नवयुग की नयी संभावनाओं-नयी योजनाओं के विचारों में निमग्न हर विचारशील मन के सामने यह ज्वलन्त प्रश्न है-कि भविष्य में ऊर्जा का स्त्रोत क्या होगा? आज का समाज जिस तरह बौद्धिक एवं आर्थिक दृष्टि से संपन्न होता जा रहा है। तद्नुसार उसकी आवश्यकताएं बढ़ रही हैं। पूर्ति के साधन जुटाने के लिए अनेक वस्तुओं का उत्पादन करना पड़ता है और अनेक प्रकार की व्यवस्थाएँ जुटानी पड़ती हैं। इस सबके लिए अतिरिक्त शक्ति चाहिए ऊर्जा उत्पादन के लिए ईंधन अनिवार्य है। क्रमशः ईंधन की खपत बढ़ती जा रही है। जनसंख्या वृद्धि ने उस खर्च को और भी अधिक बढ़ा दिया है।
सन् 1800 में प्रति व्यक्ति 2 अश्व शक्ति बिजली प्राप्त थी पर अब यह पाँच गुनी बढ़ गयी है। व अब 10 अश्व शक्ति का उत्पादन औसत आता है।
ऊर्जा संबंधी माँग संसार में बेतरह बढ़ रही है। हर साल यह माँग इतनी बढ़ जाती है जितनी 3000 लाख टन कोयले से पूरी की जा सकती है। सन् 1900 से लेकर 1900 तक यह माँग तीन गुनी हो गई थी। 1950 से 1970 तक बीस वर्षों में ही फिर तीन गुनी हो गई। अब सन् 1995 तक पहुँचते-पहुँचते फिर वह माँग तिगुने से अधिक हो जायगी। इसके बाद संभव है हर वर्ष पिछले वर्ष की तुलना में यह आवश्यकता तीन गुने क्रम में बढ़ जाय।
अमेरिका की आबादी संसार की जनसंख्या का सातवाँ भाग हैं किन्तु उसकी आवश्यकता संसार में उत्पन्न बिजली का एक तिहाई भाग प्राप्त कर लेने पर ही पूरी हो पाती है। औसतन हर अमेरिकी इतनी बिजली खर्च करता है, जितनी 46 पौण्ड कोयला, 10 गैलन पेट्रोल आधे पिण्ट परमाणु शक्ति से उपलब्ध हो सकती है। संभावना यह है कि सन् 1995 तक वहाँ यह खपत दूनी हो जाएगी।
समस्त संसार में प्रस्तुत पर्यवेक्षण के अनुसार 48,656,000 लाख टन कोयले का भंडार है। इसमें भारत में प्रस्तुत घटिया-बढ़िया कोयले का कुल भंडार 1080000 लाख टन कूता गया है। यह कुल उत्पादन का 221 प्रतिशत है। जबकि अपने देश की जनसंख्या विश्व की आबादी का छठा भाग है। संसार भर में गैस भंडार 2300000 मेगाटन है, जिसमें भारत में केवल 41155 मेगाटन है।
संसार भर में जितना कोयला भंडार कूता गया है वह वर्तमान खपत क्रम को देखते हुए सौ वर्ष काम दे सकता है। किन्तु तेल के बारे में ऐसी बात नहीं। उससे पचास वर्ष का ही काम मुश्किल से चलेगा। भारत जैसे गरीब देश वन संपदा को नष्ट करके लकड़ी जलाते हैं और कृषि के लिए अत्यन्त उपयोगी खाद, गोबर को उपले बनाकर चूल्हा गरम करते हैं। यह अपने पैरों कुल्हाड़ी मारने की तरह है। वन काटने से वर्षा घटेगी और जमीन कटेगी। गोबर को जला लेने पर भूमि की उर्वरा शक्ति नष्ट हो जाएगी। रासायनिक खादों से तत्कालिक लाभ होता है, भूमि की उर्वरा शक्ति नहीं बढ़ती। अपने देश में भी घरेलू ईंधन के लिए दूसरे साधन ढूँढ़ने पड़ेंगे। साथ ही कल-कारखानों के लिए तेल, गैस, बिजली का उत्पादन बढ़ाने पर ध्यान देना होगा। विदेशों से तेल कोयला मँगाकर हम अपनी गर्दन दूसरों के हाथ-सौंपते हैं और अनिश्चित संभावनाओं में भटकते हैं।
