भूख पीड़ित पाण्डव-द्रौपदी सहित बन में भटक रहे थे। जब स्वयं की ही क्षुधा शाँत होने की गुँजाइश न हो, ऐसे में महाक्रोधी ऋषि दुर्वासा और उनके दस हजार शिष्यों के आतिथ्य सत्कार के संदेश ने उन्हें और व्याकुल कर दिया था। आसन्न संकट की घड़ी थी। वे और अधिक सोचते इतने में महर्षि धौम्य का आगमन हुआ। स्थिति को समझकर महर्षि ने कहा-राजन्! देवाधिदेव भगवान सूर्य की आराधना करो। सूर्य उपासना सभी संकटों से त्राण दिलाने वाली इस लोक में यश-वैभव की प्राप्ति कराकर मोक्ष प्रदाता है। धर्मराज युधिष्ठिर सपरिवार सूर्य आराधना में तल्लीन हो गये। भगवान सूर्य युधिष्ठिर की इस आराधना से प्रसन्न होकर सामने प्रकट हरे गए और उनके मनोगत भाव को समझकर बोले-
यत्तेऽभिलषितं किञ्चित्तत्वं सर्वमवास्यसि।
धर्मराज ! तुम्हारा जो भी अभीष्ट है, वह तुमको मिलेगा। इतना कहते हुए उन्होंने उन्हें अक्षयपात्र दे दिया। पाण्डवों के जीवन में उल्लास बिखर गया।