अपनों से अपनी बात - साक्षात् सूर्य रूप में सक्रिय हमारी गुरुसत्ता

June 1993

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कानपुर के एक सिद्ध पुरुष जो अब नहीं है इस धरती पर उनके द्वारा 1986 में कही एक बात आज सहज याद हो आती है, जब परमपूज्य गुरुदेव की सत्ता का ध्यान कर सूर्य साधना के संदर्भ में हंस उनको ही स्मरण कर रहे है। वे एक सिद्ध ताँत्रिक थे। जिसे आशीर्वाद देते, फल जाता। कभी-कभी शाँतिकुँज आते, यहाँ 5-6 दिन रहते, फिर कानपुर चले जाते। सशरीर किसी तीर्थ नहीं गए थे, किन्तु जब मित्र मंडली के साथ बैठते तो सभी का ऐसा जीवन्त चित्रण करते कि सभी ये समझते कि ये होकर अवश्य आए है। बताते, “जब सोता हूँ तो सूक्ष्म शरीर में एक -एक सारे तीर्थ घूम आता हूँ।” वास्तव में था भी ऐसा ही साधारण पोस्ट–ऑफिस के एक कर्मचारी किंतु साधना द्वारा सिद्धि तो इतनी प्राप्त करली थी कि जिसे जो देते बाँटते-वह तुरंत फल जाता। जब उन्हीं सज्जन ने हम से इच्छा व्यक्त की कि अब हमें गुरुदेव से दीक्षा दिलवा दो नहीं तो हम जन्म-जन्मान्तरों तक भटकते रहेंगे, बड़ा आश्चर्य हुआ।

हमने पूछा-”आपको दीक्षा को क्या जरूरत है? आप तो गायत्री अनुष्ठान काफी कर चुके है तथा सिद्धियाँ इतनी हस्तगत कर चुके है कि कोई कभी उस दृष्टि से नहीं, फिर अनायास ही यह इच्छा क्यों व्यक्त की?” बोले-”तुम समझते हो, मैं शाँतिकुँज घूमने के लिए आता हूँ। अरे ! यहाँ दैवीसत्ताएँ रहती है, स्वयं महाकाल यहाँ विराजते है। तुम्हारी गुरुसत्ता को मालूम नहीं तुमने कैसा देखा-समझा है पर जो मैंने देखा है, उससे लगता है, एक बहुत बड़ी परिवर्तन प्रक्रिया संपन्न करने युगों-युगों के बाद साक्षात् महेश्वर की सत्ता उनके व माँ पार्वती के रूप में धरती पर आयी है। हम उनसे दीक्षा ले लेंगे तो भवसागर से पार हो जायेंगे। फिर हमारे शरीर छोड़ने का समय आ गया है एवं गुरुदेव भी अब चार वर्ष बाद सूक्ष्म शरीर में प्रवेश करने जा रहे हैं। यही उचित समय है।”

जिज्ञासा अभी शाँत नहीं हुई थी। हमने कहा-”आप भी तो एक सिद्ध पुरुष है, फिर दीक्षा अब क्यों?” भई ! अब भी नहीं समझे? हमारे पास जो ये सिद्धियाँ है, तंत्र के लटके-झटके है, ये तो सामाजिक है। किसी को भी प्रभावित कर सकते हैं किन्तु जो पूज्यवर के पास है, वह सहज ही किसी को बंधन मुक्त करने को काफी है। हम यदि एक छोटे से बल्ब है तो पूज्यवर सूर्य से भी बड़ी शक्ति वाले ऊर्जा के स्त्रोत है। अब तक का विश्व का सबसे बड़ा प्रयोग उनने मानवी चेतना पर किया है। उनने सूर्य से भी शीर्षासन करा लिया है तथा स्वयं उनकी सत्ता सूर्य से एकाकार हो सावित्री उपासना, सूक्ष्मीकरण प्रक्रिया द्वारा सारे ब्रह्मांड में संव्याप्त हो गयी है। तुम देखना, यही सत्ता सूक्ष्मशरीर में जाने के बाद कैसे अपना प्रभाव दिखाती है। हम तो अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते है। ऐसे संदेश जो सहज ही हर किसी को नहीं मिलते युगों-युगों तक जिन्हें पाने को दैवी आत्माएँ तरसती रहती हैं, तुम सबको यहाँ मिल गए। तुम सब यहाँ आ भी गए उनके काम में भी लग गए। अब जरा उन्हें पहचान भर लो फिर देखो हमारी ताकत तो तुम्हारे समक्ष भी कुछ भी नहीं के समान है। बस तुम तो हमारा कल्याण करा दो, हमें दीक्षा दिला दो ताकि पुनः इस धरती पर ना आएँ-जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो। उनकी यह सहज अभिव्यक्ति, गुरुदेव से ली गयी उनकी दीक्षा, फिर उनका शरीर छोड़ना तथा कुछ वर्ष बाद ही पूज्यवर का ब्रह्मलीन हो सूर्य से एकाकार हो जाना सारा दृश्य आँखों के समक्ष घूम जाता है।