अमेरिका के पास कोयला काफी है, वे सोचते हैं कि इस भंडार से अगले 80-90 साल तक मजे से काम चल जाएगा। पर वर्तमान तेल भंडार 10 वर्ष में प्राकृतिक गैस भंडार और यूरेलियम 13 साल में ही चुक जाएगा। अगले दिनों नई खदानें निकलें तो बात अलग है।
अमेरिका के बाद ऊर्जा की खपत करने वाले देशों में जापान का नंबर आता है। विकास की वर्तमान रफ्तार जारी रखने के लिए उसे अगले वर्ष 3000 लाख टन तेल की जरूरत पड़ेगी और दस वर्ष में वह आवश्यकता दूनी बढ़ जाने की संभावना है। उसका अपना तेल उत्पादन मात्र एक महीने के लिए ही हैं उसे अपनी आवश्यकता अन्य देशों से पूरी करनी पड़ती है।
पश्चिमी यूरोप के 9 देशों ने तेल आयात के लिए निश्चित नीति अपनाने के लिए यूरोपी इकोनामि कम्यूनिटी (ई.ई.सी.) बनायी है। यह लोग 60 प्रतिशत तल प्रधानतया अरब देशों से तथा छुटपुट अन्यत्र से खरीदते हैं। इनकी जरूरत बढ़ रही है और अगले पाँच वर्ष में वे अबकी अपेक्षा दूना अर्थात् 8080 लाख टन तेल आयात करने के लिए विवश होंगे। फ्राँस की दशा तो और दयनीय है उसका कोयला भंडार क्रमशः चुकता जा रहा है। दस सालों पहले उसका कोयला उत्पादन 550 लाख टन था पर अब वह घटते-घटते 300 लाख टन रह गया है। आगे यह गिरावट और भी बढ़ेगी।
ब्रिटेन के अर्थशास्त्री स्टेनी जेवोन्स ने अपने ग्रन्थ “ द कोल क्कि ष्चन एम इन्क्वारी “ में लिखा है आज कोयले के आधार पर जो देश अपने उद्योग चला रहे हैं, उन्हें पीछे लौटना पड़ेगा और इस जस्टी समाप्त होने वाले ईंधन का आधार छोड़कर नए ऊर्जा साधन ढूंढ़ने पड़ेंगे।
विज्ञानविद् टोनी लोफटास ने गरीब देशों को सलाह दी है कि वे पनचक्की जैसे साधनों से छोटे बिजली घर बनाए। परावलंबी साधनों के आधार पर बनाई गई उनकी लम्बी चौड़ी योजनाएँ अन्ततः उन्हें पश्चाताप ही प्रदान करेंगी।
मध्य पूर्व और अफ्रीका में संसार के तेल भंडार का 66 प्रतिशत है। जब कि वहाँ खपत 4 प्रतिशत ही है। संसार की तेल आवश्यकता को देखते हुए यह देश अपने दाम बढ़ा रहे हैं, फलतः ऊर्जा महँगी ही नहीं अनिश्चित भी होती जाती है। तेल देशों ने अपनी अच्छी स्थिति को राजनीतिक सौदेबाजी का मुहरा भी बना लिया है। इसलिए उनका रुख कब किस देश के लिए क्या होगा, इस संबंध में कुछ भी कहा नहीं जा सकता।
ब्रिटेन के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं आस्टन विश्वविद्यालय के कुलपति डॉक्टर जे. ए. पापा ने हिसाब लगाकर बताया है कि जिस गति से आजकल पेट्रोल खर्च हो रहा है, उसी गति से वह खर्च होता रहे तो अब तक उपलब्ध तेल स्रोतों का सारा भंडार पच्चीस वर्षों में समाप्त हो जाएगा। किन्तु यदि पेट्रोल के खर्च में थोड़ी-सी अर्थात् 5 प्रतिशत भी वृद्धि हुई तो वह पन्द्रह वर्षों में ही चुक जाएगा। आशा की गई कि अभी नए तेल स्त्रोत और मिल सकते हैं। इस संभावना को स्वीकार करते हुए डॉ. पापा ने कहा है कि यदि यह उपलब्धियाँ अबकी तुलना में 5 गुनी बढ़ जांय तो 50 वर्ष तक, दस गुनी बढ़ जाएँ तो 60 वर्ष तक और 20 गुनी बढ़ जांय तो 78 वर्ष तक ही धरती का पेट्रोल मोटरें चलाने में काम दे सकेगा।
