सौर-मण्डल के ऊर्जा प्रवाहों से यों तो जीवन की लगभग सभी गतिविधियां प्रभावित परिवर्तित होती हैं। लेकिन इसकी सबसे गहरी सघनता मानवीय स्वास्थ्य के साथ जुड़ी हुई है। दस रहस्य को जानने के कारण ही आयुर्वेद चिकित्सा प्रणाली किसी समय में हर तरह की बिमारियों के उपचार में सक्षम थी। आज जैसे असाध्य नाम के कोई रोग न थे। न केवल रोग निवारण और स्वास्थ्य संवर्धन वरन् वृद्धावस्था में भी यौवन प्राप्त करने के कायाकल्प जैसे उपचारों उल्लेख आयुर्वेद में मिलता है।
आयुर्वेद की चिकित्सा प्रणाली, निदान, उपचार की विधियाँ आज भी प्रचलित हैं संबंधित महत्वपूर्ण ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं। रोगोपचार की वनस्पतियाँ भी अविज्ञात नहीं है। फिर क्या कारण है कि कायाकल्प और असाध्य रोगों का उपचार तो दूर रहा सामान्य निदानों में उपचार में भी सफलता नहीं मिल पाती। गहराई से चिन्तन करने पर एक ही तथ्य उधर करे भ्रमक आता है कि प्राचीन आयुर्वेद के साथ सारे परिवार के ऊर्जा प्रवाहों का रहस्यात्मक ज्ञान धुला मिला था। आयुर्वेद की सफलता का श्रेय भी कभी इसी नियम को था।
आयुर्वेद के मूर्धन्य विद्वानों में चरक सुश्रुत वागभट्ट का नाम आता है। ये सभी न केवल चिकित्साशास्त्र के वरन् ‘ज्योतिर्विज्ञान के भी मर्मज्ञ थे। किंवदंती है कि ‘चरक’ वनस्पतियों के संग्रह के लिए वनों एवं पहाड़ों पर जाते थे तो जड़ी-बूटियां स्वतः अपनी विशेषताओं और गुणों को बता देती थी। साथ ही उन्हें किस वातावरण में और कब लगाने से क्या विशेषताएं पैदा होती हैं और किस तरह की मनोभूमि एवं रोग वाले व्यक्ति को लाभ पहुँचाती है, की जानकारी भी दे देती थी। कथानक की सत्यता और असत्यता पर ध्यान न देकर सन्निहित तथ्यों पर ध्यान दे तो पता चलता है रोग निवारण में मात्र औषधि का ही योगदान नहीं होता। उसे किस वातावरण में कब और किन ग्रह-नक्षत्रों की योगस्थिति में उगाए जाने से क्या प्रभाव पड़ता है यह जानना भी आवश्यक है।
मानवी स्वास्थ्य अन्तर्ग्रही गतिविधियों एवं परिवर्तनों से असाधारण रूप से प्रभावित होता है। इस तथ्य पर प्रकाश डालने वाले कितने ही सूत्रों का उल्लेख आयुर्वेद शास्त्र में मिलता है। ज्योतिष सूत्र के अनुसार “अष्टमी व्याधिनाशिनी” अर्थात् अष्टमी, जो चन्द्रमा का आठवाँ दिन होता है सम्पूर्ण व्याधियों का अन्त करने वाला दिन होता है सम्पूर्ण व्याधियों का अन्त करने वाला दिन है अर्थात् इस दिन जो भी औषधि ली जाएगी लाभकारी होगी। अष्टमी को सूर्य और चन्द्रमा एक-दूसरे से 10 अंश पर स्थिर होते हैं। इसलिए दोनों ही पृथ्वी के सभी द्रवों के प्रति अपना आकर्षण कम कर देते हैं। मानव शरीर में विद्यमान रक्त और जल में भी सूर्य और चन्द्र का अतिरिक्त आकर्षण कम हो जाने से इस अवधि में दी गई दवाएँ अधिक प्रभावकारी सिद्ध होती हैं।
