जीवन विद्या का कुशल प्रशिक्षक- सूर्य

June 1993

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सूर्य के दृश्य अनुदान प्रकाश, ऊर्जा, शक्ति आदि के रूप में अनुभव होते है। इन दृश्य अनुदानों से कहीं अधिक बड़ा अनुदान अदृश्य प्रेरणा प्रवाह है। जो सूर्य और सौरमण्डल की गतिविधियों से उमगता रहता है। स्वयं के अन्तःकरण को यदि ग्रहणशील बनाया जा सके तो स्पष्ट बोध हो सकेगा कि सूर्य न केवल जीवनदाता है, बल्कि जीवन जीने की कला का कुशल प्रशिक्षक भी है। यदि हम सौरमण्डल और उससे संबद्ध ग्रह-नक्षत्रों की गति विधियों पर दृष्टिपात करें तो न केवल विश्व की विशालता और उसके निर्माता की महानता समझने का अवसर मिलेगा वरन् यह भी सूझ पड़ेगा कि जीवन की रीति-नीति का शिक्षण किस तरह संपन्न हो रहा है।

समस्त ग्रह-नक्षत्र निरंतर क्रियाशील हैं। इन गतिशीलता पर ही उनका जीवन निर्भर है। समस्त पिण्ड अपनी धुरी पर परिक्रमा करते हैं और साथ ही उस केन्द्र का भी ध्यान रखते हैं जिसके साथ वे जुड़े हुए है। जिससे शक्ति प्राप्त करते हैं और जिस परिवार में बँधे रहने के कारण उन्हें सुरक्षा और स्थिरता प्राप्त है। वे उस केन्द्र सूर्य की भी परिक्रमा करते हैं।

इस प्रक्रिया पर ध्यान दिया जाय तो परम नियंता की उस इच्छा का आभास मिलेगा जिसका पालन करने के लिए सबको सहर्ष तत्पर रहना पड़ता है। ग्रह-उपग्रह अपनी धुरी पर नियमित रूप से घूमते हैं। व्यक्तिगत जीवन की सुव्यवस्था, सतर्कता, नियमितता और क्रमबद्धता को ग्रहों के अपनी धुरी पर घूमने के सदृश समझना चाहिए। यदि यह गति न हो तो फिर उन्हें घोर दुर्गति में पड़ना पड़े। मनुष्य के लिए भी यही बात है यदि वह अकर्मण्य अव्यवस्थित और अनियमित गतिविधियाँ अपनाये तो यह स्रष्टा की इच्छा का उल्लंघन ही होगा और उसका दण्ड मिले बिना न रहेगा। क्षुद्र ग्रह कीटकों (एस्टे राइड्स) की एक ऐसी श्रृंखला भी इस ब्रह्मांड में मारी-मारी फिरती है जिन्होंने निर्धारित मर्यादा का उल्लंघन करने का दण्ड अपने अस्तित्व को छिन्न-भिन्न करने के रूप में भोगा है।

अपनी ही धुरी पर घूमते रहना-अपने ही गोरख धंधे में उलझे रहना पर्याप्त नहीं। समाज रूपी केन्द्र का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। सभी ग्रह-अपने केन्द्र सूर्य की परिक्रमा में प्रमाद रहित तत्परता बरतते हैं। समाज के प्रति अपना कर्तव्य पालन करने के लिए मनुष्य को भी सजग और सक्रिय रहना चाहिए। सौर-मण्डल के ग्रह सूर्य से बहुत कुछ प्राप्त करते हैं-यदि वह उपलब्धि बंद हो जाय तो उन्हें मृत स्थिति में जाना पड़े। समाज का अनुदान बंद हो जाय तो मनुष्य का एक दिन भी जीवित रहना कठिन है। सुख-सुविधाएँ व्यक्ति की एकाकी उपलब्धियाँ नहीं हैं। समाज के ही सहयोग से ही व्यक्ति का विकसित सुखी और समृद्ध रह सकना संभव है। अतएव उपलब्धियाँ प्राप्त करने के साथ-साथ उसे केन्द्र के पोषण का उत्तरदायित्व भी उस पर आता है। सौर मण्डल का सहयोग न हो तो फिर सूर्य का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जायेगा। इसलिए नियति की व्यवस्था यही है कि ग्रह-सूर्य की परिक्रमा करके उसकी क्षमता को बनाये रखे और सूर्य इन ग्रहों को अनेक अनुदान देकर पोषण करें। यह अन्योन्याश्रित प्रक्रिया ही सौर मण्डल की स्थिरता की रीढ़ है, जिसके टूटने का खतरा होने पर यह सारा सुँदर सौर परिवार ही बिखर जायेगा।

