एक सशक्त वैकल्पिक उपचार पद्धति-यज्ञोपैथी

March 1994

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

यज्ञ चिकित्सा इतनी सरल और उपयोगी है कि उसके आधार पर मारक और पोषक दोनों ही तत्वों को शरीर में आसानी से पहुँचाया जा सकता है। यों यज्ञ विज्ञान के अनेक पक्ष हैं इनमें एक रोगोपचार भी है। मानसिक और आत्मिक स्वास्थ्य को अभिवृद्धि के साथ-साथ शारीरिक रोगों के निवारण में भी उससे ठोस सहायता है। औषधि उपचार में शरीर के विभिन्न अवयवों तक पदार्थ को पहुँचाने का माध्यम रक्त है। रक्त यदि दूषित निर्बल हो तो यह प्रेषित उपचार पदार्थ ठीक तरह परिवहन नहीं कर सकता। फिर एक कठिनाई और भी हैं कि रक्त में रहने वाले स्वास्थ्य प्रहरी श्वेत कण किसी विजातीय पदार्थ को सहन नहीं करते उससे लड़ने - मरने को उधार खाये बैठे रहते हैं। औषधि जब तक कम रोग कीटाणुओं पर आक्रमण होने इन स्वास्थ्य प्रहरियों से ही महाभारत करना पड़ता है। बीमारी पर आक्रमण होने पर प्रयुक्त औषधि और स्वास्थ्य कण ही आपस में भीड़ जाते हैं। और यह नया विग्रह और खड़ा हो जाता है पेट की पाचन क्रिया रक्त में उन्हीं पदार्थों को सम्मिलित होने देती है जो शरीर संरचना के साथ तालमेल खाते हैं। इसके अतिरिक्त जो बच जाता है। वह विजातीय कहा जाता है। और उसे कूल, मूत्र , स्वेद, कफ आदि के द्वारा निकाल बाहर किया जाता रहता है। इस पद्धति को देखते हुए यह भी अति जटिल कार्य है। कि औषधियों में रहने वाले रसायन किस प्रकार विषाणुओं तक पहुँचे और किस तरह वहाँ जाकर अपना निवारक उपक्रम आरंभ करके उसे सफलता के स्तर तक पहुँचायें। इस कठिनाई का हल यज्ञ प्रक्रिया को चिकित्सा प्रयोजन के लिए प्रयुक्त करने पर सहज की संभव हो जाता है। औषधि को पेट में पंच कर रक्त में मिलकर श्वेत प्रहरियों से लड़ने के उपराँत पीड़ित स्थान तक पहुँचने की लंबी मंजिल पारे नहीं करती पड़ती। वरन् मंजिल पारे नहीं करती पड़ती । वरन् इस सारे जंजाल से बचकर एक नया ही रास्ता उसे मिल जाता है। शरीर शास्त्र के विद्यार्थी जानते हैं कि मात्र रक्त ही जीव कोशों की खुराक पूरी नहीं करता वरन् आहार साँस द्वारा भी शरीर में पहुँचाता है और वह इतना महत्वपूर्ण होता है कि उसकी गरिमा मुँह द्वारा खाये और पेट द्वारा पचाये गये आहार की तुलना में किसी भी प्रकार कम नहीं होती । रक्त को भांति प्राणवायु भी आक्सीजन के रूप में समस्त शरीर में परिभ्रमण करती हैं । पोषण पहुँचाने और गंदगी को बुहारने में उसका बहुत बड़ा हाथ है। दृश्य रूप से जो कार्य पाचन और रक्ताभिषरण पद्धति से होता है। अदृश्य रूप से वही सारा कार्य श्वासोच्छवास क्रिया द्वारा भी संपन्न होता है। यह दोनों ही पद्धतियां मिलकर दो पहियों की गाड़ी की तरह जीवन रथ को गतिशील बनाये रहती है। स्वास्थ्य सुधार और रोग निवारण को आवश्यकता को पूरा करने के लिये श्वासोच्छवास प्रक्रिया को अवलंबन बनाने पर