महत्संकल्प, समष्टि के हित का

March 1994

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“ अघोरनाथ! साधुता व्यर्थ है यदि वह स्वार्थ कलुषित हो।” गुरुदेव ने दीक्षा देने के दिन ही कहा था। आज उनके वचनों का स्मरण आ रहा है यश, ऐश्वर्य तथा भोग तो प्रत्येक संसारासक्त चाहता है। सिद्धियाँ तुझे और क्या देंगी? मठ-मंदिर तथा लोक प्रशंसा। साधे संप्रदाय में वह जो घोर सांसारिकता आ गई है, उसे अपनाकर मुझे लज्जित करना। घर गृहस्थी आदि का ही यह दूसरा रूप । तुझसे मुझे आशा है व्यक्तित्व के पोषण से ऊपर उठना वत्स।”अपनी ही मुक्त की चिंता यह भी तो व्यक्तित्व का ही चिंतन हैं स्वार्थ ही तो है यह।” अघोरनाथ आज यह सोचने लगे है। क्षीण कार्य अपरिग्रहशील, तपोनिरत अघोरनाथ ने अब तक ऐसा कुछ नहीं किया है, जिससे यह कहा जा सके कि गुरुदेव के दीक्षा कालीन उपदेशों को वे भूल गए हो। उनकी कठोर तपस्या घोर वन में एकांत साधना एवं लोक निरपेक्षता की देखते ही सबके मस्तक उनके सामने झुक जाते हैं। सच्चे योग साधक के सम्मुख सिद्धियाँ आती है। अघोरनाथ के सम्मुख अनेक रूप में वे आयी और बार बार आयी किंतु उन्होंने तत्काल झिड़क दिया उन्हें जैसे कोई घाव भरे खजुलाहे कुत्ते को झिड़क देता है। “शिव स्वरूप गुरु गोरखनाथ अमर हैं । उन्होंने काल के पद अवरुद्ध कर दिये है। रामेश्वर सिद्धि ने उन्हें यह सामर्थ्य प्रदान की।” नाथ संप्रदाय में जो जनश्रुतियाँ है। अघोरनाथ ने भी सुनी है और उन पर श्रद्धा की है। आज इस श्रवण ने चित को एक नवीन संकल्प दिया-” जरा-मरण भयातुर रोग शोक संत्रस्त, काम -क्रोध-लोभ-निष्पीड़ित मानव समुदाय अपनी इन असह्य पीड़ाओं से परित्राण पर जाये यदि रमेश्वर का सिद्धयोग सर्वसुलभ हो। लो मंगल के इस अनुष्ठान में आत्माहुति देने में भी श्रेय है।” मनुष्य स्वयं में महान नहीं है। दैहिक बल, बुद्धि धन अथवा तप उसे महान नहीं बनाता। महत्संकल्प मनुष्य को महान बनाता है। जो अपने संकल्प स्वार्थ दूषित नहीं है तो समष्टि स्वयं उसको सुयोग प्रदान करती है। महत संकल्प के लिए महान श्रम को शक्ति साहस तथा अनुकूल योग अपने आप उपस्थित होते हैं। अघोरनाथ का संकल्प महान था और अपने संकल्प के प्रति स्थिर प्रतिष्ठ निष्ठा थी। रमेश्वर के स्वरूप, उसकी मृत, मूर्छित, वृद्ध आदि अवस्थाएँ तथा उनके संबंध में आवश्यक विवरण उन्हें अल्पकाल में ही प्राप्त हो गए। ऐसे अनेक विवरण उन्हें अल्पकाल में ही प्राप्त हो गए। ऐसे अनेक विवरण उन्हें मिले, जिनकी प्राप्ति हो किसी रस साधक के पूरे जीवन की साधना का परिणाम कहा जा सकता है। विशुद्ध विप्र वर्गीय पारद- कृष्णा, पीत एवं अरुणिमा से सर्वथा शून्य शुघ्र चन्द्रोज्वल रस धरा में अपने आप उपलब्ध नहीं होता। अनेक अनुष्ठानों के उपराँत मत्रपूत साधक मरुस्थल के मानव वर्जित प्रदेश के प्राणप्रद स्पर्श हीन सिकता कणों से उसे तब कण-कण के रूप में प्राप्त कर सकता है जब ग्रीष्म के मध्याह्न में धरा गर्भ से रमेश्वर के कण ऊपर उठते हैं। अपने को अग्नि में आहुति देने के समान अनुष्ठान