सूर्य हाइड्रोजन-हीलियम का चमकता गोला भर है, अथवा देवता जिसकी उपासना वैदिक ऋषियों ने की। जो आज भी गुह्य विद्या के मर्मज्ञों का उपास्य है अथवा यह स्वयं सर्वव्यापी परमात्मा है। गायत्री महाविद्या के साधक जिससे एकत्व की अनुभूति करते हैं। पहेली विचित्र है, जो एक है वह तीन कैसे हो सकता है? तीनों एक में किस तरह समाहित हो सकते हैं? सवाल जितना उलझा हुआ है जवाब उतना ही सरल है।
संसार के हर तत्व की तरह सूर्य तत्व भी त्रिस्तरीय त्रिआयामी है। ये तीन आयाम हैं आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक। देवसत्ता आधिदेवत रहस्य है। मूल कणिकाएँ और भौतिक ऊर्जा विकिरण उसके भौतिक पक्ष हैं। चेतनात्मक व्यापकता इसकी आध्यात्मिकता अभिव्यक्ति है। सूर्य की तरह अग्नि वरुण आदि के संबंध में भी यही बात है। भारतीय मनीषियों ने इसको समझते हुए तीनों ही स्तरों पर उनका विवेचन विश्लेषण किया है।
इन तीनों रूपों को समझने के साधन-उपकरण माध्यम और विधियाँ अलग-अलग होती हैं। सिर्फ भौतिक विज्ञान द्वारा इन तीनों स्तरों का ज्ञान संभव नहीं होगा। आजकल का विज्ञान आधिभौतिक स्वरूप की ही खोज-बीन में जुटा हुआ है। आधिदैविक रहस्य को समझने के लिए उपकरण भी आधिदैविक ही चाहिए। भौतिक पदार्थों से बने हुए उपकरण चाहे कितने सूक्ष्म हों वे पदार्थ के रहस्य की ही खोज कर पायेंगे। भारतीय तत्वदर्शन में वर्णित देवोपासना को विज्ञान इन्हीं आधिदैवत, रहस्यों को खोजने की विद्या है, जिसके द्वारा वरुण, अग्नि, इंद्र, सूर्य, गणेश, सरस्वती, सोम, उषा, सूर्य, धन्वन्तरि, बृहस्पति आदि देव शक्तियों से संपर्क किया जा सकता है। यही नहीं उनकी विशिष्ट शक्ति-सामर्थ्य से स्वयं को समर्थ और बलवान बनाया जा सकता है। काल के प्रवाह में यह रहस्यमयी विद्या गुप्त भले हो गयी हो पर लुप्त नहीं हुई है। सभी देवता परमात्मा की विभिन्न अलौकिक शक्तियाँ हैं। किसी के भी आश्रय से उस परम प्रभु को प्राप्त करने का विज्ञान था, उसे अब केवल कल्पना ही समझा जाता है।
कणोपनिषद् में नचिकेता यम से प्रश्न करता है-
स त्वमग्नि स्वर्ग्यमध्येषि मृत्यो प्रब्रूहिं तं श्रद्दधानाय-मह्यमे। र्स्वगलोका अमृतत्वं भजतं एतद् द्वितीयेन वृणे वरेण॥
“हे यमराज! आप स्वर्ग की साधनभूत अग्नि को जानते हैं। 1-1-13
मैं श्रद्धाप्लावित होकर आपसे पूछता हूँ कि जिनके द्वारा स्वर्गीय पुरुष अमृतत्व प्राप्त करते हैं, उस अग्नि का वर्णन कीजिए।” यह सवाल सुनकर आचार्य यम कहते है-
प्रते ब्रवीमि तदुमे निबोध स्वर्ग्यमग्नि नचिकेतः प्रजानन। अनंत लोकाप्तिभयो प्रतिष्ठो, विद्धि त्वमेतं निहितं गुहायाम् -कठ 1-1-14
“हे नचिकेता! मैं तुझे अच्छी प्रकार अग्नि का उपदेश देता हूँ। वह अग्नि स्वर्ग को प्रदान करने वाली है। अनंत लोक की प्राप्ति कराने वाली है। उसका आधार बुद्धि रूपी गुह्य में निहित है। तू उसे अच्छी प्रकार समझ लें। “
इस मंत्र में निश्चित रूप से अग्नि के परमाणविक स्वरूप को स्थिर करने का प्रयास किया गया है। मैत्रायणी उपनिषद् में उसे और अच्छी प्रकार स्पष्ट करते हुए शास्त्रकार ने बताया कि अग्नि हृदय कमल में स्थित है, वह जो अन्न खाता है वह जो मोक्षधाम द्यौ में स्थित कालाग्नि नामक परमेश्वर रूप अग्नि है, जो प्रलयकाल में समस्त भूतों को खा जाती है, अपने आप में लीन कर लेती है।