व्यक्ति और समाज के बीच ऐसी ही सुदृढ़ विधि

व्यवस्था चलनी चाहिए। समाज का ढाँचा-व्यक्तियों को विकसित करने में समर्थ रहे और व्यक्ति समाज को प्रखर और सशक्त बनाने में निरंतर योगदान करें। यही क्रम व्यवस्था सौर-मण्डल में चल रही है-और यही क्रम व्यक्ति और समाज के संगठन में ठीक तरह बरता जाना चाहिए।

इसे हम सभी का सौभाग्य ही अनुभव किया जाना चाहिए कि हम चारों ओर बिखरी जीवनहीन या स्वल्प जीवन वाली ऊबड़-खाबड़ ग्रह परिस्थितियों के बीच अपनी इस सुँदर धरती पर रह रहे हैं, जिसमें जीवन का अमृत ही हिलोरे नहीं ले रहा वरन् प्रकृति प्रदत्त ऐसी सुविधाओं का भी बाहुल्य है जो अन्य ग्रहों में उपलब्ध नहीं हैं। इसी पृथ्वी के वासी सुख-सुविधाओं के उपभोक्ता होने के नाते हमारा और भी अधिक कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व हो जाता है कि अपने उदार एवं सहृदय निर्माता की इच्छा का पालन करते हुए व्यक्ति एवं समाज की महान मर्यादाओं को बनाए रखने में पूरा-पूरा सहयोग करें।

वैज्ञानिकों ने सूर्य और सौर मण्डल की स्थिति का अध्ययन करके बताया है कि पृथ्वी से सूर्य की दूरी सवा नौ करोड़ मील है। इस दूरी का अनुमान हम इस आधार पर लगा सकते है कि एक आदमी बैठ कर दो सौ अंक प्रति मिनट की रफ्तार से गिनती गिने तो सवा नौ करोड़ गिनने में उसे 11 महीने लगेंगे। शर्त यह है कि वह अन्य कोई काम न करे न सोये, न खाये-पिये, दिन-रात गिनता रहे। 

एक अन्य वैज्ञानिक ने इस दूरी की कल्पना इस प्रकार की है कि यदि हमारे हाथ इतने लम्बे हो जायें कि हम सूर्य को छू सकें और सूर्य की गर्मी हमारी अंगुलियों पर लगते ही अपने स्नायु तंतुओं को उसकी सूचना मस्तिष्क तक उसी रफ्तार तक पहुँचानी पड़े जिस रफ्तार से वे पहुँचते हैं तो इस कार्य में कुल 160 वर्ष का समय लगेगा। अर्थात् 160 वर्ष बाद अंगुली जलने की सूचना मस्तिष्क को मिल सकेगी। इसी प्रकार वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि सूर्य पर कोई घोर शब्द हो और वह ध्वनि उसी वेग से चले जिस वेग से धरती पर चलती है तो उसे पृथ्वी तक आने में 14 वर्ष लगेंगे।

सूर्य का डील–डौल भी कुछ कम आश्चर्यजनक नहीं है। इस संबंध में वैज्ञानिकों ने कुछ महत्वपूर्ण आँकड़े इकट्ठे किये है। वैज्ञानिकों का कहना है कि सूर्य का व्यास पृथ्वी के व्यास का 109 गुना है और इसलिए उसका घनफल पृथ्वी की अपेक्षा 109×109×109 गुना है। तेरह लाख पृथ्वियों को एक में मिला दिया जाय तब कही सूर्य के बराबर गोला बन सकेगा। पर सूर्य का घनत्व पृथ्वी की तुलना में अपने आप में बहुत कम है। यदि पृथ्वी की ही नाप का पानी का गोला लें तो पृथ्वी उससे तुलनात्मक दृष्टि से साढ़े पाँच गुना भारी होगी जबकि सूर्य अपनी घनता के बराबर पानी के गोले से मात्र सवा गुना भारी होगा।