है यह मरुस्थल की प्रचंड ऊष्मा जल विहीन धरा और उसमें से अनेक योजन लक्ष्यहीन भटकती यात्रा में राशि-राशि उड़ती बालुका में अल्पतप कणों का अन्वेषण, किंतु अघोरनाथ को यह दुष्कर नहीं लगा। उन्होंने शुद्ध विप्र वर्गीय पारद प्राप्त किया। विशुद्ध पारद- भगवान महेश्वर के श्री अंग का सार सर्वस्व । वह जिसे उपलब्ध हो गया, देव जगत उसका सम्मान करने को विवश हैं काम की चर्चा व्यर्थ, उद्धत चामुण्डा तथा अपना ही रक्तपान करने वाली छिन्नमस्ता तक उस महाभाग के सम्मुख यक्ष राक्षस पिशाच उसकी छाया का स्पर्श करने में समर्थ नहीं । स्वयं विशुद्ध पारद की उपलब्धि अपने आप में महती सिद्धि है। किंतु अघोरनाथ के महत्तम संकल्प की शक्ति के सम्मुख तो इसकी कोई गणना नहीं है। सिद्ध भूमि आवश्यक थी। कामाख्या और हिग्रलाज स्मरण आये। भगवती महामाया ही तो सिद्ध रस की साधना में व्याघात उपस्थित करती है। इस विचार ने अघोरनाथ को जालंधर पीठ पर भी स्थिर नहीं होने दिया। त्रिपुर भैरवी प्रसन्न न हों तो कोई सफलता किसी को मिला नहीं करती। उनको गोद का आश्रय अपेक्षित है रस साधक को। “ भगवती त्रिपुर सुंदरी की छाया जो स्फटिक शुम्र विग्रह वृषभ ध्वज के श्री विग्रह में पड़ती है, भस्म भूषिताड़ शिव के वक्ष में वह किंचित् श्याम प्रतीत होने वाला प्रतिबिंब ही भगवती त्रिपुर भैरवी की है।” अघोरनाथ ने अपने सम्प्रदाय के एक संत से कभी यह विवरण सुना था। साधनास्थल चुनने में इस सुने हुए विवरण ने उनकी सहायता की।” भगवान नीलकण्ठ के विशद वक्ष में भगवती का प्रतिबिंब अर्थात् शक्ति समन्वित पुरुष अर्धनारीश्वर की सौम्य क्रीड़ास्थली अधोगति ने व्यास, पार्वती सरिताओं की मध्यभूमि त्रिकोण सिद्ध क्षेत्र कुलाँत में भी सुदूर हिमक्षेत्र में पार्वती के उद्गम स्थान को उपयुक्त माना। चारों ओर हिश्वेत शिखर, सत्वगुण मानो सर्वत्र साकार हो रहा था। पार्वती के उद्गम का अल्प प्रवाह और उसे अंकभाल देता ऊष्णेदक निर्झर- भगवान उमा महेश्वर का व्यक्त विग्रह प्रकृति में वह जल रूप हैं योग सिद्ध तपस्वी अघोरनाथ को आहार की अल्पतम अपेक्षा ही थी। जब जरूरत हो, वे कुछ नीचे आकर वन्य कंद मूल सहज प्राप्त कर लेते थे। एक ही इच्छा थी कि विश्व के प्राणी जरा-मृत्यु शोक रोग से परित्राण प्राप्त करे। शरीर की स्मृति नहीं। क्षुधा-पिपासा की चिंताएँ बहुत पीछे छूट चुकी। काटे में कौपीन, और फटे कानों में मुद्र, जलपात्र रखना तक जिस तापस ने, त्याग दिया हे, वह बड़ी सी झोली में औषधियां, खरल, तथा अनेक वस्तुओं का परिग्रह लिए इस एकांत प्रदेश में आ बैठा था। एक ही व्यथा है उसे” प्राणियों की व्यथा दूर हों।” “कहाँ त्रुटि है? क्या भूल हो रही है मुझसे?” अघोरनाथ लगे है। पूरे छः महीने से । आज शच्चन्द्रिका का भी योग आ गया किंतु रसेश्वर अनुविद्ध क्यों नहीं होता? पारद मूर्छित हो जाता है। गुटिका बन जाती है। ताप सहिष्णु भी हो गया है। सब हुआ, किंतु वह अनुविद्ध नहीं हो रहा है। परीक्षण-प्रक्रियाओं में पकड़ कर वह पुनः सक्रिय सप्राण हो उठता है। उन्होंने