औद्योगिक ऊर्जा में 97 प्रतिशत तेल, कोयला आदि अतिरिक्त ईंधनों का प्रयोग होता है। इनके जलने से जो कार्बन नाइट्रोजन, सल्फर डाई आक्साइड आदि बनते हैं, उनसे जहरीली हवा, पैदा होती है और वायुमंडल को खराब करती है। इसी प्रकार परमाणु
त्रिसन्ध्यमर्चयेत् सूर्य स्मरेद्भवस्या तु यो नरः। न स पश्यति दारिद्यजन्मजन्मनि चार्जुन॥
(भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं) हे अर्जुन ! जो मनुष्य प्रातः मध्याह्न और सायंकाल सूर्य की अर्घ्यादि से पूजा और स्मरण करता है वह जन्म-जन्मान्तर में कभी दरिद्र नहीं होता सदा धन धान्य से समृद्ध रहता है।
विस्फोटों में जो विषाक्त विकिरण पैदा होता है उनसे जल-थल और नभ में विचरण करने वाले प्राणियों के लिए अनेकों विभीषिकाएँ पैदा होती हैं। बड़ी भट्टियाँ पृथ्वी के वायुमंडल की लगातार गरम कर रही हैं। यह बढ़ती हुई गर्मी मौसमी संतुलन को बिगाड़ने, ध्रुव प्रदेशों की बर्फ पिघलाकर समुद्री बाढ़ में बहुत-सी धरती डुबा देने जैसी संभावनाएँ खड़ी कर सकती हैं। इन कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए विचारशील वर्ग द्वारा वृद्धि और विकास की सीमा निर्धारण करने की माँग जोरों से उठाई जा रही है, अन्यथा प्रगति के नाम पर चल रही अन्धी दौड़ कुछ ही समय में सर्वनाश के दृश्य उपस्थित कर सकती है।
ईंधन की बढ़ती माँग को प्रकृति के वर्तमान स्त्रोत पूरा नहीं कर सकते हैं। धरती के स जितना मसाला है वह बहुत दिन चलने वाला नहीं है। निकट भविष्य में कोयला खत्म होने को है। जलाऊ लकड़ी की कमी तो अभी ही पड़ रही है। तेल का दुर्भिक्ष अगल कुछ ही वर्षों में पूरी तरह उभर कर आ जाएगा। एक शताब्दी के अंदर तक तो तेल और कोयला कहीं दीख भी नहीं पड़ेंगे। उन्हें पूरी तरह धरती में से निकाल कर खत्म कर लिया जाएगा। बिजली का उत्पादन उन्हीं प्राकृतिक ईंधनों द्वारा चलने वाले यंत्रों से होता है। जल प्रपातों से उस उत्पादन में मदद तो मिलती है। फिर भी जरूरत तो प्राकृतिक ईंधन की बनी रहेगी। बिजली का उत्पादन सर्वथा स्वावलम्बी नहीं हो सकता, उसे तेल कोयला आदि की पराधीनता से सर्वथा मुक्त किया जाना बड़े पैमाने पर कठिन है। छुट-पुट बैटरियाँ बन जांय तो बात दूसरी है।
परमाणु ऊर्जा की समस्या पाँप-छछूँदर जैसी है, न खाते बनती है न उगलते। इतने बड़े शक्ति स्रोत की अपेक्षा कैसे की जाय? एक ओर यह लालच खाए जाता है, और दूसरी ओर उसकी विषाक्त राख जो बचती है उस जल-थल नभ में कहीं छोड़ने से खैर नहीं यह विभीषिका मुँह बांये खड़ी है। इसलिए पचास भी नहीं बनता। यों अणु भट्टियाँ बनाने और चलाने के दुस्साहसी कदम उठ चुके हैं, पर उत्साह से भी अधिक असमंजस छाया हुआ है। इसलिए परमाणु ऊर्जा अभी त्रिशंक की तरह अधर में लटकी हुई हैं उसके प्रयुक्त होने, बहिष्कृत होने की संभावनाएँ पचास-पचास फीसदी हैं। समय ही बतायेगा कि उसे पचाया गया या उगला गया। अभी तो उसे गले में अटकी हड्डी की तरह ही कह सकते हैं।