इसी सूर्य के आकर्षण से बँधी 7900 मील व्यास वाली पृथ्वी लट्टू की तरह अपनी धुरी में अधर आकाश में लटकी तेजी से घूम रही है। 23 घंटे 56 मिनट में वह अपनी धुरी पर एक परिक्रमा कर लेती है जिसके फलस्वरूप दिन व रात होते हैं। किंतु हम हैं पृथ्वी के वासी, जो सिद्धाँततः तो यह बात मानते हैं, पर प्रायोगिक तौर पर पृथ्वी घूमते हुए देखने में आती नहीं। अतएव मानना पड़ेगा कि केवल दृष्टिगत व्यवहार ही सत्य नहीं है-विवेक और विचार की कसौटी पर खरे उतरने वाले सिद्धाँतों की भी सत्यता स्वीकार करनी चाहिए।

संसार का अणु -अणु गतिमान है। गति केवल वहाँ नहीं होती जहाँ इच्छाएँ और अभिलाषाएँ जड़ और मृत हो जाती हैं। फिर यदि संसार में हर वस्तु गतिशील हो तो हमें उस अदृश्य सत्य के कारण और गन्तव्य की भी जान-पहचान करनी ही होगी। पृथ्वी अपनी परिक्रमा करके ही संतुष्ट नहीं। वह सूर्य के गुरुत्वाकर्षण से बँधी है और उसी के फलस्वरूप स्वयं नाचते हुए वह सूर्य की भी परिक्रमा करती है। यह परिक्रमा वह 365 1/4 दिन में पूरी करती है। दिन का 1/4 भाग परिक्रमा में अधिक लग जाने के कारण ही हर चौथा वर्ष लीप इयर मनाया जाता है, जिसमें फरवरी 28 के बजाय 29 दिन की होती है।

अपनी पृथ्वी के आगे बढ़ चले तो सूर्य के समीप नवग्रह में सबसे छोटा 3000 मील वाला बुध दिखायी देता है। सूर्य से 36000000 मील दूर से सूर्य की परिक्रमा कर रहा है। अपनी परिक्रमा वह 88 दिन में करता है, थोड़ा सुस्त है न! अर्थात् बुध का दिन पृथ्वी के 44 दिन के बराबर है और रात्रि 44 दिनों के। अर्थात् 528 घंटों के बराबर। हम एक परिस्थिति में रहने के आदी हो गये हैं। इसलिए दूसरी परिस्थितियों को भी ध्यान में लाये तो इतनी लम्बी रात और इतने लम्बे दिन पर कौतूहल हुए बिना न रहे और फिर विचार भी उठे बिना न रहे कि क्या संसार में कोई ऐसा बिंदु भी है जहाँ न कभी रात होती है न कभी दिन-संपूर्णतः दृष्ट बिंदु।

बुध की तरह शुक्र भी अन्तर्ग्रह है। अन्तर्ग्रह का अर्थ है जो सूर्य और पृथ्वी के मध्य हो। शुक्र भी एक गतिशील पिण्ड है। रूढ़िवादी जन समुदाय के समान अंध परम्पराओं में बँध कर जीना नहीं चाहता। अपनी धुरी में 30 दिन की और अपने शक्तिदाता सूर्य की वह पृथ्वी के पूरे 225 दिन में एक परिक्रमा करता है। कल्पना कीजिए वहाँ 112.5 दिनों की अर्थात् तीन माह-साढ़े बाईस दिनों की रात कितनी भयंकर होती होगी। भगवान ने पृथ्वी वासी के लिए कितना उपयुक्त वातावरण बनाया है, प्राकृतिक सुविधाएँ दी हैं यह कल्पना करते ही श्रद्धा से सिर झुक जाता है, बावरे तो वे लोग हैं जिनकी दृष्टि में सृष्टि की इस व्यापकता की कोई कल्पना नहीं है वे अपने स्वार्थों से ही दबे मरे जा रहे हैं।

