के प्रश्नों का उत्तर भी दे डाला-” भगवन्! आपकी चरण रज जिस मस्तक पर कृपा बरसाए उसके अमंगल की कामना तो भगवान इन्द्र भी नहीं कर सकते। हम स्वस्थ हैं, प्रजा सुखी है, बाढ़ का जल राजधानी की सीमा रेखाओं का स्पर्श छोड़कर पीछे लौट गया। सब ठीक है किंतु........... ।” उससे आगे कुछ कहते कहते वे एकाएक रुक गया। संभवतः उन्हें बात सर्व साधारण के समक्ष व्यक्त करने में संकोच हो रहा था। “कहो-कहो! बिंबिसार तुम्हारी व्यग्रता का कारण क्या है? कौन सी समस्या है, जिसने पाटिल पुत्र नरेश को विस्मय में डाला है बोलो, कुछ संकोच हो रहा हो तो एकाँत की व्यवस्था की जाये।” उपस्थित भिक्षु-भिक्षुणियों एवं सुदूर गणराज्यों से पधारे धर्म तत्व जिज्ञासुओं पर अपनी दृष्टि दौड़ाते हुए सम्राट बिंबिसार ने अपनी संपूर्ण दृष्टि भगवान बुद्ध पर डाली और विनरत भाव से कहने लगे - “नहीं देव! ऐसी तो कोई बात नहीं पर जो कुछ हुआ, वह ऐसा भी नहीं जिस पर विचार न किया जाय। भगवन्! पाटलिपुत्र अपने नागरिकों की चरित्र निष्ठा के लिए दूर-दूर तक विख्यात है। यहाँ की कुलबधुएँ अपने शील वैभव की सब प्रकार से रक्षा करती है। इस देश में उच्छृंखलता का कही भी नाम निशान तक नहीं है । त्यागी, तपस्वियों, विद्वानों और तत्वदर्शी सिद्ध-पुरुषों का अभाव भी नहीं हैं। पर जो कार्य किसी महान धर्म-निष्ठ को पूरा करना चाहिए था, उसे शील सदाचार से सर्वथा रहित कोई नगर वधू-करे इस विस्मय का समाधान नहीं हो पाता। इसी कारण आज आपकी सेवा में उपस्थित हुए है।” “ अभी तुम्हारी पूरी बात समझ में नहीं आई सम्राट! हुआ क्या है वह’ विस्तार से कहो “ भगवान बुद्ध ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा। सम्राट कहने लगे- “ भगवन्! तीन दिन पूर्व भगवती भागीरथी ने अपना प्रचंड रूप धारण किया नगर कोट की रक्षण दीवार ही नहीं प्रधान दुर्ग का अस्तित्व भी संकट में पड़ गया। ऐसा लगता था वे इस बार संपूर्ण नगर को अपने जल आक्रोश में डुबो कर ही छोड़ेंगे। घरों में पानी भरने लगा 1 गायों बछड़ों के लिए सूखा स्थान नहीं रहा। विकट परिस्थिति की आशंका से सभी लोग काँप गए। तब राष्ट्रध्वज के नाते मेरा दायित्व था कि उस संकट से बचाने का कुछ उपाय करूं। मैंने सभा सचिव से विस्तार से विचार विमर्श किया । पाटिल पुत्र में जो भी धर्म-निष्ठ एवं विचारशील लोग थे, सब की गोष्ठी बुलाई। लोगों ने बाढ़ के प्रकोप से बचने के लिए अपनी-अपनी तरह के सुझाव दिये। यज्ञ,जप,तप साधन व्रत और उपवास भी किए गए।पर जल राशि सुरसा के शरीर की तरह बढ़ती ही गई। कोई उपाय कारगर न हुआ। महा आश्चर्य-महाभाग कि उस संकट की घड़ी में बल कोई उपाय पाटलिपुत्र की रक्षा करने में समर्थ न हुए तो एक अनिंद्य सुन्दरी नगर वधू वहाँ आ पहुँची। सुन्दर सा नाम है उसका लोग उसे ब्रिदुमती के नाम से पुकारते हैं। नगर के धन संपन्न काम लोलुप व्यक्तियों की वासना-तृष्णा पूर्ति ही उसकी आजीविका का माध्यम है। उसने जीवन में कभी तप नहीं किया, माला नहीं फेरी यहाँ तक कि उसने चरित्र-निष्ठा, शील और सदाचार का महत्व भी नहीं समझा पर उसने तो धर्म तत्व चेताओं के संपूर्ण ऐश्वर्य पर पानी फेर दिया। भगवती गंगा के सम्मुख खड़ी होकर उसने अनंत जल राशि की आरती उतारी, मैंने उसे एक क्षण के लिए ही ध्यान मुद्रा में देखा, इसके बाद जो कुछ हुआ, मुख पर लाते हुए भी लज्जा आती है, देव ।
