वैदिक वांग्मय में सूर्यदेव की अभ्यर्थना

June 1993

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वैदिक वाङ्मय सूर्यदेवता के महात्म्य, उनकी विश्व संचालन में चेतनात्मक भूमिका तथा सूर्योपासना के लाभों के विवरणों से भरा पड़ा है। वेद सूर्य को विश्व में जीवन और गति के महान प्रेरक के रूप में अपनी पृथ्वी को अपने गर्भ से उत्पन्न करने वाले सृजेता के रूप में तथा समग्र संसार की चलायमान चैतन्य वस्तुओं में प्रमुख ग्रहाधिपति उन्हें मानता है। न केवल सूर्य वैदिक ऋषि की दृष्टि में चराचर विश्व का संचालक है, वह घटी, पल, अहोरात्र, मास व ऋतु आदि समय का के महात्म्य, उनकी विश्व संचालन में चेतनात्मक भूमिका तथा सूर्योपासना के लाभों के विवरणों से भरा पड़ा है। वेद सूर्य को विश्व में जीवन और गति के महान प्रेरक के रूप में अपनी पृथ्वी को अपने गर्भ से उत्पन्न करने वाले सृजेता के रूप में तथा समग्र संसार की चलायमान चैतन्य वस्तुओं में प्रमुख ग्रहाधिपति उन्हें मानता है। न केवल सूर्य वैदिक ऋषि की दृष्टि में चराचर विश्व का संचालक है, वह घटी, पल, अहोरात्र, मास व ऋतु आदि समय का प्रवर्तक भी है। ऋग्वेद में सूर्य की व्याख्या इस प्रकार है-

“सरति गच्छति वा सुरयति प्रेरयति वात तत्तद् व्यापारेषु कृत्स्नं जगदिति सूर्यः। यद्धा सुष्ठ ईर्यते प्रकाशपवर्षगादि व्यापारेषु प्रेर्यते इति सूर्यः” (9/114/3 ऋग्वेद सायण भाष्य) यह नाम की व्युत्पत्ति का द्योतक भी व प्रवृत्तियां का परिचायक वर्णन है। सूर्य को समर्पित चौदह सूक्तों में ऋग्वेद के ऋषि हमें बताते हैं-

“अग्नेरनीकं बृहतः संपर्य दिवि शुक्रं यजतं सूर्यस्य” 10/7/3 अर्थात् “आकाश में सूर्य का ज्वलंत प्रकाश मानो अमूर्त अग्निदेव का मुख है। तथा “शं नः सूर्य उरुचक्षा उदेतु” (7/35/8) अर्थात् वे दूर द्रष्टा हैं तथा “सूराय विश्व चक्षुसे”(1-50-2) अर्थात् वे सर्व द्रष्टा हैं। “विश्वस्य जगतो वहन्ति” कहकर विद्वान ऋषि उन्हें इस जगती का पालक-सर्वेक्षक बताते हैं।

सूर्य को आदिकाल से ही चर और अचर विश्व सभी की आत्मा तथा उनका रक्षक माना गया है-”सूर्य आत्मा जगस्तस्थुषश्च”(ऋ1-115-1 यथा यजु. 7-42) इसी बात को दूसरे शब्दों में अन्य स्थान पर “विश्वस्य स्थातुर्जगतच्श्र गोपाः”(ऋग्वेद 7-60-2) में भी प्रतिपादित किया गया है। ऋग्वेद के पाँचवे मण्डल के सूक्त 81 की प्रारम्भिक पाँच ऋचाओं की व्याख्या करते हुए श्री अरविंद अपनी ऐतिहासिक कृति वेद रहस्य में लिखते हैं कि वैदिक ऋषियों का सूर्य सत्य का अधिपति है, आलोक प्रदाता है, रचयिता है-’सविता’ के रूप में तथा ‘पूषा’ के रूप में पुष्टि प्रदाता है। उसकी किरणें अंतःप्रेरणा व अंतर्ज्ञान की तथा प्रकाशपूर्ण विवेक की अति मानसिक क्रियाओं का द्योतक हैं। बड़ी ही सुँदर व्याख्या सविता देवता की शक्ति-प्रक्रिया की तथा सूर्योपासना से संभावित उपलब्धि ऋग्वेद की इस ऋचा में है-

उतेशिषे प्रसवस्य त्वमेक इदुत पूषा भवसि देव यामभिः । उतेदं विश्वं भुवनं वि राजसि श्यावाश्वस्ते सवितः ॥ -स्तोममानशे