“भैषजिक ज्योतिच” के अनुसार अनेकों बीमारियाँ विशेषतः चर्मरोग, पागलपन, मिरगी, मानसिक चिकित्सा शुक्लपक्ष में ठीक होती हैं। आधुनिक चिकित्साशास्त्र को इसकी कोई जानकारी नहीं है कि ऐसा क्यों होता है। ज्योतिष विज्ञान के अनुसार शुक्लपक्ष में सूर्य और चन्द्रमा आकाश में एक दूसरे के अधिक निकट होते हैं। ये दोनों ही पृथ्वी के वायु मण्डल में संव्याप्त गैस कणों को अधिक आकर्षित करते है। जिसका प्रभाव मनुष्य और पशुओं के स्वास्थ्य पर पड़ता है। प्रायः ऐसा देखा गया है कि चतुर्दशी का जब सूर्य और चन्द्रमा एक-दूसरे से 160 अंश का कोण बनाते हैं- बीमारियों की उग्रता एवं भावनात्मक उद्वेग इन्हीं दिनों चरम बिंदु पर होता है।
आयुर्वेद की प्रसिद्ध त्रिदोष भी अपने सौर-मण्डल के ऊर्जा प्रवाहों के कितने ही सूक्ष्म रहस्यों को समाहित किए हुए हैं, जिन्हें समझा जा सके तो अनेक रोगों के उपचार में सहयोग मिल सकता है। ‘बात’ शब्द की उत्पत्ति ‘वा’ धातु से हुई है। पित्त शब्द का उद्गम ‘तप’ से हुआ है। ‘तप’ अर्थात् तापर्स तामे पित्तम अर्थात् उत्कान्तता, उत्तेजना, और शक्ति का परिचायक। कफ श्लेषम आलिंगने। टीकाकार चक्र पाणि ने इन तीनों की व्याख्या सारगर्भित रूप में की है। उनके अनुसार बात गति का पित्त शक्ति का और कफ .आकर्षण का प्रतीक है। लेकिन इतना ही जानना काफी नहीं है कि ये तीनों शरीर की मूल तीन रासायनिक प्रकृतियाँ मात्र हैं, वरन् इनकी सूक्ष्म विशेषताओं को जानना भी आवश्यक है।
आयुर्वेदाचार्य सुश्रुत का मत है कि जिस प्रकार सूर्य चन्द्रमा और वायु की शक्तियाँ संसार को गतिशील करने के लिए आवश्यक हैं। उसी तरह वात्, पित् और कफ का संतुलन शारीरिक एवं मानसिक आरोग्य के लिए भी अनिवार्य है। इन तीनों प्रकृतियों पर सौरमण्डल के ग्रहों की गति, स्थिति, परिवर्तनों का समय-समय पर क्या प्रभाव पड़ता है यह जानना भी महत्वपूर्ण है। रोग का निदान और उपचार भलीभाँति तभी संभव है।
ज्योतिर्विज्ञान के अनुसार तारा पुँजों की तीन समुदाय है। वे तीनों वात-पित,कफ की स्थिति का भी समय-समय पर प्रभावित करते है। इसी तरह ग्रहों का प्रभाव भी तीनों ही धातुओं पर पड़ता है। उदाहरणार्थ सूर्य अधिकांशतः पित्त पर, चन्द्रमा घात पर असर करता है। चन्द्रकला की स्थिति और सूर्य की गतिविधि के कारण दोनों ही तत्वों में उतार चढ़ाव आते हैं। ज्योतिष शस्त्र का मत है कि चन्द्रमा मन का, सूर्य आत्मा को बुध चेतन तन्तुओं को अपनी स्थिति से प्रभावित करते हैं। जिन जातकों में सूर्य और चन्द्रमा आग्नेय राशियों के नक्ष़ में होते हैं। ऐसी स्थिति में शुष्क, गर्म धूप वाली जलवायु में रहने वाले व्यक्तियों के चेतना तन्तुओं में विशिष्ट प्रकार की विकृतियाँ आ जाती हैं। जिनके कारणों से आज के चिकित्सा शास्त्री अपरिचित होते हैं। फलस्वरूप उनको निदान और उपचार में सफलता नहीं मिल पाती।
