एक परमाणु-सौरमण्डल की सूक्ष्म अनुकृति है। उसका मध्यभाग केन्द्रक-हमारे सौरमण्डल के सूर्य का प्रतिनिधित्व करता है। परमाणु के इस केन्द्रक सूर्य के चारों ओर इलेक्ट्रान उसी तरह घूमते रहते है जिस तरह कि सौरमण्डल के घेरे में जिस प्रकार बहुत बड़ा आकाश रहता है, उसी तरह परमाणु मण्डल के बीच भी पोल रहती है। विभिन्न सौर मण्डलों की स्थित में एक-दूसरे से पर्याप्त भिन्नता होती है। इसी प्रकार परमाणुओं के वर्गों के भीतरी भाग में भारी भिन्नता रहती है। यद्यपि वे बाहर से एक जैसे दिखते है। यूरोनियास्क के एक परमाणु में 12 इलेक्ट्रान होते है। कार्बन में उनकी संख्याएं केवल छः होती है।
प्रत्येक मनुष्य एक ब्रह्मांड है। उसकी आत्मा सूर्य के समान है, जिसके इर्द-गिर्द परमाणु भ्रमण करते रहते हैं। मानवी काया में भ्रमण करने वाले अणु जीवाणु एक विशेष प्रकार की विद्युत उत्पन्न करते है। उसी विद्युत से प्रभावित होकर मस्तिष्क से लेकर इंद्रियां तथा अन्य अव्यय अपना काम करते है। जड़ में चेतना उत्पन्न होने का माध्यम यही है। साधारणतया अणुओं में हलचल ही रहती है। चिंतन तथा अनुभूति उनमें नहीं है, पर मानवीय विद्युत जिसे ‘प्राण’ कहा जाता है। जड़ अणुओं के समूह में चेतना, विचारणा और अनुभूत उत्पन्न कर देती हैं, और सजीव जीवन आरम्भ कर देती हैं। निर्जीव अनुभूति रहित जीवन तो पत्थर, चट्टानों में भी रहता है।
पृथ्वी के ध्रुवों के आस-पास चुम्बकीय आंधियां चलती रहती है। अस्थिर रंग बिरंगा प्रकाश “आरोरा बोरिएलिस” के रूप में छाया रहता है। यही ध्रुव स्थान अन्य ग्रहों के विकरण प्रकाश एवं प्रभाव को पृथ्वी पर लाता है और यहाँ की विशेषताओं को अन्य लोकों तक ले जाता है। इस ध्रुवीय क्षेत्र के ब्रह्मांड का संपर्क सूत्र कह सकते है। इन ध्रुव केन्द्रों के माध्यम से चलने वाले अंतर्ग्रही प्रत्यावर्तन के बलबूते ही धरती अपनी वर्तमान परिस्थितियों में बनी हुई है। इतना ही नहीं अन्य ग्रहों की वर्तमान परिस्थितियों में भी इन भू-ध्रुवों में चलने वाले अनवरत प्रत्यावर्तन का महान योगदान है। यदि किसी कारण ये महान आदान-प्रदान बंद हो जाये तो पृथ्वी की स्थिति में इतना विषम परिवर्तन होगा कि तब यहाँ जीवन का अस्तित्व ही संदिग्ध हो जायेगा। साथ ही ग्रहों की कक्षाओं एवं स्थितियों में परिवर्तन होने से सौर मण्डल की प्रस्तुत गतिविधियों में भारी उलट-पुलट हो जायेगी। भू-ध्रुवों के माध्यम से होने वाला प्रत्यावर्तन ही अपने सौर मण्डल की वर्तमान परिस्थिति बनाये हुए है। तनिक से क्षेत्र में होने वाला तनिक-सा क्रिया−कलाप पृथ्वी, सौरमण्डल और उस सौरमण्डल के महासूर्य के प्रदक्षिणा क्रम में कितना भारी योगदान कर रहा है इस तथ्य पर जितनी गहराई से विचार किया जाये उतना अधिक मार्मिक रहस्योद्घाटन होता चला जाता है।
मनुष्य का अन्तःकरण भी ऐसा ही चेतना का ध्रुव संस्थान है। उसके भीतर इच्छा शक्ति, भावना शक्ति, संकल्प शक्ति, आकर्षण शक्ति, विकर्षण शक्ति जैसी अगणित ज्ञात और अविज्ञात क्षमतायें भरी पड़ी है। यदि उन्हें जागृति किया जा सके, उनका उपयोग करना सीखा जा सके तो विश्व ब्रह्मांड में समस्त शक्तियों का प्रवाह मानवीय सत्ता के भीतर उमड़ता-प्रकट होता, अनुभव किया जा सकता है। मानवीय अन्तःकरण सौरमण्डल का कार्य करने का पथ प्रशस्त करते रहने वाले आकाश की तरह ही असीम है और उसमें जो कुछ भरा पड़ा है उसे अंतरिक्ष आकाश से कही अधिक शक्तिशाली समझा जाना चाहिए। इतना सब होते हुए भी पता नहीं किस कारण हम अपनी करतल गति संपदा से अपरिचित बने हुए है। यदि इसी प्रकार अपने मूल ऊर्जा स्रोत से संपर्क स्थापित किया जा सके तो नाभिकीय महासागर की तरह चैतन्य ऊर्जा से जुड़कर व्यष्टि सत्ता से असंभव से असंभव भी संपन्न कर दिखाया जा सकता है। सूर्य सविता मानव का उपास्य या इष्ट है। उपास्य से एकाकार होना ही जीवात्मा का लक्ष्य है। कैसे ये संभव हो, यही सूर्य विज्ञान हमें बताता है।