ऋग्वेद मंत्र 5 सूक्त 81/मण्डल 5 इसका भावार्थ इस प्रकार होता है-”देवाधिपति सूर्य रचयिता, पोषक सविता है, समस्त लोकों को यह आलोकित करता है। इस प्रकार अत्रिकुल का श्यावश्य सविता को आत्मसत्ता के अंदर एक ऐसे आलोक प्रदाता सत्य के रूप में प्रतिष्ठित करने में सफल हो चुका है, जो रचयिता है-प्रगतिशील है-मानव मात्र का पोषक है-मनुष्य को अहंभाव की सीमा से निकालकर विश्वव्यापी बना देता है, ससीम से असीम कर देता है।” (वेद-रहस्य प्रथम भाग -पृ. 376) वैदिक ऋषियों के विचार में सत्य और प्रकाश पर्यायवाची शब्द हैं जैसे कि उनके विलोम अज्ञान व अंधकार भी पर्यायवाची हैं। यह सत्य है सूर्य की ज्योति, उसका शरीर। यह सूर्य वह है जो सत्य के रूप में अंधकार में-अवचेतन की गुप्त गुफा में अवस्थित है। किंतु प्रयासपूर्वक उसका साक्षात्कार किया जा सकता है। वस्तुतः वेदों का अलंकारिक वर्णन उन्हें उन पवित्र धार्मिक ग्रंथों के रूप में प्रकट करता है, जिनमें सूर्य की पूजा अथवा (सत्यम सूर्यम) सत्य के सूर्य को जो अज्ञानरूपी अंधकार से ढँका है, प्रकाशित करने की प्रक्रिया समझायी गयी है “सत्यं तदिन्द्रो दशभिर्दशग्वैः सूर्य विवेद तमसि क्षियंतम्” - ऋ 3.39.5 का उत्तरार्ध

वेदों में स्थान-स्थान पर सूर्य के महात्म्य के भिन्न-भिन्न उद्धरण मिलते हैं। ऋषि लिखते हैं-”पश्येम् नु सूर्यमुच्चरंतम (ऋ 6-52-5) अर्थात् जीवन का अर्थ ही सूर्योदय का वर्णन करना है। इस प्रकार सूर्य धरती पर जीवन के प्रकटीकरण के प्रतीक है। वे यह भी कहते हैं अभी प्राणी उन पर अवलंबित हैं। “सूर्यस्य चक्षू रज सैत्यावृतं तस्मिन्नार्पिता भुवनानि विश्वा” ऋ.1-164-14 । यही नहीं वैदिक मनीषी के अनुसार सूर्य विश्वकर्मा हैं-सृष्टि रचयिता हैं-येनमा विश्वा भुवनान्याभृता विश्वकर्मणा विश्वदेव्यावता (ऋ. 10-170-4)। यही नहीं, वे उस सहस्रयुग का आदि और अंत हैं, जो ब्रह्म का दिन कहलाता है।

यदहो ब्रह्मणः प्रोक्तं सहस्रयुग सम्मितम्। तस्य त्वमादिरंतच्श्र कालज्ञैः सम्प्रकीर्त्तितः ॥ -5/170 महाभारत

सूर्य व सविता की भ्राँति को वेद स्पष्ट करता है। सविता

अर्थात् संपूर्ण ब्रह्मांडों के सूर्यों में समान विराजमान , प्रेरक, दिव्यशक्ति रूप परब्रह्म परमात्मा। ऋषि के अनुसार प्रत्येक सूर्य सविता हैं।

सविता सर्वस्य प्रसविता । सविता अर्थात् सबका प्रेरक। शतपथ के अनुसार सविता देवानाँ प्रसविता सविता देवों का भी पालन करने वाले प्रेरक है। ऋग्वेद के चौथे मण्डल के चौदहवें सूक्त के दूसरे श्लोक में वर्णन आया है-

ऊर्ध्व केतु सविता देवो अश्रेज्योतिर्विश्वस्मै भुवनाय कृण्वन। आप्राद्यावापृथिवी अंतरिक्षं वि सूर्यो रश्मि भिश्चेकिदानः

अर्थात् सविता देव ने अपनी ज्योति को ऊँचा उभारा है। और इस प्रकार उनने समस्त लोकों को प्रकाशित किया है। सूर्य प्रखरता के साथ चमकते हुए आलोक, पृथ्वी और अंतरिक्ष को अपनी किरणों से आपूरित कर रहे हैं।” इसका अर्थ यह है कि “सूर्य भौतिक सौर मण्डल के अधिपति हैं जबकि सविता उनमें अन्तर्निहित दिव्यशक्ति का ध्यानावस्थित महर्षियों के अंतःकरण में प्रादुर्भाव आध्यात्मिक रूप का वर्णन ही सविता देवता के रूप में है, कोई अलग रूप में नहीं।”

