क्षुब्ध मन में उन्होंने राजा दिवोदास ऋषि जमदग्नि सहित पास खड़े सभी आर्यों से पूछा आखिर क्यों ? यह गर्हित प्रताड़ना पशु से भी गया-बीता जीवन जीने के लिए इन्हें किसलिए विवश किया जा रहा है? तुम नहीं समझोगे विश्वरथ। ये दस्यु हैं, असभ्य , असंस्कृत और जंगली। इनकी आकृति भर मनुष्यों की है, प्रकृति नहीं। दिवोदास ने कहा।
उत्तर सुनकर वह कुछ सोचने लगे। आर्यों और दस्युओं के पीढ़ियों से चले आ रहे संघर्ष ने उन्हें व्यथित कर रखा था। अचानक उनकी करुणा ने संकल्प कर रूप लिया। संकल्प शब्दों में गूँज उठा-मानवीय चेतना में क्राँति हो सके इनसानी शरीर में दैवी प्रकृति सक्रिय हो सके मैं ऐसी विद्या की शोध करूंगा। संकल्प के स्वर सूर्य साधना में बदल गये। निरंतर गहरी होती जा रही सविता देव की साधना अनेकों रहस्य प्रकट करने लगी। आखिर एक दिन परम रहस्य प्रकट हुआ। चारों दिशाओं में खबर फैल गयी-विश्वरथ ने गायत्री महाविद्या की खोज की है। वह दस्युओं को भी आर्य बनायेंगे। स्वरों ने सक्रियता धारण की, दस्युनेता शम्बर की कन्या उमा के साथ अनगिनत दस्यु आर्य बनने लगे। ‘तत्सवितुर्वरेण्यं...की मंत्र ध्वनि के साथ समूचे आर्यावर्त ने विश्वरथ को विश्व का मित्र विश्वामित्र स्वीकार किया। ‘