ऋद्धि-सिद्धियों का द्वार है, नाभिचक्र-सूर्यचक्र

June 1993

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योगशास्त्रों में नाभि को सूर्य चक्र कहा है। यहाँ उसे उतना ही महत्व दिया गया है जितना वैज्ञानिक परमाणु में न्यूक्ल्यिस को अथवा सौरमण्डल में सूर्य को देते आये है। हो सकता है शरीर शास्त्री इसे पूरी तरह न समझ पाने के कारण उतना महत्व न दें पर आत्म विज्ञानियों के लिए इसका चुम्बकत्व आजीवन बना रहता है। अध्यात्म विद्या के मर्मज्ञों के अनुसार सबसे पहले मानवीय प्राण नाभि केन्द्र से स्पन्दित होकर हृदय से टकराता है। हृदय और फेफड़ों में रक्त शोधन करके सारे शरीर में संचार करने में सहायता करता है।

लेकिन यह तो प्राण की स्वाभाविक क्रिया है भर है। जब उसे मानसिक संकल्प एवं अंतश्चेतना के साथ जोड़ दिया जाता है तो वह अधिक चेतन और ज्यादा सक्षम होकर विशेष शक्ति सम्पन्न बन जाता है। जिस तरह सामान्य रूप से प्रवाहमान हवा में ज्यादा ताकत नहीं होती। किंतु जब इसे किसी गुब्बारे में बंद कर छोड़ दिया जाता है। तो वह ऊर्ध्वगामी बनकर अधिक शक्तिशाली बन जाती है। उसी प्रकार जब मन को शुभ संकल्पयुक्त चेतना से भरकर जब प्राण से जोड़ दिया जाता है, तब उसका स्वरूप आध्यात्मिक शक्ति में बदल जाता है।

वैज्ञानिक दृष्टि से भी नाभि प्राण का उद्गम स्थान है। गर्भाशय में भ्रूण का पोषण माता के शरीर से होता है। बुलबुले की तरह अपने जीवन की शुरुआत करने वाला भ्रूण तेजी से बढ़ना प्रारम्भ करता है। निर्वाह एवं सतत् पोषण हेतु उसे जिस भंडार की आवश्यकता है, वह अनुदान शिशु को माता के शरीर द्वारा अपनी नाभि के मुख से मिलता है। पका हुआ आहार माता के रक्त के माध्यम से वह निरंतर प्राप्त कर अपनी विकास यात्रा प्रारंभ रखता है। प्रसव के समय जिस नाल रज्जु को काटकर माता व शिशु को अलग किया जाता है। यह नाल ही वह द्वार है जिससे माँ के शरीर से आवश्यक रस द्रव्य बालक के शरीर में आता रहता है। नौ मास की पूरी अवधि में अपनी सारी जरूरतों की पूर्ति वह नाभि मार्ग से करता है।

जन्मते ही बालक रोता हाथ पैर चलाता है और रक्त संचार आरंभ हो जाता है। हृदय से खून फेफड़ों में जा पहुँचता है और वे अपना काम शुरू कर देते है। प्राणवायु को अपने रक्त में वातावरण में खींचकर स्वावलंबन का पहला चरण नवजात शिशु पूरा करता है। अब माता के गर्भाशय में बैठे ‘प्लेसेण्टा’ रूपी फेफड़ों की उसे आवश्यकता नहीं रहती। माँ व बालक के बीच संबंध विच्छेद नाल को काट कर किया जाता है। नवजात शिशु की जीवन यात्रा अपने ढर्रे पर चलने लगती है। माता का सहयोग समाप्त होते ही उस केन्द्र की उपयोगिता को समाप्त हो जाती है। स्थूल दृष्टि से चिकित्सकों की नजर में इस केन्द्र की नजर में इस केन्द्र की उपयोगिता एक सामान्य गड्ढ के रूप में ही रह जाती है। कुछ बेकार-निष्क्रिय सूत्रों (लिगामेण्ट टेरिस) के माध्यम से नाभि लीवर से जुड़ी रहती है। शरीरगत विकास की दृष्टि से नाभि की भूमिका समाप्त हो जाती है। पर जब कभी भी लीवर पर दबाव पड़ता है उसमें रक्त का प्रवाह बढ़ जाता है तब ये ही निष्क्रिय सूत्र जीवंत हो जाते हैं व केपट मेडयूसि के रूप में फूली शिराओं के स्वरूप में दिखायी देते हैं।

