सूर्य की किरणों की तरह मन की शक्तियों का भी सतत् बिखराव होता रहता है। जिसकी वजह से इनके प्रभाव बहुत थोड़ी मात्रा में ही समझ पड़ते हैं। इन्हें एकत्रित किया जा सके तो उसकी मूल शक्ति असाधारण रूप से शक्तिशाली हो जाती है। बिखराव का केन्द्रीकरण कर लिए जाने पर इस संग्रहित शक्ति के चमत्कार देखते ही बनते हैं। आतिशी शीशे पर सूर्य की किरणें एकत्रित कर ली जांय तो उनके केन्द्र बिंदु में आग जलने लगती है। भाप को एक सीमित छेद से होकर निकालने पर उसकी शक्ति से रेल का इंजन दौड़ने लगता है। बारूद का विस्फोट बंदूक की नली से घेर देने पर भयंकर आवाज और शक्ति के साथ गोली छूटती है। बाँध का पानी छोटे गलियारे से निकालने पर वहाँ बिजली घर चलने लगते है। विचारों का बिखराव एक सीमित केन्द्र पर इकट्ठे कर देने से मानसिक दक्षता कितनी अधिक बढ़ जाती है उसे हर कोई जानता है।
विचारों की एकाग्रता साधने का सरल और प्रभावी उपाय ध्यान है। ध्यान में केन्द्रीकरण के लिए कोई छवि निर्धारित करनी पड़ती है। ऐसी वस्तु जो आकर्षण भी हो और गुणवत्ता से भरपूर भी। इस दृष्टि से प्रकाश पुँज प्रभातकालीन स्वर्णिम सविता का चयन करना अति उत्तम एवं निर्विवाद है। सूर्य सर्वथा दोष रहित है। उसमें गुण ही गुण हैं। साथ ही शक्ति का भंडार एवं आकर्षण सुँदरता से भरा-पूरा भी उसे समझा जा सकता है।
इस दृश्य जगत में जो भी कुछ दिखायी दे रहा है, उसे सूर्य का ही चमत्कार कहना चाहिए। ताप-प्रकाश और ध्वनि की त्रिविध तरंगें ही प्रकृति के अंतराल में संव्याप्त हैं। इन्हीं के कारण तत्वों का प्रादुर्भाव हुआ है। अणु-परमाणुओं की संरचना बन पड़ी है। तीन शक्ति धाराओं में से दो का ताप और प्रकाश का सूर्य से सीधा संबंध है। उनका उसे उद्गम समझा जा सकता है। प्राणियों-वनस्पतियों का अस्तित्व सूर्य के रासायनिक संप्रेषण से ही संभव हुआ है। ऋतुएँ इसी में होने वाली हलचलों का दृश्य परिणाम है। इसी महापुरुष से पराग पाने के लोभ में पृथ्वी मधुमक्खी की भाँति उसके इर्द-गिर्द चक्कर लगाती रहती है। सूर्य के अभाव की कल्पना करने से ही मन सिहरन भरे सघन अंधकार में डूबने लगता है। निस्तब्धता भरा अंधकार जहाँ हलचलों का कोई आधार कारण शेष न रहा।
सृष्टि की हलचलों-वैभव के अभिवर्धन के साथ आत्मिक-विभूतियों का उद्गम स्रोत भी सूर्य ही है। ध्यान के माध्यम से इसकी सूक्ष्म चेतना से संपर्क साधने पर मनुष्य, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा जैसी आत्मिक विभूतियों का स्वामी बनने लगता है। बाहर में प्रकाशित होने वाले विश्वात्मा सूर्य अंतराकाश में साधक की आत्मा बन अलौकिक विभूतियों सामर्थ्यों, शक्तियों का प्रकाश बिखेरने लगते हैं। प्रसुप्त रूप से पड़े अनेकानेक संभावनाओं के बीज इस ध्यान प्रक्रिया से अंकुरित, पुष्पित, पल्लवित होते दिखने लगते है।
ध्यान-धारणा में सविता उपासना का सामान्य क्रम ग्रह है कि उषा बेला में उगते सूर्य को अधखुली आँखों से देखकर पलक बंद कर लिया जाय। भावना यही प्रगाढ़ रहे कि वह दिव्यसत्ता अपने किरण जाल समेत संपूर्ण शरीर में संव्याप्त हो गई। इस शुरुआत में जलाशय का निकट होना शक्ति आकर्षण की दृष्टि से अधिक लाभदायक है। इसी कारण बहुतेरे जलाशय में खड़े होकर सूर्याभिमुख स्थिति में जप तथा ध्यान करते है। कई उतने समय तक गीले कपड़े पहने रहते हैं। कुछ सूर्य को अर्घ्यदान करते हुए मानसिक जप के साथ अपनी संक्षिप्त साधना पूरी कर लेते है। यदि ब्रह्मबेला में यह आराधना करनी हो तथा बादल छाए रहने पर प्रत्यक्ष दर्शन न हो पा रहा हो तो उस ओर मुखकर के भी ध्यान किया जा सकता है। यह अनेकानेक प्रचलनों में कुछ एक की चर्चा है।
