अक्षय शक्ति स्रोत से जोड़ता है गायत्री-मंत्र

June 1993

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शक्ति स्रोत के बारे में जान लेना ही काफी नहीं है। उससे तब तक लाभान्वित नहीं हुआ जा सकता जब तक उससे संबंध स्थापित करने की तकनीक का अन्वेषण न हो। बिजली की पावर हाउस और पंखा, हीटर, कूलर आदि विद्युत उपकरणों के बीच वैज्ञानिक तकनीकों का लम्बा सिलसिला काम करता है। बिना इसके पावर हाउस भरे पूरे विद्युत भंडार के रहते हुए भी सारे विद्युत उपकरण निष्प्राण, निर्जीव और निरुपयोगी बने रहेंगे। अक्षय शक्ति के स्रोत परमदेव सविता के बारे में भी यही तथ्य सत्य प्रमाणित होता है। क्रियात्मक, विचारात्मक एवं भावनात्मक शक्तियों के इस अजस्र प्रवाह के रहते हुए भी मानवीय परिकर में निष्क्रियता मूढ़ता और निष्ठुरता का बने रहना यही स्पष्ट करता है कि हमारे संबंध सूत्र नहीं जुड़े।

ये संबंध सूत्र कैसे जुड़े और प्रगाढ़ हो, पुरातन वैज्ञानिक ऋषियों ने इसी संदर्भ में गहन शोध प्रयास किये थे। गायत्री मंत्र इन्हीं शोध प्रयासों का निष्कर्ष है। इसके मंत्र शिरोमणि होने एवं वैदिक वाङ्मय में सर्वश्रेष्ठ मंत्र घोषित किये जाने के पीछे यही कारण है। मंत्र में शब्दों का गुँथन इस वैज्ञानिक रीति से हुआ है कि उसके जप से साधक की अंत चेतना में प्रसुप्त सूक्ष्म संस्थानों पर आघात होता है। प्रसुप्ति जाग्रति में बदलती है। सौर चेतना का अविरल प्रवाह अस्तित्व में प्रवाहित होने लगता है। शक्ति स्रोतों के भंडार खुल जाते हैं। अंतःजागरण सूर्यदेव से संपर्क जोड़कर इतनी सामर्थ्य संचित कर लेता है जिसे असामान्य चमत्कारी कहा जा सके।

इस वैज्ञानिक एवं क्रियात्मक पक्ष के अतिरिक्त इसका वैचारिक पक्ष कहीं अधिक सामर्थ्यवान है। इसमें जीवन और जीवन से संबंधित छोटी-बड़ी समस्याओं का समाधान समाहित है। मंत्र के सन्निहित तत्वदर्शन में सृष्टि के उन सभी रहस्यों-तथ्यों का निरूपण किया गया है, जो ईश्वर जीव एवं प्रकृति के स्वरूप एवं आपसी संबंधों को व्यक्त करते हैं। मंत्र के 24 अक्षर में छुपे तत्वज्ञान के चिंतन-मनन द्वारा ज्ञान के उस स्रोत तक पहुँचा जा सकता है जिसे शास्त्रकारों ने आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान के नाम से वर्णन किया है।

वैज्ञानिक एवं वैचारिक पक्ष की तुलना में गायत्री महामंत्र का भाव पक्ष कही अधिक प्रेरणादायक, समर्थ और प्रभावशाली है। विश्व की किसी भी संस्कृत में मात्र 24 अक्षरों में ब्रह्म, विद्या एवं साधना विज्ञान का इतना एवं समग्र दर्शन नहीं मिलता। भाव संवेदनाओं की पराकाष्ठा का दर्शन यदि कहीं करना हो तो गायत्री महामंत्र में किया जा सकता है। इसके गंभीर प्रयोग न केवल साधक और सूर्य के भावनात्मक आदान-प्रदान के सिलसिले को आरंभ करते हैं बल्कि ऐसी सामर्थ्य प्रदान करते हैं जिससे समूचे विश्व में भाव-प्रवाह को आन्दोलित किया जा सके। गायत्री मंत्र सविता देव से स्वयं को एकात्म करने की गुह्य तकनीक है। सविता शब्द “षड् प्राणिगर्भ विमोचनेयाष प्रेरणो” धातुओं से बना है। ‘षड्’ धातु से बनाने पर यः सुते चराचर जगत उत्पादयति स सविता । अर्थात् जो सबको सद्मार्ग की ओर प्रेरित करता है वह सविता है। इन सभी अर्थों के अनुसार जड़-चेतन को उत्पन्न करने वाले तथा सबको पवित्र बनाने वाले एवं श्रेष्ठ मार्ग की ओर प्रेरित करने वाले भगवान सविता है। सूर्य का एक ही नाम सविता भी है। सूर्य स्वयं प्रकाशवान हैं तथा दूसरों को प्रकाशित करते हैं। इसी प्रकार सविता देव भी स्वयं प्रकाश के पुँज है तथा सबमें अपने प्रकाश का आलोक वितरित करने वाले हैं। गायत्री मंत्र को आधार बनाकर सविता की साधना करने वाला व्यक्ति भी इन्हीं उदात्त भावनाओं से सम्पन्न होता चला जाता है।

मंत्र के तीन चरण है। तीनों में दिव्य प्रेरणाएँ भरी पड़ी है। उन्हीं का आह्वान-अवगाहन साधक करता है तथा अपनी धारणा शक्ति का विकास करता है। प्रथम चरण है-’तत्सवितुर्वरेण्यं’। पृथ्वी में, अंतरिक्ष में, सुलोक में, अग्नि में विद्युत में, सूर्य में सर्वत्र भगवान सविता का तेज समाया हुआ है। अपने भाव नेत्रों से इष्ट की, परमात्मा की झाँकी सविता के प्रकाश पुँज के रूप में सर्वत्र करता हुआ साधक भाव-विभोर हो उठता है। सविता का उज्ज्वल पवित्र ज्योति एक अनिवर्चनीय आनंद में डुबोये रहती है। इस दिव्य का गुणगान उपनिषदों में भी मिलता है-