हजारोँ लोगों की भीड़ के सामने उसने भगवान सूर्यदेव और आकारु को साक्षी बनाया और अश्रुपूरित गदगद अगरा में बोली -” भगवती गंगा! यदि मैंने संपूर्ण जीव अपने कर्तव्य का पालन निष्ठा भाव से किया हो तो अब अपनी जलराशि समेट लो और मेरे देशवासियों को चैन की साँस लेने दो।”“ भगवन्! एक बूँद तीन बूँद -बूंदों की अविरल झड़ी लग गयी। उसकी आंखों बरसती रही, उस खारे जल ने मंदाकिनी को पवित्र जलधारा का स्पर्श मात्र किया था कि इनका प्रकोप अपने आप घट चला। देखते - देखने गंगा ने अनधिकृत प्रदेश से अपना अंबुआलोड़ खींच लिया और अपनी चिर धारा में वेगवती हो उठी। योगी, सिद्धों और धर्म तत्व वेत्ताओं की यह असमर्थता और शील रहित नगर वधू की विजय ऐसा लगता है देव! कहाँ प्रजा भ्रम में न पड़ जाए। लोग धार्मिक मर्यादाओं की अवहेलना न करने लगें। यही मेरी चिंता का कारण है। भगवान ‘बुद्ध मुस्कराए, उन्होंने कोई उत्तर या समाधान नहीं दिया। प्रिय शिष्य आनन्द को समीप बुलाकर कान में कुछ कहा और उस दिन की धर्म सभा विसर्जित कर दी । महाराज बिंबिसार के आतिथ्य की संपूर्ण व्यवस्था करने के उपरांत आनन्द कुछ भिक्षुओं के साथ पाटलिपुत्र की ओर जाते दिखाई भगवान बुद्ध इस समस्या का क्या उत्तर देते हैं यह जानने की सभी को प्रबल जिज्ञासा थी। इसलिए रात सबने बेचैनी और प्रतीक्षा में व्यतीत की।प्रातः काल हुआ, देवी उषा के आगमन होते ही कड़ चीवरधारी भिक्षु आश्रम की व्यवस्था में जुट गए। ऐसा लगता था, जैसे आज कोई बड़े धर्मोत्सव की तैयारी की जा रही हो। सभी अपनी दैनिक उपासनाएं कर सभा कक्ष में जुड़ने लगे। थोड़ी देर में सभा भवन पूरी तरह भर गया। सम्राट महात्मा बुद्ध के समीप बैठे। एक भिक्षु ने सूचना दी आनन्द पाटलिपुत्र से आ गए है, नगर बिंदुमती उसके साथ ही है। सम्राट चौंके पर इससे पूर्व वे कुछ पूछें, भिक्षु भगवान बुद्ध का संकेत पाकर बाहर निकल गया। थोड़ी ही देर में शिष्य आनन्द के साथ बिंदुमती ने उस सभा मंडप में प्रवेश किया। उसका सौंदर्य उतना आकर्षक नहीं था, जितना स्वाभिमान । जीवन भर लोगों की वासना की पूर्ति करने वाली नारी के मुख मंडल पर भी इस प्रकार का संतोष गंभीरता से कम न थी। भगवान बुद्ध ने उसका स्वागत ठीक उसी तरह किया, जिस, प्रकार श्वसुर ग्रह से लौटी हुई पुत्री का स्वागत एक पिता भरे हुए हृदय से करता है। तथागत की आज्ञा से बिंदुमती उनके पास ही बैठी। सारी सभा में सन्नाटा छाया हुआ था। भगवान तथागत ने एक बार सारे सभासदों की ओर अध्ययन दृष्टि से देखा और फिर अत्यंत करुणा भरी दृष्टि से बिंदुमती की ओर देखते हुए कहा-”पुत्री। यहाँ के नागरिकों और स्वयं सम्राट तक की विस्मय है कि तु भ्रष्ट, वासना-लोलुप और दूसरों का धन हरण करने वाली वेश्या है। तुझ में वह कौन सी शक्ति थी, जिसने गंगा को भी अपनी बाढ़ समेटने को विवश कर दिया। मैं तो जानता हूँ किंतु ये नहीं जानते । तू इन्हें बता दे।” बिंदुमती ने एक बार तथागत के चरणों पर दृष्टिपात किया और एक शक्ति सी अनुभव करती हुई बोली-” वह मेरी नहीं कर्तव्य निष्ठा की शक्ति थी” बिंबिसार ने पूछा -” कर्तव्य निष्ठा की शक्ति तुझ जैसी वेश्या में कैसे सम्भव है?” बिंदुमती बोली “ महाराज । मैंने अपनी आजीविका के लिए अपने शरीर का व्यापार किया है, वासना के लिए नहीं और अपने कर्तव्य का पालन पूर्ण निष्ठा के साथ किया । धनी, निर्धन, ब्राह्मण शुद्र का भेदभाव किए बिना मैंने प्रत्येक ग्राहक को संतुष्ट किया है जिसका धन लिया उसके साथ विश्वासघात नहीं किया परन्तु उसकी इच्छा से कुछ अधिक ही संतोष उसे प्रदान किया। यही मेरी सत्य निष्ठा है। जिसने पुण्यतोया गंगा को भी प्रभावित किया।” और इससे पूर्व भगवान बुद्ध कुछ कहें सम्राट बिंबिसार गौतम बुद्ध के चरणों पर जा गिरे और बोले “ भद्रे का कथन सत्य है। भगवन् मेरी आंखों अब खुल गयी है। निश्चय ही अपने कर्तव्य का निष्ठापूर्वक पालन करने से बड़ा और कोई धर्म नहीं है।