विभूतियों को पा सके (kahani)

June 1993

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गलित कुष्ठ पीड़ा से भी कहीं अधिक असहनीय हो रही थी स्वजनों की उपेक्षा। द्वारिकापुरी के सात अतिरथी वीरों में भी प्रधान कहे जाने वाले साम्ब व्याकुल थे। सारे उपचार व्यर्थ हो चुके थे। हारकर वे अपने पिता श्रीकृष्ण के पास जाकर बोले- महाराज! कुष्ठ रोग से गलते जा रहे शरीर की पीड़ा अब मेरे लिए असहनीय हो गयी है। आपकी आज्ञा पाकर अब मैं प्राण त्यागना चाहता हूँ। आप मुझे इसकी अनुमति दें।

महायोगेश्वर श्रीकृष्ण क्षण भर विचार कर बोले-पुत्र! मैं तुम्हें रोग निवारण का उपाय बताता हूँ, सुनो। तुम श्रद्धापूर्वक सूर्य नारायण की आराधना करो। सारा जगत इन्हीं से उत्पन्न हुआ है इन्हीं में लीन हो जायेगा। तुम यदि अपना कष्ट मिटाकर संसार में सुख भोगना चाहते हो तो सूर्य भगवान की शरण में जाओ।

पिता की आज्ञा पाकर साम्ब चंद्रभागा नदी के तट पर भिन्न बन में उपवासपूर्वक सूर्य के मंत्र का अखण्ड जप करने लगे। साम्ब की अटल भक्ति, कठोर तपस्या, श्रद्धायुक्त जप और स्तुति से प्रसन्न होकर सूर्यनारायण ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिये और बोले वत्स! तुम्हारा शरीर स्वस्थ हो जीवन ऐश्वर्यमय बने। साम्ब ने गदगद स्वर से कहा देव! यदि मुझ पर प्रसन्न हैं तो वरदान दें कि जो भी भक्तिभाव से रविवार का उपवास एवं आपके मंत्र का जप करें वह भी जीवन की इन विभूतियों को पा सके। एवमस्तु। भगवान सूर्य की परावाणी गूँजी। इसकी गूँज आज भी सूर्य आराधक अपनी उपासना में सुन सकते हैं।


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