अब थोड़ा अपनी पृथ्वी से बाहर की ओर चिंतन को गति दें। कदाचित हवा से दूर उड़ कर चलना संभव हो और हम सूर्य से विपरीत दिशा में उड़े तो पृथ्वी से 49000000 मील दूर एक ग्रह मिलेगा। इस ग्रह से कोई एक हजार मील ऊपर ठहर जायें तो देखेंगे कि वह भी अपनी धुरी पर घूम रहा है। अपने आपकी परिक्रमा वह 24 घंटा 37 मिनट में करता है। अर्थात् वहाँ के दिन व रातें लगभग पृथ्वी के ही समान हैं।

यह मंगल है जो सूर्य की प्रदक्षिणा 687 दिन में करता है। इससे आगे वाला भीमकाय ग्रह बृहस्पति है। जिसमें अपनी पृथ्वी की तरह की हजारों पृथ्वियाँ भरी जा सकती है। सूर्य की परिक्रमा करने में यह 12 वर्ष का समय लेता है। इन बारह वर्ष में वहाँ का मौसम, अर्थात् हरियाली रहती होगी तो पूरे 4 वर्ष तक गर्मी और 4 वर्ष तक घनघोर घटाओं की धूम तथा चार वर्ष का जाड़ा संभव है।

इतना विशालकाय ग्रह किंतु उसका वेग इतना तीव्र है कि कुल 9 घंटे 40 मिनट में ही अपनी धुरी पर एक बार घूम जाता है। कुल 4 घंटे 55 मिनट का दिन और इतने ही समय की रात। पर वह छोटी-सी रात भी कितनी विचित्र की 12-12 चंद्रमा एक साथ ही वहाँ उजाला फैलाते हैं। शनि बेचारा बुरा ग्रह माना जाता है। किंतु ऐसा है नहीं। वह तो सार्वभौमिक नियमों का पालन करता है। 10 घंटा 14 मिनट में अपनी धुरी पर घूमने के अतिरिक्त वह साढ़े उन्नीस वर्षों में सूर्य की भी परिक्रमा करता है। यूरेनस पृथ्वी की 84 वर्ष में, तो अपनी निज की 10 घंटा 48 मिनट में नेपच्यून 165 वर्ष में एक बार सूर्य की प्रदक्षिणा करता है तो अपनी 15 घंटा 48 मिनट में। प्लूटो अपनी परिक्रमा साढ़े छह दिन में करता है लेकिन उसकी गति कुछ ऐसी मंद है कि अपने जीवनदाता की परिक्रमा करने में उसे पूरे 248 वर्ष लग जाते है।

महान सौरमण्डल के इन महान सदस्यों के अतिरिक्त कुछ ऐसे क्षुद्र ग्रह भी हैं जो ओछे और छोटे होने का परिचय निरंतर देते रहते है। कभी कक्षा बदल देते हैं कभी गतिविधियाँ। नियम और मर्यादाओं के उल्लंघन करने की चेष्टा में इन्हें अपनी चतुरता अनुभव होती है पर पाया इनने क्या? अस्त व्यस्त और अव्यवस्थित प्रतिक्रिया ही इन्हें भुगतनी पड़ती है। उपहासास्पद बनते हैं और क्षुद्र कहलाते हैं। प्रकृति इन्हें रखती तो नियंत्रण में ही है अन्यथा वे अपने को नष्ट करें और दूसरों को संकट पैदा करें। इसलिए उन्हें छूट भी एक सीमा तक मिलती है। इस उपलब्ध स्वतंत्रता का दुरुपयोग करके ये क्षुद्र ग्रह किस तरह अपनी गरिमा खो चले। महानता से च्युत होकर क्षुद्र परिस्थितियों में रहने लगे। इस तथ्य को यदि समझा जा सके तो मनुष्य महानता की गरिमा को ही स्वीकार करे और ग्रहों जैसी दुर्दशा में पड़ने से बचा रह सके।

खगोल शास्त्रियों ने क्षुद्र ग्रहों की पहचान के लिए इनके नंबर नियुक्त कर रखे हैं। ये हैं भी वस्तुतः बहुत वाचाल, चंचल और शरारती। 433 नंबर का क्षुद्र ग्रह ईरोस कई करोड़ मील दूर है पर घूमते-घूमते यह पृथ्वी से डेढ़ करोड़ मील पास तक चला आता है। 15.66 नंबर के इकारस जिसने सन् 1967 में पृथ्वी में तहलका मचा दिया था कहा जाता है कि उसके पृथ्वी से टकरा जाने की संभावना है। यह इतना दुस्साहसी ग्रह है कि सूर्य और बुध के मध्य वाले अत्यंत भीषण गर्म स्थान की भी परिक्रमा कर आता है।