उपरोक्त कथन में अग्नि का तात्विक विश्लेषण है। एक भौतिक आग है जो पदार्थों को जलाती है। लपट और गर्मी के रूप में जिसका अहसास होता है। दैविक रूप में अग्नि देव है-जिसकी सूक्ष्म शक्ति सर्वव्याप्त है। अर्थात् अग्नि एक व्यापक तत्व है, जो दृश्य भी है, अदृश्य भी। अदृश्य अवस्था वाली अग्नि की व्यापकता ही दैवी सत्ता का बोध कराती है। शरीर मन और वाणी की तेजस्विता इन्हीं की कृपा से विकसित होती है। कालाग्नि के रूप में यही परमेश्वर है।
ऋग्वेद के 7-87-2 मंत्र में वरुण देवता की स्तुति करते हुए मंत्र द्रष्टा कहते हैं-”समस्त नदियाँ वरुण के आदेश से ही बहती हैं। यह आकाश देव हैं, अन्य देव इनके अनुयायी हैं। इनका आदेश सर्वोपरि है। यह देव जिस व्यवस्था का संरक्षक है, उसे ऋतु कहते है, विश्व सृजन के पूर्व ही “ऋतु” था। इसके रहस्य को जानने वाला ऋताचारी होता है।”
वरुण ‘वर’ धातु से बना है, जिसका अर्थ आच्छादन करना होता है। एक तत्व जो समस्त लोकों में अवस्थानुसार परिवर्तित होकर ऋतु नियमन करता है। यदि ऋतुएँ न हो तो संसार शून्य हो जाये। यह बात प्लेटो के यूनिवर्सल सिद्धाँत से बहुत मिलती-जुलती है। वैज्ञानिक आज विस्तृत रूप से ऋतु विज्ञान की खोज कर रहे हैं। इस खोजबीन में वैज्ञानिकों को कहीं भी वर्षा करा लेने का सिद्धाँत ढूँढ़ निकालने में सफलता मिल गई है। यह वरुण विज्ञान की छोटी-सी स्फुल्लिंग मात्र है। यदि यह मालूम हो सके कि ऋतु का नियमन करने वाली ऐसी कोई अदृश्य सत्ता है, जिसे ऋषियों ने वरुण देवता कहा है, तो उससे संपर्क स्थापित कर कोई व्यक्ति ऋताचारी या मौसम विज्ञान का निष्णात् और नियंत्रक हो सकता है।
सोम, उषा, अदिति के बारे में भी विस्तृत विवेचन शास्त्रों में मिलते हैं। किंतु खेद है कि आज के पढ़े-लिखे लोग देवताओं की इन शक्तियों और स्वरूपों को बालकल्पना मानकर उपेक्षित कर देते हैं। फ्लीडरट और ब्लूम जैसे पश्चिमी चिंतकों ने देवताओं के संबंध में भारतीय तत्वविज्ञान का जो मजाक बनाया था पाश्चात्य से प्रभावित व्यक्ति उसी को ठीक मानते चले आ रहे हैं। प्रसन्नता की बात है कि आज का विज्ञान इन देवशक्तियों के भौतिक स्वरूप को समझकर भ्राँत धारणाओं को खण्डित कर रहा है। देवता किसी की प्रति-कृति नहीं वरन् विशिष्ट गुण या शक्ति के प्रतीक मात्र हैं और वह शक्तियाँ सूक्ष्म जगत में सचमुच क्रियाशील हैं। विज्ञान इनके दैविक रहस्य भले न पा सका हो, पर उसने इनके भौतिक स्वरूप से याँत्रिक संपर्क पाने में जरूर सफलता पायी है। उदाहरण के लिए गणेश को असाधारण स्मृति और लेखन वाला देवता मानते हैं। पौराणिक कथा है कि व्यास जी द्वारा बोले गये 18 पुराणों को सुनकर उन्हें शब्द बद्ध कर सकने का गुरुतर कार्य गणेश जी ही सम्पन्न कर सके थे इस असाधारण मानवीय स्मृति पर अर्धदग्ध मनुष्य शंका और संदेह कर सकते है, वैज्ञानिक नहीं। आज के कंप्यूटर युग में ऐसे-ऐसे कम्प्यूटरों का निर्माण हुआ जिसे दफ्तरों बैंकों आदि के काम में दस हजार गुना तेजी आयी है। सोलह सौ फाइलें रखने में कई अलमारियां लग सकती हैं, पर इसमें कुल तीन घन फीट में इतनी फाइलों की जानकारी को सँजोया जा सकता है। जब भी चाहे किसी पन्ने को खोलकर सारा ब्योरा प्राप्त कर सकते है।
मनुष्य हाथ से जब तक एक अंक लिखता है, तब तक
कंप्यूटर से 16 बड़े-बड़े अंकों के गुणन, लघुत्तम, महत्तम समापवर्तक निकाले जा सकते हैं। इंसान ज्यादा से ज्यादा पाँच हजार शब्द याद रख सकता है पर उसकी स्मरण क्षमता 60,000 शब्दों से भी अधिक है। मनुष्य कठिनाई से चार छः भाषाएँ सीख व एक बार याद रख सकता है। कम्प्यूटर के लिए 15-15 भाषाओं का ज्ञान रखना आसान बात है। यहीं नहीं इससे एक भाषण का एक ही समय में 15 भाषाओं में अनुवाद भी किया जा सकता है।
