शाँत रातों को बरसते हैं वहाँ, पत्थर

March 1994

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यह दृश्य जगत एक धुँधली छाया की तरह हैं इसकी मूलभूत सत्ता अदृश्य जगत में सन्निहित है छाया को समझने के लिए मेल सत्त को समझना अनिवार्य होता है इसके उपराँत प्रतिबिंब संबंधी ज्ञान अर्जित कर लेना कठिन नहीं रह जाता। आये दिन इस भौतिक जगत में कितने ही प्रकार की घटनाएँ घटती रहती है। इनमें से कई सहज लौकिक क्रिया-प्रतिक्रिया की परिणति होती है, जग कि अनेक परोक्ष संसार से संबंध रखती है। लौकिक घटनाएं तो आसानी से ज्ञेय होती हे, पर अलौकिक घटनाक्रमों के सूत्र संकेत समझ पाने में हमारी बुद्धि असहाय बनी रहती है। उसकी असमर्थता तब और बढ़ जाती है, जग मस्तिष्क को भ्रमाने वाले प्रकरण सामने आते हैं। ऐसे ही एक प्रसंग की चर्चा विलियम जी0 रॉल ने अपनी पुस्तक “दि पोल्टरंगाइस्ट” में की है। वे लिखते हैं कि सन् 1927 में एक बार मूर्द्धन्य लेखक और प्रकृति विद् इवान सैडरसन ने रबड़ की खेती देचाने सुमात्रा (इंडोनेशिया) की यात्रा की। जब वहाँ पहुँचे, तब धुंधलका घिर चुका था। स्नानादि से निवृत्त होने के उपराँत अतिथि और सभी रात्रि भोजन के पश्चात् सब बरामदे में आये। अभी वहाँ बैठे हुए कुछ ही क्षण बीते होंगे कि अचानक बरामदे की छत पर पत्थरों की बौछार होने लगी। सैडरसन चूँकि उस अतिथि के यहाँ पहली बार गये थे, अतः उक्त घटना से वे हतप्रभ रह गये। बाद में मेलबान ने बताया कि यह यहाँ की सामान्य बात है। वे इसके अभ्यस्त हो चुके है ओर निर्भय भी। उनका कहना था कि रात में यहाँ अक्सर यह घटना घटती देखी जाती है। बौछार प्रायः उन्हीं रातों को होती है, आमतौर पर शाँत होती है। आँधी, तूफान वाली रातों में यह अनहोनी नहीं होती। गहन अँधेरा अथवा चाँदनी वाली रात्रि से भी इसका कोई संबंध नहीं। यह कौतुक खिली चाँदनी अथवा सघन तमिस्रा चाहे किसी में भी हो सकता है। इतना बताने के बाद उन्होंने सैडरसन को एक सलाह दी, कहा-आप इन पत्थरों को बटोर कर उन्हें चिह्नित कर दें’ पहचान के लिए उन पर निशान लगा लें और फिर उन्हें घर के बाहर, वाटिका में अथवा सघन वृक्षावलियों वाले रबड़ के खेतों में कही भी फेंक दें, वे पुनः आपे पास वापस आ जायेंगे। सैडरसन को यह बात कुछ अविश्वसनीय-सी लगी। अविश्वास का कारण भी मौजूद था। उनके मस्तिष्क में यह बात किसी कदर नहीं बैठ पा रही थी कि रबड़ के सघन खेतों में फेंके गये छोटे पत्थरों को कोई किस भाँति ढूंढ़ कर वापस कर सकता है, सो उन्होंने संदेह प्रकट किया, तो मित्र ने परीक्षा कर लेने का परामर्श दिया और पेन्सिल, स्याही एवं कुछ रंग सामने रख दिये। सभी ने मिल कर उन पत्थरों को एकत्रित किया और उन पर तरह तरह की डिजाइन बनाने लगे। कुछ पर नंबर डाल दिये, कुछ को रंग डाला। यह कार्य पूरा होने के उपराँत सभी ने मिलकर उन्हें फेंकना आरंभ किया। कुछ पत्थर दूर रबड़ के घने खेतों में फेंके गये, कुछ को मकान के बाहर थोड़ी ही दूरी पर डाल दिया गया, कुछ उद्यान में ऐसे ही पटक दिये गये। सैडरसन के आश्चर्य का तब ठिकाना न रहा, जग कुछ ही पल में अधिकाँश पत्थर बरामदे की छत पर बरस पड़े। उनने जाकर देखा, तो पाया कि छत पर जिन पत्थरों की बरसात हुई थी, से सभी उनके द्वारा फेंके गये चिह्नित प्रस्तर टुकड़े ही थे। उस रात घटना की सूक्ष्मता पूर्वक जाँच करने के उपराँत सैण्डरसन ने अंत में कहा कि यह कोई मानवीय प्रयास नहीं हो सकता। यह लोकोत्तर सत्ता का स्पष्ट प्रमाण है, किन्तु उसकी चेष्टा के पीछे छिपे रहस्यों को स्थूल जाँच पड़तालों द्वारा नहीं जाना जा सकता। इसके लिए स्वयं को सूक्ष्म बनाना और सूक्ष्म लोक में गति रखने वाला सामर्थ्य अर्जित करना अपरिहार्य है, तभी ऐसी अद्भुतताओं का सही कारण ढूंढ़ा और समाधान पाया जा सकता है। किंतु देखा गया है कि ऐसे प्रसंगों में हम प्रायः स्थूल में उलझ कर रह जाते हैं और उसी में उसके वास्तविक कारण की तलाश करते रहते हैं। भूल यहां हो जाती है, अतः कठिन प्रयास के बावजूद प्रयत्न निष्फल रह जाते हैं, जबकि स्थूल का निमित्त सूक्ष्म है ओर व्यक्त क्रियाविधि अव्यक्त पर आधारित है। गोचर सत्ता को समझने के लिए अगोचर अस्तित्व को जानना जरूरी है। आज व्यतिक्रम यह हो गया है कि हम पहले दृश्य को समझना चाहते हैं, फिर अदृश्य की ओर आगे बढ़ते हैं। सारी गड़बड़ इस उलटबाँसी के कारण ही है। होना यह चाहिए कि पहले परोक्ष का अन्वेषण किया जाय तत्पश्चात् प्रत्यक्ष को समझने में कठिनाई हो नहीं सकती।


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