सर्वसुलभ ध्यान का उपाय यह है कि खुले स्थान पर बैठा जाय। सुबह का समय हो, जलपात्र दायीं ओर रखा जाय। प्रतीक उपासना के रूप में अगरबत्ती जलाई जा सकती है। स्वच्छ स्थान में शरीर, वस्त्र से ध्यान मुद्रा में बैठे। ध्यानमुद्रा की पंचसूत्री विधि है। (1) शाँत चित्त (2)स्थिर शरीर (3) कमर सीधी (4) हाथ गोद में (5) आंखें बंद। यह है ध्यान मुद्रा, जिसे प्रत्येक प्रकार के ध्यान में आवश्यक एवं उपयोगी माना गया है। इस स्थिति को बनाने में शुरुआत के पाँच मिनट लग सकते हैं। इसके बाद ध्यान की तन्मयता इन निर्देशों के साथ प्रगाढ़ करते चले जांय।
-प्रातः काल-पूर्व दिशा-अरुणिम आकाश-स्वर्णिम सूर्योदय।
-स्वर्णिम सूर्य सविता। सविता -तेजस्वी परब्रह्म
-सविता ब्रह्म। प्रकाश ज्ञान-प्रज्ञा सविता वर्चस्। अग्नि ऊर्जा-प्रखरता।
-सविता-ब्रह्मवर्चस्। उपास्य आराध्य। इष्ट। लक्ष्य
-साधक पर सविता शक्ति की अनंत अंतरिक्ष से शक्ति-वर्षा अमृत वर्षा।
-संव्याप्त आत्म सत्ता में समर्थता-सजगता-सरसता।
-साधक का सविता में समर्पण, विसर्जन-विलय, समन्वय, समापन, शरणागति।
-सविता शक्ति का आत्मसत्ता में प्रवेश। भाव चेतना में प्रखरता की अनुभूति।
-स्थूल शरीर में ओजस, सूक्ष्म शरीर में तेजस्। कारण शरीर में वर्चस्।
-निष्ठा, प्रज्ञा और श्रद्धा का प्रचण्ड उद्भव।
पवित्रता-प्रसन्नता विशिष्टता की दिव्य अनुभूति। प्रकाश पुँज की ओर अनवरत अनुगमन, अदम्य-उल्लास का अनुभव।
संकल्पपूर्वक अभ्यास करते रहने पर यह कल्पना चित्र सूक्ष्म नेत्रों से क्रमशः अधिक स्पष्ट होते चले जाते हैं। इस स्पष्टता से उत्साह बढ़ता है। फिर भी जानने योग्य बात है कि कल्पना चित्र की स्पष्टता होना न होना मस्तिष्कीय संरचना पर निर्भर है। बहुतों को सोने-जगाने में कल्पना चित्र सहज ही दिखने लगते है। बहुतों के मस्तिष्क में इस तरह के दृश्य देख सकने की तनिक भी गुँजाइश नहीं होती। अतएव दिखने न दिखने के आधार पर ध्यान की सफलता-असफलता का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। मूलतत्व है भावानुभूति। यदि सविता देव के साथ सघन आत्मीयता बढ़ रही हो, श्रद्धा परिपक्व हो रही हो तो समझना चाहिए ध्यान-धारणा में अभीष्ट प्रगति हो रही है।
इस प्रगति का परिणाम सविता देव की अनुकम्पा के रूप में साधक के स्थूल सूक्ष्म-कारक शरीर में निहित ढेर की ढेर विभूतियों को जगाने वाला सिद्ध होता है। स्थूल शरीर में अनेक गुच्छक ग्रंथि समुदाय को शरीर विज्ञानी देखते है। सूक्ष्म शरीर को निखारने की जिनमें क्षमता है, वे षट्चक्र, पंचकोश, नाड़ी प्रवाह, उपत्यिकाएँ स्तर के सूक्ष्म अवयवों की उपस्थिति भी देखते है। मानसिक गतिविधियों के अलावा सूक्ष्म शरीर में अति महत्वपूर्ण केन्द्र और भी है। इन्हें हृदयचक्र और नाभिचक्र भी कहते है। नाभि चक्र स्थूल शरीर की हलचलों की अधिष्ठाता है। हृदय चक्र को सूक्ष्म शरीर स्वर्गलोक का केन्द्र माना गया है। मस्तिष्क मध्य में सहस्रार ब्रह्मलोक कारण शरीर का अधिष्ठान है।
सामान्य स्थिति में यह तीनों चक्र उपेक्षित अविज्ञात और अविकसित दशा में ही रहते हैं। पर जब इनमें ध्यान की प्रक्रिया से सविता के दिव्य आलोक का संचार होता है तो धीरे-धीरे ये तीनों विकसित होते जाते है। इनके विकास का अनुभव साधक को अपनी साधना की प्रगाढ़ता में स्वयं होने लगता है। उसे अनुभव होने लगता है कि सविता का अन्तःक्षेत्र में अवतरण अपना प्रभाव चमत्कार दिखा रहा है। तीनों शरीरों और उनमें सन्निहित अनेक घटकों में सूर्य शक्ति का अभिनय संचार हो रहा है। सौर चेतना साधक को सर्वतोमुखी अभ्युदय का मार्ग प्रशस्त कर रही है।