थक-हार कर विज्ञान और वैज्ञानिक अब इस ओर मुड़े है कि जब विश्व-व्यापी शक्ति का उद्गम स्रोत सूर्य है तो फिर सौर ऊर्जा का सहारा लेकर ही शक्ति की समस्त आवश्यकता क्यों न पूर्ण की जांय? अन्य स्रोतों की अपेक्षा वह अधिक निर्दोष और अधिक सुलभ है। ईंधन के लिए वैज्ञानिकों के मन में उठने वाली सविता आराधना की सोच कुछ गैर वाजिब नहीं है। जीवन उसी से मिला हैं धरती की समस्त जड़-चेतन हलचलें उसी की कृपा से चल रही है। भविष्य की ईंधन समस्या सहित अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हमें उन्हीं की शरण लेनी पड़ेगी।
पृथ्वी पर जितनी सूर्य शक्ति अवतरित होती है, उसका 99 प्रतिशत बेकार चला जाता है, केवल 1 प्रतिशत का ही कुछ उपयोग हो पाता है। सारी पृथ्वी पर जितनी शक्ति का व्यय होता है, उससे 20 हजार गुनी शक्ति सूर्य निरन्तर पृथ्वी पर भेजता रहता है।
सूर्य ऊर्जा अतुलनीय है। किसी राजस्थानी रेगिस्तान के सौ वर्ग मील टुकड़े की सूर्य शक्ति यदि वशवर्ती की जा सके तो उससे पूरे भारत की शक्ति आवश्यकता मजे में पूरी हो सकती है। सूर्य शक्ति और अणु ऊर्जा का स्तर एक ही है। पर सूर्य किरणें आठ मिनट की यात्रा करके जब धरती पर पहुँचती हैं तो वे इतनी हलकी हो जाती हैं कि प्राणी और वनस्पति उसका सुकोमल स्पर्श सुखपूर्वक कर सकते हैं और लाभ उठा सकते हैं। इसके विपरीत धरती पर उत्पन्न की गई अणु ऊर्जा किसी बलिष्ठ दैत्य के समान है, उसका उपयोग केवल ऐसे ही कामों में हो सकता है जो गर्मी का तीव्र दबाव सहन कर सके।
वैज्ञानिकों ने सौर-ऊर्जा का उपयोग करने का पहला सफल प्रयोग सोलर-बैटरियों के रूप में किया है। रूस, इंग्लैण्ड, अल्जीरिया, लेबनान, अमेरिका, जापान, इटली, फ्राँस आदि देशों ने छोटे पैमाने पर सौर-ऊर्जा
आदित्य के द्वादश नाम आदित्यःप्रथमं नाम द्वतीयं तु दिवाकरः। तृतीयं भास्करः प्रोक्तं चतुर्थ तु प्रभाकरः॥ पंचमं तु सहस्त्राँषुः षष्ठ त्रैलोक्य लोचनः। सप्तम हरिदष्वष्व अष्टमं च विभावसुः॥ नवम दिनकरः प्रोक्तं दषमं द्वादषात्मकः। एकादष दयोमूर्तिः द्वादश सूर्य एव च॥
उत्पन्न करने और उसका उपयोग ताप एवं विद्युत के रूप में करने के कारखाने बनाम हैं। इन प्रयोगों के परिमाण का अध्ययन दिलचस्पी एवं बारीकी से किया जा रहा है और पता लगाया जा रहा है कि सौर ऊर्जा को बड़े पैमाने पर सार्वजनिक उपयोग के लिए किस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है।
तत्वदर्शी महामनीषियों ने शरीर को सूर्य संपर्क में रखकर जीवनी शक्ति प्राप्त करने और मनोभूमि सविता देवता की आराधना करके ओजस्वी-तेजस्वी एवं ब्रह्मवर्चस् संपन्न बनाने का साधना विज्ञान निर्मित किया था। अब भौतिक विज्ञानी भी हर दिशा से निराश होकर सूर्य देवता की शरण में जाने की तैयारी कर रहे हैं। इसे सही दिशा में उठाया गया सही कदम ही कहना चाहिए। इसके परिणाम स्वरूप-सुनिश्चित रूप से नवयुग की मानवी सभ्यता सविता देवता के अनुदानों को ऊर्जा संसाधन और शक्ति स्रोत के रूप में उपलब्ध कर सकेगी।