शरीर विज्ञान और चिकित्साशास्त्र के जिन गूढ रहस्यों पर सौरमण्डल के ऊर्जा प्रवाह असर डालते हैं उसके विषय में विश्व में ढूँढ़ खोज आरंभ हो गई है। रोगों की उत्पत्ति और उपचार में शारीरिक और मानसिक स्थिति में अन्तर्ग्रही परिस्थितियों का भी योगदान होता हैं। अव यह विश्व के ख्यातिनामा चिकित्सा शास्त्री अनुभव करने लगे हैं। डॉ. एडसन ने अपने अनेकों प्रयोगों के उपरान्त यह निष्कर्ष निकाला है कि रक्त स्राव की बयासी प्रतिशत घटनाएँ चाँद के प्रथम और तीसरे सप्ताहों में घटित होती हैं। प्रो. रिविस्ज का मत है कि मानव शरीर में विद्युतीय शक्ति की अधिकता पूर्णमासी की रात को होती है। ये विद्युतीय परिवर्तन मनुष्य को मनःस्थिति और स्वभाव को विक्षुब्ध करते हैं। डॉ. बेकर के अनुसार मानसिक विक्षिप्तता के कारण इन्हीं दिनों अपराध की घटनाओं में भी वृद्धि होती है। प्रसिद्ध रूसी वैज्ञानिक निकोल ससिउज का मत है कि सूर्य कलंकों में वृद्धि होने से मानव रक्त में पाये जाने वाले रक्षात्मक श्वेतकणों में कमी आ जाती है। फलतः रुग्ण होने की संभावना बढ़ जाती है।
प्राचीन ज्योतिर्विद्या में न केवल रोगों की उत्पत्ति के कारणों का वर्णन है वरन् निदान और उपचार पर भी प्रकाश डाला गया है। भैषजीय ज्योतिर्विज्ञान में रोग निदान का विस्तृत उल्लेख किया है। उसमें मात्र औषधि उपचार का ही नहीं अन्तर्ग्रही परिवर्तनों के साथ खान-पान में किस तरह हेर-फेर करना तथा उपवास एवं मंत्र चिकित्सा का प्रयोग अपनाना चाहिए का भी छुट-पुट वर्णन मिलता है। “अरिष्ट योग” में बताया गया है कि रोगी की क्षय हुई शक्ति को और नष्ट हो गई कोशिकाओं को मंच चिकित्सा द्वारा पुनः प्राप्त किया जा सकता है।
सौरमण्डल के विविध ऊर्जा प्रवाहों का मूल स्त्रोत सूर्य स्वयं है। अन्य सब इसी की शक्ति से अनुप्राणित संचालित हैं। इसी वजह से इसे ग्रहों का अधिपति भी माना गया है। सूर्य की उपासना मनुष्य में इन सभी अन्तरिक्षीय प्रवाहों को सन्तुलित करती और ग्रहों के दुष्प्रभावों को समाप्त करती हैं। अथर्व वेद में कहा गया है-
अपचित प्र पतत सुपणों वसतेरिव सूर्य कृणातु भषजं चंन्द्रमा वोडपोच्छतु !!
अथर्व 6-83-1
जिस प्रकार मरुण वसति से दौड़ जाता है- उसी प्रकार उपचनादि व्याधियाँ दूर चली जाएँगी। इसके लिए सूर्य औषधि बनाये और चन्द्रमा अपने प्रकाश से उन व्याधियों का नाष करें।
इस मंत्र में स्पष्ट है कि सूर्य औषधि बनाते हैं विश्व में प्राण रूप हैं तथा वे अपनी रश्मियों से स्वास्थ्य ठीक करते हैं। पद्मपुराण में भी कहा है- अस्योयासनमात्रेण सवरोगाप्रमुच्यते (सृष्टि ख. 79/17) भगवान सूर्य की उपासना मात्र से सभी रोगों से मुक्ति मिल जाती हैं। सूर्य उपासना द्वारा रोगनिवारण का चमत्कारी रहस्य इसके द्वारा ब्रह्माण्ड के ऊर्जा प्रवाहों के संतुलन तथा अन्तर्ग्रही दुष्प्रभावों के निवारण में समाहित है। रोगों की उत्पत्ति में प्रत्यक्ष स्थूल कारणों को महत्व दिया जाता है। अदृश्य किन्तु महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले सौरमण्डल के देवीय ज्ञान को भी चिकित्सा अनुसंधान की कड़ी में जोड़ा जा सके तो रोगों के कारण और निवारण के आश्चर्यकारी सूत्र हाथ लग सकते हैं।