यह स्मरण शक्ति का छोटा-सा चमत्कार है। जो गणेश सत्ता के भौतिक अणु-परमाणुओं से याँत्रिक संपर्क साधकर वैज्ञानिकों ने संपन्न किया है। भौतिक रूप से परे गणेश सत्ता की दैवी शक्ति अनंत गुना शक्तिशाली है। इसकी सविधि उपासना किसी भी व्यक्ति की बौद्धिक क्षमताओं में चमत्कारी परिवर्तन ला सकती है।
सूर्य की शक्तियाँ-इन सभी देव शक्तियों में भी कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी हैं। इस समूचे कालचक्र का नियंता माना गया है।
सप्त युञ्जंति रथमेक चक्र मेको अश्वो वहति सप्तनामा।
त्रिनाभि चक्र यजर भनर्व यत्रेमा विश्वा भुवामाधि तस्थु (ऋग. 1-164-2)
सूर्य के एक पहिये के रथ में सात घोड़े जुड़े हुए हैं। वस्तुतः (घोड़े सात नहीं) एक ही सात नाम का या सात जगह नमन करने वाला घोड़ा इस रथ को चलाता है। इस रथ चक्र की तीन नाभियाँ है। यह चक्र शिथिल नहीं, अत्यंत दृढ़ है और कभी जीर्ण नहीं होता। इसी के आधार पर सारे लोक स्थिर है। यह हुआ सीधा शब्दार्थ।
इसके विज्ञान पर विचार करें तो सौर जग-मण्डल सूर्य किरण क्राँत ब्रह्मांड ही सूर्य का रथ है। संवत्सर इस रथ का चक्र माना गया है। वस्तुतः संवत्सर रूपी काल ही इस अखिल जगत को फिरा रहा है। काल के कारण ही जगत घूम रहा है। इस संवत्सर रूप चक्र की तीन नाभियाँ है। अर्थात् एक साल में तीन बार जगत की स्थिति बिल्कुल पटल जाती है। वे ही तीन ऋतुएँ (शीत, ऊष्ण, वर्षा) चक्र की नाभियाँ है।
सूर्यमण्डल किसी के आधार पर नहीं है इसलिए अनर्वम् है। यह अजर है अर्थात् जीर्ण नहीं होता और इसी के आधार पर संपूर्ण लोक स्थिति है। इस व्याख्या के अनुसार सूर्यमण्डल के आकर्षण से सब लोग बँधे हुए हैं एवं सूर्य अपने ही आधार पर है। वे किसी दूसरे के आकर्षण से बँधे नहीं है। निःसंदेह काल के ही आधार पर सब हैं। काल किसी के आधार पर नहीं है। फिर काल कभी बूढ़ा भी नहीं होता।
वैज्ञानिकों ने सूर्य देव के भौतिक रूप से संपर्क कर प्रकाश, ऊर्जा और यत्किंचित् काल ज्ञान प्राप्त किया है। इसका दैविक पक्ष कहीं अधिक सशक्त और रहस्यमय है। इसकी उपासना से पवित्रता-प्रखरता, वर्चस्, तेजस जैसी सिद्धियाँ पायी जा सकती है। ब्रह्मांड के रहस्य जाने जा सकते है। लोक-लोकाँतर के रहस्यों को प्रत्यक्ष किया जा सकता है।
इस सृष्टि से सूक्ष्म देवशक्तियाँ अनगिनत रूपों में संव्याप्त है। वैज्ञानिकों ने इनके भौतिक रूप से साधकर अनेकानेक करतब प्रस्तुत किये हैं। दरअसल इनकी दैवी क्षमताएँ भौतिक क्षमताओं से लाख गुना चमत्कारी हैं। देवशक्तियों का यह विधान अपने आप में वैज्ञानिक सिद्धाँतों से अलग नहीं है। इस विज्ञान को विकसित किया जा सके तो मनुष्य की शक्ति सामर्थ्य में अनंत गुनी वृद्धि की जा सकती है।
यह देव शक्तियाँ अंतरिक्ष में अनंतकाल से विद्यमान है और उनका सूक्ष्म प्रतिनिधित्व मानव शरीर में भी भरा है। भारतीय तत्ववेत्ता इन शक्तियों के साथ संपर्क करने का आध्यात्मिक स्तर पर प्रयत्न करते रहे हैं। उपासना एवं तपश्चर्या वस्तुतः एक ऐसे उच्चस्तरीय विज्ञान का ही प्रतिपादन करती है। जिसके लिए मशीनों की नहीं वरन् पवित्रता और सात्विकता से निर्मल बने व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। सूर्य देवाधि देव है। उनसे उपासनात्मक संपर्क मानवी व्यक्तित्व को अनंत अलौकिक शक्तियों का अधिपति बनाता है।