रविवार को उपवास क्यों व किसलिए?

June 1993

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मोटे तौर पर उपवास के लाभों से सभी परिचित हैं। इससे पेट का अपच ठीक हो जाता है। पाचन अंग नई चेतना के साथ दुगुना काम करने गलते हैं। आमाशय में भरे हुए उपक्व अन्न से जो विष उत्पन्न होता है, वह नहीं बनता।उपवास के ये लाभ ऐसे हैं जो हर किसी को मालूम हैं। डॉक्टरों का यह निष्कर्ष प्रसिद्ध है कि स्वल्पाहारी दीर्घजीवी होते हैं। जो बहुत खाते हैं पेट को ठूँस कर भरते हैं, कभी पेट को चैन नहीं लेने देते, एक दिन को भी उसे छुट्टी नहीं देते वे अपनी जीवन संपदा को जल्दी ही समाप्त कर लेते है। स्थिर आयु की अपेक्षा बहुत जल्दी उन्हें दुनिया से बिस्तर बाँधना पड़ता है।

स्वास्थ्य की दृष्टि से इसके असाधारण महत्व को स्वीकार करते हुए आयुर्वेद शास्वनि निर्देश दिया है कि “बीमारी को भूखा मारो। भूखा रहने से बीमारी मर जाती है और रोगी बच जाता है। संक्रामक-कष्टसाध्य एवं खतरनाक रोगों में उपवास भी चिकित्सा का एक अंग है। मोतीझरा, निमोनिया, विसूचिका, प्लेग, सन्निपात जैसे रोगों में कोई भी चिकित्सक लंघन-उपवास कराए बिना रोग को आसानी से अच्छा नहीं कर पाता। प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान में तो समस्त रोगों में पूर्ण या आंशिक उपवास हो ही प्रधान उपचार माना गया है।

लेकिन इतने तक ही इसका महत्व सीमित नहीं है। इसके अनेकों गुह्य और गहन पक्ष ऐसे भी हैं जिन्हें समझ लेने पर कहा जा सकता है कि उपवास सरल किन्तु समर्थ योग साधना भी है। गीता में-विष्या विनिवर्तन्तें निराहारस्य देहिनः” कहर इसी तत्व की ओर संकेत किया है। इसी तथ्य को भली प्रकार समझ कर ऋषियों ने हर महीने कई उपवासों का धार्मिक महत्व स्थापित किया था।

साधना विज्ञान में अन्नमय कोष की शुद्धि के लिए उपवास की विशेष आवश्यकता को स्वीकारा गया है। शरीर में कई जाति की उपत्यिकाएँ देखी जाती हैं जिन्हें शरीर विज्ञानी नाड़ी गुच्छक कहते हैं। देखा गया है कि कई स्थानों पर ज्ञान तन्तुओं जैसी बहुत पतली नाड़ियाँ आपस में चिपकी होती है। यह गुच्छक कई बार रस्सी की तरह आपस में लिपटे और बटे हुए होते हैं कई जगह ये गुच्छक गाँठ की तरह ठोस गोली जैसे बन जाते हैं।

कई बार यह समानात्र लहराते हुए सर्प की भाँति चलते हैं और अन्त में उनके सिर आपस में जुड़ जाते हैं।

कई जगह इनमें बरगद के वृक्ष की तरह शाखा प्रशाखाएं फैली रहती हैं। दस प्रकार के कई गुच्छक परस्पर संबंधित होकर एक परिधि बना लेते है। इनके रंग आकार एवं अनुच्छेद में काफी अन्तर होता है। यदि अनुसंधान किया जाय तो उनके तापमान,अणु, सरिकम्ण एवं प्रतिभापुंज-प्रभाव परिकर में काफी अन्तर पाया जाएगा।

वैज्ञानिक इन नाड़ी गुच्छकों के कार्य का कुछ विशेष परिचय अभी तक नहीं प्राप्त कर सके है। पर साधना विज्ञान के मर्मज्ञ जानते हैं कि यह उपत्यिकाएँ शरीर में अन्नमयकोश की बंधन ग्रन्थियाँ हैं। मृत्यु होते ही सब बंधन खुल जाते है। और फिर एक भी गुच्छक दिखाई नहीं देता। यह उपत्यिकाएं अन्नमय कोष के गुण-दोषों की प्रतीत हैं। “इन्धिका” जाति की उपत्काएँ चंचलता, अस्थिर, उद्विग्नता की प्रतीक है। नि व्यक्तियों में इस जाति के नाड़ी गुच्छक अधिक हों तो उनका शरीर एक स्थान पर बैठकर काम न कर सकेगा। उन्हें कुछ क्षटपट करते रहनी पड़ेगी। ‘दीपिका जाति की उपत्यिकाएँ जोश-क्रोध शारीरिक ऊष्णता गर्मी खुश्की आदि उत्पन्न करेगी। ऐसे गुच्छकों की अधिकता वाले लोग चर्मरोग, फोड़ा, फुन्सी, नकसीर फूटना, पीला पेशाब, आँखों में जलन आदि रोगों के शिकार होते रहेंगे।

भोचिकाओं की अधिकता वाले व्यक्ति के शरीर से पसीना लार-कफ, पेशाब आदि मलों का निष्कासन अधिक होगा। पतले दस्त अक्सर हो जाते है और जुकाम की शिकायत होते देर नहीं लगती। ‘आप्यायिनी’ जाति के गुच्छक आलस्य, अधिक निद्रा, अनुत्साह, भारीपन उत्पन्न करते है। ऐसे व्यक्ति थोड़ी-सी मेहनत में थक जाते है। उनसे कठोर शारीरिक या मानसिक कार्य नहीं होता।

‘पूषा’ जाति के गुच्छक काम वासना की और मन को बलात् खींच ले जाते है। संयम-ब्रह्मचर्य के सारे आयोजन धरे रह जाते है। “पूषा” का तनिक-सा उत्तेजन मन को बेचैन कर डालता है और वह बेकाबू होकर विकार ग्रस्त हो जाता है। शिवजी का शर संधान करते समय कामदेव ने अपने कुसुम बाण से उसे प्रदेष की पूषाओं को उत्तेजित कर डाला था।

‘चन्द्रिका’ जाति का उपत्यिकाऐं सौंदर्य बढ़ाती है। उनकी अधिकता के वाणी में मधुरता, नेत्रों में मादकता, चेहरे पर आकर्षण, कोमलता एवं मोहकता की मात्रा रहेगी। ‘कपिल’ के कारण नम्रता, डर लगना, दिल की धड़कन, बुरे स्वप्न आशंका, मस्तिष्क की अस्थिरता नपुँसकता वीर्यरोग, आदि लक्षण पाए जाते है। “घूसार्धि” में संकोचन शक्ति बहुत अधिक होती है। फोड़े देर में पकते है, कफ मुश्किल से निकलता है। शौच देर से होता है। मन की बात कहने में झिझक लगती है। “ऊष्माओं” की अधिकता से मनुष्य हाँफता रहता है। जाड़े में भी गर्मी लगती है। क्रोध आते देर नहीं लगती। जल्दबाजी बहुत होती है। रक्त की गति श्वास-प्रश्वास में तीव्रता रहती है।

“अमाया” वर्ण के गुच्छक दृढ़ता, मजबूती, कठोरता, गम्भीरता, हठधर्मी के प्रतीक होते है। इस प्रकार के शरीरों पर बाह्य उपचारों का कुछ असर नहीं होता। कोई दवा काम नहीं करती। ये स्वेच्छापूर्वक रोगी या रोग मुक्त होते है। उन्हें कोई कुपथ्य रोगी नहीं कर पाता, परन्तु जब गिरते है तो संयम-नियम का पालन भी कुछ काम नहीं आता।

चिकित्सक लोगों के उपचार अनेक बार असफल होते रहते है। कारण कि उपत्यिकाओं के अस्तित्व के कारण शरीर की सूक्ष्म स्थिति कुछ ऐसी हो जाती है कि चिकित्सा कुछ विशेष काम नहीं करती। “उद्गीथ” उपत्यिकाओं की अभिवृद्धि से संतान होना बन्द हो जाता है। वह जिस पुरुष या स्त्री में अधिक होगी वह पूर्ण स्वस्थ रहते हुए संतान उत्पादन के अयोग्य हो जाएगा। स्त्री-पुरुष में से ‘असिता’ कर अधिकता जिनमें होगी वही अपने लिंग की संतान उत्पन्न करने में विशेष सफल रहेगा। असिता से संपन्न नारी को कन्याएँ और पुरुष को पुत्र उत्पन्न करने में सफलता मिलती है।