हर्मेस नामक ग्रह भी इकारस की तरह सन् 1937 में पृथ्वीवासियों को डरा गया था। अब न जाने कहाँ चक्कर काट रहा होगा। वेस्टायों पृथ्वी से औसतन 22 करोड़ मील दूर का बौना ग्रह है पर वह भी शाँत नहीं-सूर्य की परिक्रमा करते हुए वह पृथ्वी के दस करोड़ मील पास तक चला आता है। यह सूर्य भगवान के आस-पास साढ़े तीन वर्ष में चक्कर काट लेता हैं, जबकि अपनी ही धुरी पर वह 10 घंटे 45 मिनट में घूम लेता है। घूमने में हाइडाल्गो को अपनी शान है वह कभी-कभी 9 चंद्रमा वाले शनि देवता से भी बिना डरे उनके आकाश तक घूम आता है। सूर्य स्वयं भी अपनी परिक्रमा कर अपने स्वत्व की रक्षा करता है, साथ ही विराट परमात्मा के प्रति अपनी निष्ठा की अभिव्यक्ति के लिए वह अपने समस्त परिवार के साथ दण्डवती परिक्रमा के लिए निकला हुआ है। यह विराट की परिक्रमा वह 25 करोड़ वर्ष में पूरी करता है। इसके लिए उसे प्रति सेकेण्ड दो सौ मील की गति से चलना पड़ रहा है, जबकि वह अपनी धुरी का चक्कर भी 25 दिन 7 घंटे और 48 मिनट में लगाता चल रहा है।

न केवल सूर्य वरन् विराट ब्रह्मांड का हर पिण्ड गतिशील है। हर कहीं में कर्ममय जीवन का उद्बोधन झर रहा है। हमारा सूर्य जिस आकाश गंगा से संबंधित है, वह और उससे दूर की आकाश गंगाएँ भी प्रकाश की सी भयंकर गति से कहीं जा रही है। समस्त सृष्टि का उद्गम किसी एक ही बिंदु से हुआ वहीं अनंत ब्रह्मांड की नाभि होगी। विराट चेतना भी उसी का अंश है। उस सार्वभौमिक सौर चेतना के दर्शन ही जब निर्जीव ग्रहों का लक्ष्य है तो मानवीय चेतना उसे जानने पहचानने की चेष्टा क्यों न करें? आकाशस्थ सूर्य और उसका परिवार अपने सहयोगी ग्रह-नक्षत्रों के साथ मात्र हीरे-मोती जैसी शोभा सुषमा ही नहीं बिखेरते बल्कि जीवन विद्या का महत्वपूर्ण शिक्षण भी देते हैं। हम यदि सूर्य के अलौकिक-आध्यात्मिक स्वरूप को समझ पाने में असमर्थ हैं तो कम से कम उसकी प्रत्यक्ष हलचलों से दृष्टिगोचर हो रही दैनन्दिन जीवन का मार्गदर्शन देने वाली इन गतिविधियों व घटनाक्रमों से यह शिक्षण ले सकते हैं कि हमारा जीवन कैसा सुगढ़-सुव्यवस्थित होना चाहिए। सूर्य ब्रह्मांड का अधिपति है, इसलिए सारे ग्रह-नक्षत्र तारे उसके चारों ओर भ्रमण करते हैं। किसी भी ग्रुप-लीडर जन सामान्य को मार्गदर्शन देने वाले सृजेता स्तर के व्यक्ति में क्या विशेषताएँ होनी चाहिए, इनका परिचय हम सूर्य भगवान के क्रिया–कलापों से मिलता है। कोई भी यूँ ही स्तुत्य आराध्य नहीं बन जाता। इसके लिए अपना जीवन क्रम व अपनी गतिविधियों को भी उस स्तर का बनाना पड़ता है जैसा कि भुवन-भास्कर का है। यदि हम यह शिक्षण हृदयंगम कर लें तो हम भी एक ज्योतिर्मय पिण्ड की तरह अपना लौकिक जीवन सफलताओं- कीर्ति–गाथाओं से भरा बना सकते हैं।


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