सुधी पाठकों को यह वृत्तान्त इसलिए लिखा है कि वे जान सकें कि एक उच्च स्तर की आध्यात्मिक प्रगति के लक्ष्य तक पहुँचे साधक की हमारी गुरुसत्ता के में क्या धारणा थी व किस गहन अंतर्दृष्टि से उसने कर्तव्य आध्यात्मिक स्वरूप को पहचाना था। स्वयं परम पूज्य गुरुदेव के कहे वे शब्द इन पंक्तियों को लिखते समय सहज की स्मृति पटल पर आ जाते हैं, जिनमें उनमें था कि “साकार ध्यान करो व सूर्य का ध्यान करना चाहो तो तुम मेरा ध्यान करो। मेरे ध्यान से तुम्हारा सूर्य का ध्यान हो जायगा।” वास्तव में ध्यान करते समय यही पाया, मानों गुरुसत्ता सूर्य में समायी हो। सूर्य मध्यस्थ गायत्री की तरह उनका ध्यान करते ही सहज ही लग जाता एवं सारी मन की ग्रंथियाँ, परेशानियां खुलती व समाधान सदा मिलता पाया। वस्तुतः गुरुदेव की सत्ता सूर्य से एकाकार हो गयी थी, इसमें कोई संदेह नहीं।

गायत्री साधना रम पूज्य गुरुदेव ने गहन स्तर की संपन्न की तथा उससे मानव मात्र की अंतःप्रकृति के परिशोधन की प्रक्रिया पूरी की। साथ ही सावित्री साधना का प्रयोग उनने बाह्य प्रकृति के परिशोधन के निमित्त किया व अभी भी सूक्ष्म कारण सत्ता से वही कर रहे हैं। सूर्य सम बन की कोई अवतारी स्तर की सत्ता युग परिवर्तन जैसा भागीरथी कार्य संपन्न कर सकती है। इससे कम में तो बात बन ही नहीं सकती। गायत्री व सूर्य हमारी संस्कृति के प्राण है। जब तक भारतवर्ष के देवमानव भगवान भास्कर की गायत्री मंत्र के माध्यम से उपासना करते रहें, तब तक भारत ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी, स्वस्थ-प्रसन्न एवं सर्वांगपूर्ण प्रगति के पथ पर अग्रगामी रहा। जब-जब अनीति व असुरता बढ़ी है तब-तब अवतारी लताओं ने सूर्य का ही आश्रय लेकर मानवी प्रकृति में व्यापक स्तर पर परिवर्तन किया है। -सूर्य में प्रखरता है, गति हैं, ऊर्ध्वगामी चिन्तन को गतिशील करने की सामर्थ्य है तथा विचारों को विकार मुक्त की भाव संवेदनाओं की परिष्कृति कर पाने की ताकत है। यही कारण है कि गुरुसत्ता, परिवर्तनकारी सत्ताएँ तत्कालीन परिस्थितियों में इष्ट का निर्धारण मानव मात्र के लिए करती रही है। कपिल तंत्र में एक उल्लेख आता है।

गुरवो योग निष्णाताः प्रकृतिं पंचधा गताम्। परीक्ष्य कुर्युः षिष्याणामधिकार विनिर्णयम्॥

