सूर्यार्घ्यदान करके उसकी दृष्टि किनारे खड़े याचकों पर घूमी। सभी की जरूरतें पूरा करने के बाद उसने सामने खड़े ब्राह्मण देवता को प्रणाम करते हुए पूछा आपकी क्या सेवा करें देव? प्रश्न के उत्तर में ब्राह्मण ने कहना शुरू किया। महात्मा कर्ण! मैंने तुम्हारी दानशीलता की बड़ी प्रशंसा सुनी। मैं भी कुछ माँगने आया हूँ, दे सकोगे । कर्ण ने मुस्कुराते हुए कहा-मेरे आराध्य भगवान भास्कर समूचे विश्व ब्रह्मांड को जीवन प्रकाश, प्रेरणा, ऊर्जा सभी कुछ देते हैं। देना ही उनका व्रत है और आराधना का रहस्य देवो भूत्वा देवं यजेत्-अर्थात् देवता बनकर देवता की आराधना करने में है। फिर मैं क्यों अपने उपास्य से पाये दान के सद्गुणों को खोने लगा। विप्र तुम निर्भीक होकर माँगो।
कवच और कुण्डल जो सूर्य की कृपा से तुम्हें प्राप्त हुए हैं। जिनके कारण तुम अजेय हो। बस इतना ही, कर्ण हँसा यश, प्रतिष्ठा राज्य वैभव के लोभ से कही अधिक प्रिय आराध्य की सद्गुण सम्पत्ति है, देवराज इंद्र। कर्ण की दिव्य दृष्टि से ब्राह्मण वेशधारी इंद्र का रहस्य छुप न सका। संकुचित भाव से कवच कुण्डल को स्वीकारते हुए भाव विह्वल कण्ठ से कहे जा रहे थे धन्य हो तुम और धन्य है तुम्हारी सूर्योपासना।