वेद कहता है-”संपूर्ण विश्व का प्रसव करने वाले सर्वप्रेरक, सविता देवता ही अपने नियमन साधनों से वृद्धि प्रदानादि उपायों से पृथ्वी को सुखमय बनाकर रखते हैं तथा वे ही आलंबन रहित प्रदेश में द्युलोक को दृढ़ रखते हैं जिससे नीचे न गिरे। वे ही अंतरिक्षगत होकर वायवीय पाशों से बँधे हुए मेघमय समुद्र को दुहते हैं। “

सविता मन्त्रै पृथिवीय रम्णा दस्कम्भने सविता द्यामहंडत्। अश्वमिवा धुक्षद्धु नियंतरिक्ष मतूर्त्ते बद्धं सविता समुद्रम्॥ (ऋ. 10-149-1)

इस सूक्त में सूर्य के विराट स्तर पर क्रिया–कलापों की

एक झलक है। सूर्य को पापनाशक माना गया है। उनका भर्ग ब्रह्मतेजस् पापनाशिनी शक्तिवाला है। यह स्तुति बड़े ही सुँदर ढंग से ऋग्वेद के चौथे मण्डल के 54 वे सूक्त। तीसरे श्लोक में अभिव्यक्ति हुई है-”हे सविता देव! आपका जीवन दिव्य गुणों से भरा हुआ है। हम अज्ञानवश आपके प्रति अपराध एवं श्रद्धा निष्ठा में प्रमाद कर देते हैं। हम अपनी चतुराई, ऐश्वर्य एवं पौरुष के मद अन्य देवों या मनुष्यों के प्रति अपराध कर देते हैं। आप उन सब अपराधों को क्षमा कर हमें संपूर्ण पापों से मुक्त कर दीजिए। हमारी यही अभ्यर्थना है। “ इसी बात को 1-115-1 में -”हे प्रकाशमान सूर्य रश्मियों। सूर्योदय के समय प्रकट हो तुम हमें पापों से निकाल कर बचालो, जो निन्दित है, उससे हमारी रक्षा करो।”

(अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निरहंसः पिपृता निरपद्यात्)

इसीलिए पापों से मुक्ति व सद्बुद्धि की याचना वाला गायत्री मंत्र सविता के ध्यान के साथ जपा जाता है तथा उद्यते नमः उदायते नमः उदिताय नमः (अथर्व 17-1-22) एवं “अस्तं यते नमोऽस्तमेष्यते नमोऽस्तमिताय नमः।” सूक्तों में सूर्य उदय-प्रकट व अस्त तीनों दशाओं में नमन के साथ प्रार्थना वेदों का ऋषि करता है। सूर्य देव मानसिक शाँति प्रदान करके वे सब प्रकार का सुख प्राप्त कराते है। जो मानव को अभीष्ट हैं और व्रतों की पूर्ण करने की सामर्थ्य देते हैं-

व्रतानि देवः सविता भिरक्षते (ऋ.4-53-4)

यजुर्वेद कहता है कि “सूर्य स्वयंभू है, इस सौर जगत में श्रेष्ठ है, सारे जगत को प्रकाशित कर रहे है। सबको वर्चस और ज्योति देते है। जो भी सूर्य के नियमों का अनुसरण करेगा, वह उनके ही समान वर्चस्वी बनेगा।’

स्वयंभू श्रेष्ठो रश्मिर्वद्योदा असि बचों में देहि। सूर्यस्यावृतमन्ववर्ते(पजु.2-26)

सूर्य देव कर्मयोगी को वाँछित अनुदान देते है। “सूर्य की प्रेरणा लेकर मनुष्य जिस मात्रा में कर्म करता है, उसी मात्रा में पदार्थ अथवा अर्थ लाभ लेता है”-यह भाव ऋग्वेद की इस उक्ति में आया है।

नूनं जनाः सूर्येण प्रसूता अयन्न्थानि कृणवन्नपाँसि। (7-63-4)

वेदों के उपरोक्त उद्धरण एक ही तथ्य का उद्घाटन करते हैं कि मानव का आदर्श-लक्ष्य सूर्य सविता हो तो वह ब्रह्म का दर्शन ही नहीं उन्हें प्राप्त भी कर सकता है।


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