अर्थात् “योग पारंगत गुरुओं को चाहिए कि वे शिष्यों की प्रकृति एवं प्रवृत्ति की तत्वानुसार (पंवधा) परीक्षा कर उनके उपासनाधिकार अर्थात् इष्टदेव का निर्णय करें। कौन-कान हो सकते हैं-आकाश के अधिपति विष्णु, अग्नि की अधिष्ठात्री महेश्वरी, वायु तत्व के स्वामी सूर्य, पृथ्वी के नायक शिव एवं जल के अधिपति भगवान गणेश, इनमें से कोई भी इष्ट हो सकता है, ऐसा श्रुति कहती है।

गायत्री व सूर्य में इन पाँचों ही सत्ताओं का समावेश हो जाता है तथा साधना सर्वांगपूर्ण बन जाती है, ऐसा परम पूज्य गुरुदेव ने युग-परिस्थिति को देखते हुए हम सभी को बताया। पूज्यवर करते हैं कि “यह सुनिश्चित है कि युग परिवर्तन होने वाला है व उसकी मूल धुरी अब भारतवर्ष है। सारी धरती का अध्यात्म अब सिमटकर यहाँ आ गया है व नवयुग का सूर्योदय स्वर्णिम आभा लिए यहीं से होगा।” इस उक्ति को सार्थक करने के लिए संभवतः विगत ढाई सौ वर्षों में पुनः सतयुग की वापसी करने व दो सहस्र वर्षों के अंधकार को मिटाने सर्वाधिक महामानव भारतवर्ष में ही जन्मे। जो कार्य इन ढाई सौ वर्षों में विगत सौ वर्ष में हुआ है वह विश्व के इतिहास में इतनी तीव्रता से पहले कभी नहीं हुआ। पूज्यवर लिखते हैं कि आगामी 8-9 वर्षों में जो कार्य होगा वह इससे भी विलक्षण होगा, जब मानव की प्रकृति सोचने की पद्धति तथा विश्वभर के सूक्ष्म वातावरण में अभूतपूर्व परिवर्तन होता देखा जाएगा। कैसे होगा यह सब? यही सारा मर्म सूर्यमय बनने वाली हमारी गुरुसत्ता हमें समझाकर गयी व इक्कीसवीं सदी के रूप में उज्ज्वल भविष्य वाणी कर गयी है।

आख्या संकट के निवारणार्थ-मानवमात्र में पवित्रता के अभिवर्धन हेतु आज जिस शक्ति की आवश्यकता है वह संहिता देवता ही है। तैत्तरीय संहिता में ऋषि कहते हैं -

“सूयौं विषष्चिन्मनसा पुनातु” अर्थात्” हे सर्वज्ञ

कृपापूर्वक मुझे अपने मन से पवित्र करें। संभवतः इसी कारण ऋषिगण आदिकाल से

थोऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्” (यजु. वा. स. 40/17)

के माध्यम से आदित्य मंडलस्थ पुरुष की चेतन सत्ता के रूप में अभ्यर्थना करते आए हैं। शुक्ल यजुर्वेद (31/18) में ऋषि का कहना है-

“वेदाहमेतं पुरुष महान्तमादित्य वर्ण ......... नान्यः पंथा विद्यतेऽयनाय। “में आदित्य रूप वाले सूर्यमंडलस्थ महान पुरुष को जो अंधकार से सर्वथा परे, पूर्ण प्रकाश देने वाले और परमात्मा हैं, उनको जानता हूँ। उन्हीं को जानकर मनुष्य को लाँघ जाता है। मनुष्य के लिए मोक्ष प्राप्ति का दूसरा कोई अन्य मार्ग नहीं है।” यह स्तुति अकारण नहीं है। ऋषियों ने प्राणरक्षक, रचयिता, पुष्टिप्रदाता के रूप में सूर्य की अवधारणा की व कहा है कि “हम दीर्घकाल तक सर्वव्यापी प्रकाश वाले सूर्य भगवान का सतत् दर्शन करते रहें, यही हमारी प्रार्थना है “ज्योगेव दृषेम सूर्यम्” अथर्वेवेद 1/31/4)

परमपूज्य गुरुदेव ने मार्च 1977 से मई 1977 तक चारमाह सतत् अखण्ड-ज्योति के विशेषांकों द्वारा

*समाप्त*


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