मन चित्त से अलग नहीं (Kahani)

March 1994

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बोधिधर्म जब चीन पहुँचे तो उन की ख्याति सारे चीन में फैल गई। जब राजा को मालूम हुआ कि उसके राज्य में परम ज्ञानी संत का आगमन हुआ है तो वह भी दर्शन लाभ पाने बोधिधर्म के पास पहुँचा। राजा का बड़ा स्वागत सत्कार किया। राजा ने बोधिधर्म को मन की बात बताई कि उसका मन अशाँत रहता है। कृपया बताएँ कि यह कैसे शाँत होगा। बोधिधर्म ने कहा-”अबकी बार आप जब भी आवें अपने मन को भी साथ लेते आयें। कोई उपाय सोचेंगे। “राजा बड़ा हैरान हुआ कि बड़ा अजीब संत है। मन लाने के लिए जायगा। किंतु क्या करता, संत की आज्ञा। बताए गये समय पर राजा पहुंचा। बोधिधर्म ने पूछा! “आ गये। मन को ले आये।” राजा ने कहा मन ऐसी वस्तु तो नहीं है जो मुझ से अलग होती।बोधिधर्म ने कहा भला एक बात जो तय हुई कि मल तुम में ही है। बोधिधर्म ने कहा तो फिर एकाँत में शांतचित्त से बैठ जाएँ और आंखें बंद कर लें और खोजें कि मन कहाँ है और जब उसे ढूँढ़ शाँत चित्त से बैठ गया और आँख बंद करके अंदर मन को लगा ढूंढ़ने। अंदर झाँकता ही गया डूबता ही गया ‘उसने ध्यान से देखा कि मन नाम की कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो ढूँढ़ी जा सके। उसकी खोज बेतुकी है। उसे समझ आई कि जो वस्तु है ही नहीं उसके बारे अगर क्रियान्वित न किया जाय तो कोई झंझट ही नहीं। राजा ने बोधिधर्म के सम्मुख मस्तक नवाया और कहा कि मुझे समझ आ गई कि मेरे विचार करने की शैली ही मुझे बेचैन बनाए हुए थी। बोधिधर्म ने कहा जब भी तुम्हें बेचैनी हो तब विचारों को उलटकर विचार करने की आदत बना लें। वही सारी ऊर्जा एक दृष्टि, एक सोच, एक विचार बन जायगी और बेचैनी तुरंत शाँत हो जायगी।


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