‘युक्त हिस्सा’ जाति के गुच्छक क्रूरता, दुष्टता, परपीड़न की प्रेरणा देते है। ऐसे लोगों को आवश्यक धन-सम्पत्ति होते हुए भी अनुचित मार्ग अपनाने को मन मचलता है। कोई विशेष कारण न होते हुए भी दूसरों के प्रति ईर्ष्या, द्वेष और

प्रार्थना उपवास बिना नहीं होती, और उपवास यदि प्रार्थना काक अभिन्न अंग न हो तो वह शरीर को मात्र यन्त्रणा है, जिससे किसी का कुछ लाभ नहीं होता। ऐसा उपवास तीव्र आध्यात्मिक प्रयास है, एक आध्यात्मिक संघर्ष है। वह प्रायश्चित और शुद्धिकरण की प्रक्रिया है। --महात्मा गाँधी

आक्रमण का आचरण करते है। ‘हिस्ना उपत्यिकाएँ अशांति की प्रेरक है। ऐसे लोग अपना सिर फोड़ लेते-स्वयं पर अकारण हिंसा करते, आत्महत्या करते बच्चों को बेतरह पीटते और कुकृत्य करते देखे जाते है।

योग शास्त्रों में इस तरह की 96 उपत्यिकाओं का वर्णन किया गया है। यह ग्रंथियां ऐसी है जो व्यक्तित्व को इच्छानुकूल रखने में बाधक होती है। मनुष्य चाहता है कि मैं अपने व्यक्तित्व को ऐसा बनाऊं वह उसके लिए कुछ उपाय भी करता है, पर कई बार वे उपाय सफल नहीं होते कारण यह है ये कि उपत्यिकाएँ भीतर ऐसी विलक्षण क्रिया एवं प्रेरणा उत्पन्न करती है जो यह प्रयत्नों को सफल नहीं होने देती और मनुष्य अपने को बार-बार असफल एवं असहाय अनुभव करता है।

उपवास का इन उपत्यिकाओं के संशोधन परिमार्जन और सुसन्तुलन से बड़ा गहरा संबंध है। योग साधना में उपवास का एक सुविस्तृत विज्ञान है। अमुक प्रकार से उपवास करने का अमुक फल देता है। ऐसे आदेश शास्त्रों में जगह-जगह पर मिलते है। ऋतुओं के अनुसार शरीर की छः अग्नियाँ न्यूनाधिक होती रहती है। ऊष्मा बहुवृच, हृवादी, रोहिता, आत्पता, व्याति यह छः शरीरगत अग्नियाँ ग्रीष्म से लेकर बसन्त तक छः ऋतुओं में क्रियाशील रहती है। इनमें से प्रत्येक के गुण भिन्न-भिन्न है।

एक उत्तरायण-दक्षिणायन की गोलार्ध स्थिति, दूसरे चन्द्रमा की घटती बढ़ती कलाएँ तीसरे-नक्षत्रों का भूमि पर आने वाला प्रभाव तथा चौथे सूर्य की अंश किरणों का मार्ग इन सभी का शरीरगत ऋतु अग्नियों के साथ संबंध होने से क्या परिणाम होता है इनका ध्यान रखते हुए ऋषियों ने ऐसे पुण्य पर्व निश्चित किए है जिनमें अमुक विधि से उपवास किया जाए तो उसका अमुक परिणाम हो सकता है। कार्तिक कृष्ण चौथे जिसे करवाचौथ कहते हैं उस दिन का उपवास दाम्पत्य प्रेम बढ़ाने वाला होता है। क्योंकि उस दिन की गोलार्ध स्थिति चन्द्रकलाएँ नक्षत्र प्रभाव सूर्य मार्ग का सम्मिश्रण परिणाम शरीरगत अग्नि के साथ समन्वित होकर शरीर एवं उनकी स्थिति को ऐसा उपयुक्त बना देता है जो दाम्पत्य सुख की सुदृढ़ और चिरस्थाई बनाने में बड़ा व्रत-उपवास है जो अनेक इच्छाओं आवश्यकताओं को पूरा करने में तथा बहुत से अनिष्टों को टालने में सहायक होते है।