उससे कही अधिक लाभ उठाया जा सकता है। जो रक्ताभिषरण पद्धति से आमतौर पर काम में जाया जाता है। यह कार्य यज्ञ-चिकित्सा द्वारा संपन्न होता है। इस माध्यम से न केवल विषाणुओं से सफलता पूर्वक संघर्ष संभव हो सकता है। वरन् पोषण की आवश्यकता भी पूरी हो सकती है। यज्ञ द्वारा वायु भूत बनाई गई औषधियां सूक्ष्मता की दृष्टि से इस स्तर पर पहुँच सकती है। कि विषाणुओं से भी सूक्ष्म होने की विशेषता के कारण उन पर आक्रमण करके सरलता पूर्वक परास्त कर सकें। पाचन, परिवहन और प्रहरियों से उलझने जैसे झंझट इस मार्ग में नहीं हैं और विलय का अवसर भी नहीं है। साँस द्वारा अभीष्ट पदार्थों को शरीर के अंतरंग किसी भी अंग अवयव तक आसानी से पहुँचाया जा सकता है। इस चिकित्सा सिद्धान्त के अनुसार विषाणुओं का मारण जितना आवश्यक समझ जाता है उससे कही अधिक स्वस्थ कोशिकाओं में समर्थता की अभिवृद्धि आवश्यक हैं सामान्यतया रोगोपचार का एक पक्ष जहां विषाणुओं को मारना होता है। वही दुर्बलता को दूर कर सबलता का परिपोषण करना भी होता है। आधुनिक चिकित्सा पद्धति का सारा ध्यान संहार उपचार पर ही केन्द्रित रहते हैं यह एकाँगीपन जब तक दूर नहीं किया जायगा तब तक चिकित्सा प्रक्रिया अधूरी ही बनी रहेगी। यज्ञ चिकित्सा में ये दोनों ही विशेषताएँ विद्यमान है। उसके माध्यम से उपयोगी रासायनिक पदार्थों को इतना सूक्ष्म बना दिया जाता है। कि इस कारण वे अपने-अपने उपयुक्त प्रयोजनों को पूरा कर सकें। अणुओं में पाया जाने वाला चुंबकत्व अपनी आवश्यकताएँ पूरी करने के लिये वातावरण में से अभीष्ट मात्रा अनायास ही ग्रहण करता रहता है। यज्ञ प्रक्रिया से सहारे वायु समस्त भीतरी अवयवों में अनायास हो जा पहुँचते और स्थानीय जीवाणुओं को अनावश्यकता पूरी करते हैं पेड़ आकाश में परिभ्रमण रुकने वाले बादलों को अपनी ओर खीचते हैं। पेड़ आकाश में परिभ्रमण करने वाले बादलों को अपनी ओर खीचते हैं घास की पत्तियां हवा में रहते वाले जलाँश को अपने ऊपर ओस के रूप में बरसा लेती हैं सशक्त वायु भूत रसायन जब शरीर के भीतर पहुंचता है। तो वहाँ की आवश्यकतानुसार सहज ही पूरी होने लगती है। प्रकृति एक ओर ते वस्तुओं का परिवर्तन करने के लिये विनाश व्यवस्था चलाती हैं और दूसरी ओर अनावश्यक क्षरण रोकने और क्षतिपूर्ति के साधन भी जुटाती है। इसी संतुलन के आधार पर सृष्टि क्रम चल रहा हैं अन्यथा विनाश या विकास में से एक के अत्यधिक उग्र हो जाने पर एकाँगी स्थिति बन जाती और असंतुलन की अराजकता दिखाई देती है रोग कीटक जिस प्रकार स्वस्थ जीवाणुओं पर आक्रमण करते हैं उसी प्रकार उन्हें भी नियंत्रित करने के लिये वातावरण में आवश्यक तत्व बने रहते हैं। यज्ञ द्वारा उत्पन्न विशेष गैस के सूक्ष्माणुओं में यह विशेषता रहते हैं कि वे रोग कीटकों पर नभ सेना की तरह बरस पड़े । रक्त के श्वेत कण जहां भूमि गत लड़ाई लड़ते और आमने- सामने की गुत्थम-गुत्थ करते