“न तत्र सूर्योयाति न चंद्रतारकः नेमा विद्युतो भान्ति कुतोंऽयमग्निः तमेव भान्त यनु भाँति सर्वे तस्य यासा सर्वमिद विभाति॥” (कठ, मुण्डक, श्वेताश्वतर)

अर्थात्-उसकी ऐसी दिव्य ज्योति है कि उसके समक्ष सूर्य, चंद्र, तारे सभी फीके पड़ जाते है। बिजली की चमक उसके आगे कुछ नहीं है अग्नि की बात ही क्या है। उसी महाज्योति पुँज से ही प्रकाश लेकर ये सभी आलोकित हो रहे है। उसी दिव्य ज्योति का अवगाहन, आराधना, सविता साधक करता है। उस वरणीय ज्योति को अधिकाधिक धारण करने की कामना करता है।

प्रथम चरण में सविता के रूप में उस परम सत्ता के दिव्य गुणों का वर्णन हुआ है। जिसकी स्तुति कर साधक फूला नहीं समाता। स्तुति के उपराँत प्रार्थना का क्रम है। सविता की प्रकाश स्तुति के उपराँत साधक कह उठता है-भर्गो देवस्य धीमहि अर्थात् जिन दिव्य गुणों की विशेषताओं का हम ध्यान करते हैं वह हमारे अंदर अवतरित हों। भक्त भगवान का, साधक साध्य का, उपासक उपास्य का, जीव ब्रह्म का, तादात्म्य, एकरूपता परस्पर के आदान-प्रदान इष्ट की दिव्यता के अवतरण से ही संभव है। मंत्र के द्वितीय चरण में प्रार्थना की गयी है। हे प्रकाश पुँज, पापनाशक , दिव्य आनंद दायक परमात्मा स्वरूप सविता देव आप हमारे अंदर धारण करते हैं। आप हमारे भीतर अवस्थित हो जांय जिससे आपके आलोक से हमारा अन्तःकरण जगमगा उठे। यही मूलतः अध्यात्म का मर्म है।

मंत्र के तृतीय चरण में इस तथ्य का स्पष्टीकरण हुआ है कि दैवीय गुणों की शक्तियों को क्यों धारण करना चाहिए? “धियो यो नः प्रचोदयात्” ताकि वह हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित कर दे। बुद्धि प्रसुप्त तमिस्रा के घोर अंधकार में सोयी पड़ी है। उसे अपने लक्ष्य का कर्तव्यों का बोध नहीं है। साँसारिक आकर्षणों में इस तरह भटक गयी है कि उसे अपनी गरिमा का भाव नहीं है। मंत्रों के तृतीय भाग में यही प्रार्थना की गयी है-”हे सविता देव अपने दिव्य गुणों के साथ हमारे अन्तः में अवतरित होकर बुद्धि को अंधकार की तमिस्रा से प्रकाश की ओर ढकेल दो।”

जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश प्रातःकाल अपने तेजस्वी स्वर्णिम किरणों के साथ आकर सोये हुए प्राणियों को जगा देता और कर्मों में प्रवृत्त करता है, उसी प्रकार सविता देव का प्रकाश भी गायत्री साधक के अन्तःकरण में आकर बुद्धि को प्रकाशित करता है। प्रसुप्ति जाग्रति के रूप में परिलक्षित होती है। बुद्धि में प्रज्ञा का अवतरण होता है। असत्य की जड़ता की तमिस्रा घटती है। सत का चैतन्यता का प्रादुर्भाव होता है। प्रज्ञा की ओर उन्मुख बुद्धि जड़ता के बंधनों लोभ-मोह के आकर्षणों में नहीं बँधती। उसके “स्व” की परिधि संकुचित नहीं रहती। “स्व का वसुधैव कुटुम्बकम” के रूप में विस्तार ही जीवन का प्रयोजन है। सविता की दिव्य प्रेरणाओं को गायत्री महामंत्र के माध्यम से धारण कर साधक इसी लक्ष्य की ओर तत्पर होता है।

सविता देव से भावनात्मक एकात्मता स्थापित करने वाली इस तकनीक के आशय से स्पष्ट है कि इसे इतना अधिक गौरवास्पद स्थान क्यों मिला है। इसमें किसी वस्तु की कामना नहीं की गयी है। की भी गई है सो बुद्धि को निर्मल, पवित्र बनाने वाले सन्मार्ग पर प्रेरित करने की। वह भी मात्र अपने लिए नहीं-समष्टि के लिए प्रार्थना की गयी है। “यो नः” अर्थात् हम सबकी बुद्धि श्रेष्ठ मार्ग की ओर अग्रसर करें, वह सविता देवता द्रष्टा ऋषि इस तथ्य से परिचित थे कि समष्टि के कल्याण में ही व्यक्ति का भी हित निहित है।

भगवान सविता की क्रियात्मक वैचारिक एवं भावनात्मक शक्तियों को ग्रहण धारण करने की यह तकनीक इतनी उदात्त पवित्र एवं मानव मात्र के लिए इतनी कल्याण कारक है कि उसके चिंतन मनन से ही अन्तःकरण की भावनाएँ स्वतः उमड़ने लगती हैं एवं साधक के व्यक्तित्व का कायाकल्प हुए बिना नहीं रहता। गायत्री मंत्र को आधार बनाकर किया गया, सविता आराधना आत्मोत्कर्ष के चरम शिखर पर हम सबको पहुँचा सकता है।


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