उपवास प्रक्रिया के मर्मज्ञों ने इनके पाँच भेद किए है। पाचक, शोधक, शामक, आनस एवं पावक। पाचक उपवास वे है जो अपच अजीर्ण कोष्ठबद्धता को पचाते हैं। शोधक वे है जो रोगों को भूखा मार डालने के लिए किए जाते हैं। शामक उन्हें कहते हैं जो कुविचारों मानसिक विकारों, दुष्प्रवृत्तियों एवं विकृत उपत्यिकाओं का शमन करते है। आनस-वे है जो किसी विशेष प्रयोजन के लिए दैवी शक्ति को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए किए जाते है। पावक वे है जो पापों के प्रायश्चित के लिए होते है। आत्मिक एवं मानसिक स्थिति के अनुरूप कौन-सा उपवास उपयुक्त होगा और उसके क्या नियमोपनियम होने चाहिए इसका निर्णय करने के लिए सूक्ष्म विवेचना की आवश्यकता है।

साधक का अन्नमय कोष किस स्थिति में है? उसकी कौन उपत्यिकाएँ विकृत हो रही है? किस उत्तेजित संस्थान को शान्त करने के लिए एवं किस मर्म स्थल को सतेज करने की आवश्यकता है? यह देखकर निर्णय किया जाना चाहिए कि कौन व्यक्ति किस प्रकार का उपवास कब करें?

पाचक उपवास में तब तक भोजन छोड़ देना चाहिए जब तक कि कड़ाके की भूख न लगे। एक बार एक दिन का या दो दिन का आहार छोड़ देने से आमतौर पर कब्ज पक जाता है। पाचक उपवास में सहायता देने के लिए नीबू का रस जल एवं किसी पाचक औषधि का सेवन किया जा सकता है। शोधन उपवासों के साथ विश्राम आवश्यक है। यह लगातार तब तक चलते है जब तक कि रोगी खतरनाक स्थिति को पार न कर ले। औटाकर ठण्डा किया हुआ पानी ही ऐसे उपवासों में एकमात्र अवलंबन होता है।

शामक उपवास दूध, छाछ, फलों का रस आदि पतले रसीले हल्के पदार्थों के आधार पर चलते है। इन उपवासों में आत्म चिन्तन, एकान्त सेवन मौन-जप-ध्यान आदि आत्मशुद्धि के उपचार भी होने चाहिए। उन उपवास में सूर्य की किरणों द्वारा अभीष्ट दैवी शक्ति का आह्वान करना चाहिए। सूर्य की सप्तवर्ण किरणों में राहु-केतु को छोड़कर अन्य सातों ग्रहों की रश्मियां सम्मिलित होती है। सूर्य-में तेजस्विता, ऊष्णता पित्त प्रकृति प्रधान है। चन्द्रमा-शीतल शान्तिदायक, उज्ज्वल कीर्तिकारक। मंगल-कठोर बलवान सहायक। बुध-सौम्य, शिष्ट, कफ प्रधान सुन्दर आकर्षक। गुरु-विद्या बुद्धि, धन, सूक्ष्मदर्शिता, शासन, न्याय, राज्य का अधिष्ठाता। शुक्र-वात प्रधान, चंचल, उत्पादक कूटनीतिक। शनि, स्थिरता, सुखोपभोग, दृढ़ता, परिपुष्ट का प्रतीक है। जिस गुण की आवश्यकता हो उसके अनुरूप दैवी तत्वों को आकर्षित करने के लिए सप्ताह में उसी का उपवास करना उचित है।

पावक उपवास प्रायश्चित स्वरूप किए जाते है। ऐसे उपवास केवल जल लेकर करने चाहिए। अपनी भूल के लिए प्रभु से सच्चे हृदय से क्षमा याचना करते हुए भविष्य में वैसी भूल न करने का प्रण करना चाहिए। अपराध के लिए शारीरिक कष्ट साध्य तितिक्षा एवं शुभ कार्य के लिए इतना दान देना चाहिए जो पाप की व्यथा को पुण्य की शान्ति के बराबर कर सके। चांद्रायण व्रत, कृच्छ चान्द्रायण आदि पावक व्रतों में गिने जाते है।