आसन स्थिर किया और गुरुदेव के चरण कमलों में चित को एकाग्र करके वे ध्यानस्थ हो गए। शुभ्र ज्योत्सना घनीभूत होकर जैसे शरीर बन गई हो। धरा का स्पर्श गिना किए भी सम्मुख सुप्रसन्न स्थित वह भव्य तपोमय श्री विग्रह। पिंगल जटा भार से विद्युत्माला का भ्रम सहज हो सकता था। कर्ण में मुद्रा होने से अनुमान होता था कि वे देवता नहीं, कोई योगीश्वर है। चाहते हुए भी अघोरनाथ नेत्र पलक खोलने में समर्थ नहीं हो रहे थे। उनका कोई अंग किंचित गति करने को शक्ति से भी रहित जान पड़ा, किंतु नेत्र पलक खुले हो इस प्रकार प्रत्यक्ष दर्शन वे उन तेलोमय का, अपनी गुरुसत्ता का कर रहे थे। मन की मन चरण वंदन कर लिया उन्होंने। “वत्स! किसी समय यही इच्छा इस गोरखनाथ की भी हुई थी।” अत्यंत स्वेहत्रिग्ध, किंतु तनिक खिल स्वर था-” गोरख मिट जाता । अपने अमरत्व की अभिलाषा कहाँ की थी मैंने। मुझे तो रससिद्ध हो जाने के पश्चात् पता लगा कि काल को कृष्ण यवनिका में मेरे लिए अमरता का यह छिद्र भी भगवती महामाया का पूर्व संकल्पित विधान ही था। उनका संकल्प अमोघ है। उनके लीला विलास में व्याघात उपस्थित किया नहीं जा सकता । मैं समझाता था, काल के पदों को रुद्ध करने का साधन मुझे मिल गया है किंतु भ्रम सिद्ध हुआ मेरा। मुझे भविष्य के साधकों को संरक्षण एवं प्रकाश प्रदान करने के लिए महामाया ने सुरक्षित मात्र किया है।” “धन्य हो गया जीवन। जन्म-जन्म को साधना सफल हुई। साक्षात शिव स्वरूप गुरु गोरखनाथ ने दर्शन देकर कृतार्थ किया मुझे।” अघोरनाथ का देह भले निष्कम्प हो, उनका चित विह्वल हो रहा था। अनंत भावनाओं को उद्वेग अंतः करण में एक साथ उठ रहा था। “ भगवान महाकाल की गति अवरुद्ध नहीं हुआ करती। उनकी गति को रुद्ध करने के साधन है, किंतु वे महामाया को इच्छा से हील सक्रिय होते हैं “गुरु कह रहे थे।” काल के प्रवाह में वे साधन किन्हीं’-किन्हीं को सुरक्षित कर देते हैं।, किसी उद्देश्य विशेष से।” “ अच्छा समझ लो, तुम सफल हो ही जाते हो।” अघोरनाथ के अंतर्द्वंद्व को लक्षित करके गुरु ने कहा। “जरा मृत्यु तथा व्याधि का ही निवारण तो कर सकोगे। भय-शोक, लोभ मोह तो मनुष्य के मन से उत्पन्न होते हैं ये दुःख तो उसके मन से पैदा होते हैं। अमर होने मात्र से मनुष्य सुखी कैसे हो जाएगा? तुम्हें लगता नहीं है कि मृत्यु से अभय होकर अजितेन्द्रिय प्राणी अधिक तमोगुणी, विषय लोलुप, अधर्माचारी होकर परिणाम स्वरूप अनंत काल तक अशाँत , क्षुब्ध और दुःखी रहने लगेगा। “ “ मानव का कल्याण चाहते हो तो उसके विचारों में परिवर्तन करो। उसके शरीर का नहीं मन का कायाकल्प करो। उसे जीवन जीने की कला सिखाओ।” “क्षमा करो प्रभु ! “ अचानक अघोरनाथ के नेत्र खुल गए।वहाँ कोई दृश्य नहीं था। किंतु उस हिम प्रदेश में भी उनका संपूर्ण शरीर पसीने से नहीं उठा था। उसी समय उन्होंने अपनी झोली का संपूर्ण संग्रह पार्वती के प्रवाह में विसर्जित कर दिया और चले मानव के मन का भावकल्प करने का नया संकल्प लेकर।


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