हैं वहाँ यज्ञ की वायु नभ मार्ग से बम गिराने की तरह शत्रु सेना को निरस्त करती है। यह उपचार प्राकृतिक परंपरा के अनुसार स्वतः ही संपन्न होता है। मनुष्यकृत उपायों का इसमें न्यूनतम भाग ही रहती है जीवाणुओं की दुर्बलता के अंतराल में उस पुकार रहती है परिपोषण प्राप्त करने की । बच्चा रोकर माता का ध्यान आकर्षित करता है और उससे अपनी क्षुधा के लिये पयपान का अनुदान प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार दुर्बलता ग्रस्त जीवाणु अपने लिये समर्थ परिपोषण की याचना करते हैं इसकी पूर्ति वे रासायनिक पदार्थ करते हैं जो यज्ञ प्रक्रिया द्वारा वायु भूत होकर इस प्रकार सफाई और परिपोषण के ध्वंस और निमार्ण के दोनों ही प्रयोजन यज्ञ वायु के द्वारा पूरे होने लगते हैं और अस्वस्थता का बहुत हद तक समाधान हो जाता है। सूक्ष्म जगत की क्षमताएँ विलक्षण है लाख हस्त कोशल अपनाया जाय अथवा कैसे भी यंत्र की सहायता हल जाय पर फलों से शहद प्राप्त नहीं किया जा सकता किंतु वही काम मधुमक्खी अपनी विशिष्ट क्षमता द्वारा बड़ी आसानी से कर लेती है। जीवाणुओं में यह विशेषता है कि यदि आसपास के वातावरण एवं संरक्षण की आवश्यक सामग्री स्वयमेव खींच लेते हैं सामान्य वायु जो साँस द्वारा ग्रहण की जाती है उसमें सामान्य जीवन संचार बनाये रहने के कितने ही पदार्थ रहते हैं रोगी की आवश्यकताएँ विशेष प्रकार की होती है उसे विशेष मात्रा में विशेष पदार्थ चाहिए इनकी पूर्ति यदि विशिष्ट धूम द्वारा यज्ञविधि से को जो सके तो रोगोपचार का मूल उद्देश्य पूरा हो जाता हे इसे भैषज्य यज्ञ कहते हैं। विष कीटकों को मारने के लिये अनेकानेक- विशेषताओं से युक्त औषधियाँ निरंतर बनती और बढ़ती चली जा रही है यह सभी ऐसी है जो प्रत्यक्ष स्पर्श के उपराँत ही अपना प्रभाव आरंभ करती है इससे भी सरल तरीका यह है कि औषधियां पदार्थों को वायुभूत बनाकर वहाँ पहुँचा दिया जाय जहां संशोधन की आवश्यकता है। संभवतः भारतीय परंपरा में मृत शरीर को जलाने के पीछे यह दृष्टि भी रही होगी कि निर्जीव काया में उत्पन्न होने वाली सड़न से वातावरण को विषाक्त होने से रोकने के लिए उसे अग्नि संस्कार द्वारा समाप्त किया जाय। सामान्य स्वास्थ्य संवर्धन के लिये यज्ञाग्नि द्वारा वायुभूत बनाये गए पदार्थों का सेवन, मुँह द्वारा खाये गये और पेट द्वारा पचाये गये पौष्टिक पदार्थों की तुलना में कही अधिक लाभदायक सिद्ध होता है। इस प्रकार बीमारियों से लड़ने वाली जीवन शक्ति को बढ़ाने तथा विषाणुओं के आक्रमण को निरस्त करने में भी यज्ञ- अग्निहोत्र का सफल उपयोग हों सकता है। स्वास्थ्य रक्षा के अतिरिक्त बल बढ़ाने और व्यक्तित्व को विकसित करने में समर्थ विचारणाओं तथा भावनाओं का संवर्धन इतना बड़ा लाभ है जिसे स्वास्थ्य रक्षा से हजार गुना मूल्यवान और महत्वपूर्ण कहा जा सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118