उपत्यिकाओं के शोधन परिमार्जन और उपयोगीकरण की साधना, तथा पाँचों पहर के उपवासों के सूक्ष्म तत्व जिसमें समाहित है, वह रविवार का सूर्य व्रत है। उस दिन सातों ग्रहों की सम्मिलित शक्ति पृथ्वी पर आती है जो विविध आयोजनों के लिए उपयोगी होती है। रविवार को प्रातःकाल स्नान करके शुद्ध वस्त्रों से उदय कालीन सूर्य के सम्मुख बैठना चाहिए। एक बार खुले नेत्रों से सूर्य नारायण को देखकर फिर नेत्र बन्द करके सविता के तेज पुँज का ध्यान करते हुए एक हजार गायत्री मंत्र का जप करना चाहिए। जप करते हुए ध्यान में यह भाव करें “इस सूर्य के तेजपुँज रूपी समुद्र में हम स्नान कर रहे है, वह हमारे चारों और ओत-प्रोत हो रहा है।” ऐसा ध्यान करने से सविता की ब्रह्म रश्मियां साधक, की आत्म चेतना की जाग्रता एवं सतेज करती है। बाहर से चेहरे पर सूर्य का ताप पड़ना और भीतर से ध्यानाकर्षण द्वारा सूक्ष्म रश्मियों को खीचना उपत्यिकाओं को सुविकसित करने में सहायक होता है।

जप और ध्यान के बाद अच्छा हो कि हवन की प्रक्रिया संपन्न हो। हवन करने से जप-ध्यान की ऊष्मा का शमन होता है। रविवार का उपवास अपने में गहन योग साधना है। बारह रविवार तक बिना नागा इस को करते रहने से साधक स्वयं में अपेक्षित परिवर्तन अनुभव कर सकता है। बारह रविवार लगातार सूर्य व्रत करने में द्वादश आदित्यों की उपासना का अलौकिक विज्ञान छुपा है।

इस संदर्भ में अनुभव ही साधक का स्वतः प्रमाण बनता है। इस दिन श्वेत या वासंती वर्ण की वस्तुओं का अधिक प्रयोग करना चाहिए। वस्त्र

तीव्रं निर्वाणहेतुर्यदपि च विपुलं यत्प्रकर्षेण चाणु। प्रत्यक्षं यत्पसेक्षं यदिह यदपरं नष्वरं शाष्वतं च।

यत्सवस्त प्रसिद्धं जगति कतिपये योगिनो यद्विदंति ज्योतिस्तदु द्विपकारं सवितुरवतु वो बाह्याभ्यंतरं च॥

जगत में सभी प्राणियों में प्रसिद्ध होने पर भी कुछ में योगियों द्वारा ज्ञानगम्य, नश्वर होते हुए भी नित्य, समीपस्थ होते हुए भी दूरस्थ, प्रत्यक्ष होते हुए भी, परोक्ष, विस्तीर्ण होते हुए भी अत्याधिक अणुरूप और तीव्र होते हुए भी, मोक्ष की हेतुभूत, सूर्य की बाह्य तथा अन्तः दोनों प्रकार की ज्योति आपकी रक्षा करें। -मयूर (सूर्यषतक, 29)

भी सफेद या वासंती पीले रंग के हों। श्वेत वस्त्र सप्त रश्मियों के समुच्चय श्वेत प्रकाश के प्रतीक रूप में तथा वासंती या पीला वस्त्र सूर्य व बृहस्पति के समन्नित के सुतीकात्मक रूप में पहना जाता है। दोपहर के बारह बजे तक कुछ न ग्रहण करना उत्तम है। बारह बजे के बाद जल अथवा तरल पदार्थ फलों का रस आदि लिया जा सकता है। सूर्य अस्त के बाद कुछ भी लेना वर्जित माना गया है। सूर्य तप के अधिदेवता हैं-रविवार का उपवास तप का प्रतीक जिसके परिणाम साधक को पवित्रता-प्रखरता तेजस्विता के रूप से अनुभव करने में मिलते है।


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