सैनिक जो साधु बन गया

March 1994

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‘सावधान! हवाई जहाज के लाउडस्पीकर से आदेश का स्वर आया। यह अंतिम सूचना थी। वह पहिले से ही द्वार के सम्मुख खड़ा था और द्वार खोला जा चुका था उसकी पीठ पर हवाई छतरी बँधी थी रात्रि के प्रगाढ़ अंधकार में नीचे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। केवल आकाश में दो चार तारे कभी-कभी चमक जाते थे । मेघ हल्के थे वर्षा की कोई संभावना नहीं थी। बादलों के होने से जो अंधकार बढ़ा था उसने आश्वासन ही दिया कि शत्रु छतरी से कूदने वाले को देख नहीं सकेगा। हवाई जहाज बहुत ऊपर चक्कर लगा रहा था। सहसा वह नीचे चील की भाँति उतरा एक हजार दो सौ फीट, एक सो सत्रह कूद जाओ ! आदेश सभी अंग्रेजी में दिए जाते थे। यह आदेश भी अंग्रेजी में ही था। एक काली छाया हवाई जहाज से तत्काल नीचे गिरी और द्वारा बंद हो गया। हवाई जहाज फिर ऊपर उठ गया वह मुड़ा और पूरी गति से जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया। शत्रु के प्रदेश से यथा शीघ्र उसे निकल जाना चाहिए । जिसे नीचे गिराया गया, उसकी खोज खबर लेना न उसका कर्तव्य था और न ऐसा करना इस समय संभव ही था। ‘एक दो-तीन-दस, ग्यारह-सत्तर,इकहत्तर, गिरने वाला पत्थर के समान ऊपर से गिर रहा था किंतु वह अभ्यस्त था। बिना किसी घबराहट के वह गिनता जा रहा था। उसे पता था कि उसे जब गिराया गया, उसका हवाई जहाज पृथ्वी से एक हजार दो सो फीट ऊपर था। ‘एक सौ पंद्रह , एक सौ सोलह, एक सौ सत्रह ! संख्या जो उसे बताई गई थी, पूरी गिनी उसने और तब उसके हाथों ने पीठ पर बंधी छतरी की रस्सी खींच दी। पैराशूट एक झटके से खुल गया। अब वायु में तैरता हुआ धीरे-धीरे नीचे आ रहा था। सहसा वायु का वेग प्रबल हो गया। पैराशूट एक दिशा में उड़ चला, किंतु वह बहुत दूर नहीं जा सका था। उसके सहारे उतरने वालों के पैरों को किसी वृक्ष की ऊपरी टहनियों का स्पर्श हुआ। अगले क्षणों में एक शाखा में पैर उलझाने में वह सफल हो गया। बहुत कड़ा झटका लगा। मुख, हाथ, पीठ शाखाओं पर रगड़ लगी। कुछ चोट तथा कुछ खरोंचें भी आयी। शरीर की नस-नस फड़फड़ा उठी, लेकिन अंत में पैराशूट उलट गया। वह डाल परस्पर बैठ गया और उसने रस्सियाँ खोलकर पैराशूट को पीठ पर से उतार लिया वह कहाँ है, कुछ पता नहीं उसे चारों ओर घोर वन है। वन्य पशुओं की चिंघाड़ रह-रह कर गूंज रही है। जो मान चित्र उसे दिया गया था, अब वह बड़ी कठिनाई से काम देगा क्योंकि हवा उसे अपने लक्ष्य से कितना हटा लायी है कि स्थान पर वह आ गया हैं यह जानने का कोई उपाय उसके पास नहीं। रात्रि के इस अंधकार में भूमि पर उतरना आपत्ति को आमंत्रण देना था। प्रकाश वह थोड़ा भी कर नहीं सकता था। इससे शत्रु कही समीप हुआ तो वह पता पा जाएगा। जब तक झुटपुटा नहीं हुआ वह चुपचाप उसी डाल पर बैठा रहा। मच्छरों ने उसका मुख लाल बना दिया। शीतल वायु के झकोरे यद्यपि शरीर को अकड़ाए दे रहे थे, उसे अच्छे लगने, क्योंकि कुछ क्षण को उनके कारण मच्छरों से उसे छुटकारा मिल जाता था। वायु की दुर्गंध बतलाती थी कि समीप ही कहे दलदल है। झुरमुट के प्रारंभ में ही नीचे उतरा। सबसे पहले उसने कमर से बड़ा चाकू निकालकर भूमि में गड्ढा बनाया। गीली मिट्टी होने से थोड़े ही परिश्रम में गड्ढा इतना बन गया कि उसमें पैराशूट रखकर ऊपर से मिट्टी के ऊपर सुखे पत्ते इधर, उधर से लाकर बिखेर दिये। अब वह निश्चित हुआ कि पैराशूट या ताजे गड्ढे को देखकर शत्रु को कोई संदेह होने का भय नहीं रहा। “लेकिन जिस वृक्ष पर वह उतरा था, उसकी टहनियां और पत्ते टूटे थे। उनको हटा देना चाहिए, इधर ध्यान हो नहीं गया था। “जापानी वन निरीक्षकों का ध्यान उस वृक्ष के आस’पास खोज की और पैराशूट को भूमि में से खोद निकाला। इसके बाद उनके सैनिकों का एक पूरा समूह वन में फैल गया उसके लिए छिपना संभव नहीं रह गया और पिस्तौल का उपयोग करने से कोई लाभ नहीं था। विवश होकर वह उनके सामने आ गया। “हम इसे गोली नहीं मार सकते वह भारतीय है। उसे नेताजी को देना होगा। “जापानी अधिकारी परस्पर विवाद करने में लगे थे। एक अंग्रेजों के जासूस को मार देना चाहिए, इस विषय में दो मत नहीं था उनमें किंतु नेताजी ने बहुत कठोर रुख बना लिया था, भारतीयों के साथ किए जाने वाले व्यवहार को लेकर। बात लगभग झगड़े की सीमा तक पहुँच चुकी थी। नेता जी अड़े थे-प्रत्येक भारतीय बंदी उन्हें दे किया जाय। उसके साथ क्या हो, यह निर्णय वे करेंगे।, “यह हमारे सैनिक अधिकारों में हस्तक्षेप हैं।”जापानी अधिकारियों को ऐसा प्रतीत होता था और वे मन में चिढ़ते थे, किंतु प्रत्यक्ष विरोध करना उनके लिए संभव नहीं था उन्हें टोकियो से आदेश मिला था “सुभाषचन्द्र वसु का सम्मान सम्राट के प्रतिनिधि की भाँति किया जाना चाहिए।” कल रात्रि में कोई अंग्रेजी सेना का विमान वन में जासूस उतार गया। यह पता नहीं है जासूस अकेला ही आया है या उसके कुछ और साथी है। विमान का पीछा नहीं किया जा सका, किंतु वन में खोज करने वाले सैनिक एक भारतीय को पकड़कर ले आये थे। भूमि में गढ़ा हुआ पैराशूट मिल गया, जिससे वह उतरा था। अब बिना कठोर व्यवहार किए यह कुछ बताने वाला नहीं। कुछ सैनिक अधिकारी उसे गोली मार देने के पक्ष में थे। किंतु नेता जी का संदेश आ गया है। उन्होंने कहलाया है उससे पूछने का काम मुझ पर छोड़ दो।’ यह संदेश टोकियो भेजा गया। “हम यदि उसे रोकते हैं। बात टोकियो तक पहुँच सकती है। “प्रधान सैनिक अधिकारी ने गंभीर चेतावनी दी और तब दूसरा उपाय ही इसे छोड़कर नहीं रह गया कि उस भारतीय को चुपचाप नेता जी के समीप भेज दिया जाय। इस बीच उसे एक गंदे कमरे में हथकड़ी डालकर बंद कर दिया गया था। मच्छरों को भगाने के लिए हाथ भी खुले नहीं थे। लेकिन विपत्ति इतनी ही कहाँ थी। चूहों का एक झुण्ड आया। उसने उसे पहले दूर से देखा, सूँघा और फिर वे निकट आ गये। जब उनमें से एक ने उसकी गर्दन पर मुँह लगाया तो वह चीख पड़ा “हे भगवान।” लेकिन थोड़े ही क्षणों में वह रुआंसा हो गया- उसके जैसे नास्तिक पामर की पुकार भगवान क्यों सुनने लगे। जीवन में शिक्षाकाल से अब तक उसने कभी ईश्वर की सत्ता स्वीकार नहीं की थी। यो वह पहले संयम पसंद करता था किंतु जासूसी में अनेक बार शराबियों -जुआरियों के बीच रहना पड़ा । धीरे-धीरे उसमें अनेकों दुर्व्यसन आ गये। नास्तिक था ही परलोक को चिता पागलपन लगती थी। अब तक किये गये अपने अनेक उपक्रमों की बाद कर वह रोने लगा समूचे अंतः करण से वह पुकार उठा-”हे भगवान!” और बिना एक पर को देर लगाए भगवान ने उसकी पुकार सुन ली। घंटे भी वह देर करता तो चूहे उसे नोंच-नोंच कर खा लेते। उन्होंने गर्दन,पैर और कंधे पर केवल तीन घाव किये कि कोठरी का द्वार खुल गया उसे वह जापानी सैनिक भी भगवान का दूत ही लगा। वह गोली भी मार देता -तो भी वह उसे ऐसा ही मानता। किंतु वह उसे मोटर में बिठाकर नेताजी के समीप ले गया। आज वह अनुभव कर रहा था कि भगवान है और वह उसे जैसे नास्तिक को भी पुकार सुनता है। उसने बचा लिया। अब यह जीवन उसका, उसी के स्मरण में अब जीना या मरना है। उसने नेताजी से कहा-’अब शस्त्र उठाकर किसी ओर से किसी को भी हत्या करने की मेरी इच्छा नहीं है। भगवान है तो पूरी पृथ्वी उसकी अपनी है। अतः मैं युद्ध में अब किसी ओर से नहीं लड़ूंगा । “तुम पर प्रभु की कृपा है तुम सच्चे अर्थों में भगवद् भक्त को। भले यह भक्ति तुम्हें इसी क्षण मिली है। “तेरा जी का स्वर भी भर आया था “हम तुम पर कोई प्रतिबंध लगाने को धृष्टता नहीं कर सकते। तुम चाहे जहाँ जाने को स्वतंत्र हो। हम केवल यही कहेंगे कि हमारा आतिथ्य स्वीकार कर लो आज के दिन।” उससे कुछ पूछा नहीं गया। उसने स्वयं जो बता दिया, वही नोट कर लिया गया हथकड़ियां तो नेताजी ने पहुँचते ही खुलवा दी थी। उन्होंने जिस श्रद्धा से उसे भोजन कराया इसके स्मरण मात्र से वह विभोर हो उठा। उनकी यह श्रद्धा उसे इसी कारण मिली क्योंकि अब वह भगवान का था। भगवान ! भगवान ! कहकर उसका गला रुँध गया। अगले दिन वह साधु हो गया उसको जीवन ही जीवंत शिक्षण बना बरमा को उसने अपना कार्य क्षेत्र बनाया। उसके जीवन के प्रतिपल में एक ही मधुर गूँज उठने लगी” सुहद सर्व भूतमान । “ नेता जी ने अपने पत्रों में शिशिरदास नाम के इस व्यक्ति की भावनापूर्ण चर्चा की है।


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