सुवति कर्माणि लोकं प्रेरयतीति सूर्यः

June 1993

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सूर्य को सृष्टि का प्राण कहा गया है। सूर्य के कारण ही धरित्री पर जीवन है। सूर्य नारायण यदि एक दिन न निकलें तो धरती पर त्राहि-त्राहि मच जाय। सूर्य का प्रकाश समस्त जीवधारियों में उल्लास एवं प्राण का संचार करता है, इसलिए सूर्य की इतनी महत्ता है। किंतु सूर्य मात्र आग का जलता गोला नहीं है , जिसमें हाइड्रोजन, हीलियम की पारस्परिक प्रतिक्रिया से आग के शोले तथा ऊर्जा भँवर उठते रहते हैं। यह तो सूर्य का दृश्य आधिभौतिक रूप है। आधिदैविक रूप में वह विचारों का नियंत्रक, ग्रहों का अधिपति तथा भावों को सुँदर प्रेरणा देने वाला है तथा जातक की आत्मा के रूप में विद्यमान है। इसमें भी गहरे चलते हैं तो आध्यात्मिक रूप में वह विराट पुरुष की ज्योति है, अतिमानसिक ज्योति है। सुर+इर-इस अर्थ से सुँदर प्रेरणाएँ जो दे, वह सूर्य है।

सूर्य की उपासना भारतीय संस्कृत के अध्यात्म पक्ष का मूल मर्म है। आदित्य हृदय का रहस्य जानकर ही भगवान श्रीराम द्वारा रावण वध संभव हो सका। युधिष्ठिरादि पाँचों भाई मुनि धौम्य द्वारा सूर्योपासना की दीक्षा द्वारा ही उस शक्ति को प्राप्त कर सके जिसने उन्हें अजेय बनाया। सूर्य की स्तुति से हमारा आर्ष-वाङ्मय भरा पड़ा है। ऋग्वेद के पाँचवे मंडल के 71वें सूक्त के पहले श्लोक में आता है “मही देवस्य सवितुः परिष्तुतिः” अर्थात् “महान है सविता देवता की व्यापक स्तुति”

सूर्य सविता है अपने सृजनात्मक-प्रकाशक सौर रूपों वाली दिव्यसत्ता के रूप में। जो रचयिता है, सत्य रूप में स्तुत्य है, मानव मात्र का पोषक है, मनुष्य के अहंभाव से निकाल कर विश्वव्यापी बना देता है, वही सविता है। सविता-सूर्य, स्रष्टा-पापनाशी सत्ता जो गायत्री का देवता है जिससे एकाकार हो हमारे पूज्य गुरुदेव की सूक्ष्मसत्ता विश्वव्यापी बन चुकी है, को यह सूर्य अंक समर्पित है।


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