यह सारी कथा गाथा एक ही बात को बताती है कि नाभि एक सक्रिय केन्द्र है। जो अपनी उपयोगिता की अवधि में अपनी सामर्थ्य से भ्रूण के विकास में सहयोग देती है। बाद में वह निष्क्रिय नहीं हो जाती। जिस तरह सूक्ष्म शरीर का केन्द्र आज्ञा चक्र को माना जाता है। उसी तरह स्थूल शरीर का न्यूक्लियस नाभिचक्र अथवा सूर्यचक्र है। इस केन्द्र का सशक्त होना स्वस्थ शरीर का चिन्ह है। इसी की क्षमता से समीपवर्ती अवयव प्राणवान बनते है। नाभिकेन्द्र के क्रिस्टल में आदान-प्रदान की उभय पक्षीय क्षमता विद्यमान है। वातावरण में व्याप्त ध्वनि तरंगों को ट्राँजिस्टर का क्रिस्टल ही पकड़कर उन्हें श्रव्य ध्वनियों कस रूप दे देता है।

नाभि केन्द्र ब्राह्मी चेतना का न्यूक्लियस है। अनंत अंतरिक्ष से आवश्यक शक्तियों को आकर्षित करना और उन्हें धारण कर शरीर के समस्त अंगों में प्रवाहित करना योगविज्ञान के अनुसार इसी का कार्य है। शरीर विज्ञानी इसे भले ही उतना उपयोगी न समझे, परंतु योग विज्ञान की नजर में इसकी उपयोगिता सारी जिंदगी यथावत् बनी रहती है। इसके चुम्बकत्व को साधना प्रणालियों से जगाया जा सके तो अपनी प्रखर आकर्षक क्षमता के सहारे वह इतना कुछ अनुदान उपहार दे सकने में समर्थ हो सकता है जो स्थूल पदार्थों की तुलना में हजारों गुना अधिक उपयोगी है।

चिकित्सा शास्त्र की दृष्टि से नाभि के इर्द-गिर्द नौ अति महत्वपूर्ण अंतःस्रावी ग्रंथियाँ हैं। ये स्वचालित स्नायु संस्थान के वे केन्द्र हैं जो शरीरगत गतिविधियों, रक्त प्रवाह, पाचन में सहायक एंजाइम व अन्य रसों के स्राव का नियमन-संचालन करते हैं। लम्बर, सैक्रल एवं काक्सीजियल गैगलियान व इनके आपस के सूत्रों के रूप में विद्यमान प्लेक्सेज ही आमाशय पाचन संस्थान तिल्ली-गुर्दे-यकृत आदि महत्वपूर्ण अंगों का संचालन करते हैं। नये शरीर का निर्माण करने वाली प्रजनन प्रणाली (गोनेड्स) अपनी अद्भुत क्षमताओं सहित इन्हीं केन्द्रों के नियंत्रण में करती है। इन सबको फलश्रुति के रूप में दिखायी देने वाला हाड़-माँस का पुतला यह शरीर अन्नमयकोश की अधीनता में तो हैं, पर स्वयं कोश नहीं है। दिखायी न देने पर भी अन्नमय कोश में कुछ ऐसे अविज्ञात रहस्य समाए हुये हैं जिनका उद्घाटन सूर्य चक्र के जागरण से ही संभव है।

मनुष्य के प्राण शरीर में तीन नाड़ियाँ मुख्य है। जिनके माध्यम से प्राण-प्रवाहित होता है। इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना-इन्हीं के नाम हैं। इड़ा-पैरा सिंपेथेटिक, सिस्टम अर्थात् शामक संस्थान की प्रतिनिधित्व करती है। यह मनुष्य का शाँत अन्तर्मुखी मनोगत पक्ष हुआ। पिंगला सिंपेथेटिक सिस्टम अर्थात् उत्तेजक संस्थान का प्रतिनिधि है। यह जीव का सक्रिय बहिर्मुखी एवं शरीरगत पक्ष है। दोनों के परस्पर संतुलन सामंजस्य से ही सारी गतिविधियाँ क्रमबद्ध रूप से चलती हैं। पाचन क्रिया के लिए जिस ऊर्जा की जरूरत शरीर को होती है वह दोनों नाड़ियों के प्रवाह से बनती है।

नाभि के पीछे स्थित सूर्य चक्र (सोलर प्लक्सेज) वह केन्द्र बिंदु है जहाँ से सारी प्रमुख धाराएँ विभिन्न अंगों को जाती है। एक प्रकार से इसे जंक्शन स्टेशन की उपमा दी जा सकती है जहाँ से अनेकों रेलवे लाइनें विभिन्न दिशाओं में जाती हैं। सारे शरीर की स्फूर्ति इसी केन्द्र की सशक्तता पर निर्भर है। सूर्यचक्र न केवल प्राण प्रवाह का जंक्शन है, बल्कि अचेतन मन के संस्कारों तथा चेतना का सम्प्रेषण केन्द्र भी है। किंतु साधारणतया यह महत्वपूर्ण केन्द्र प्रायः लुप्त अवस्था में पड़ा रहता है। अतः इसकी शक्ति का न तो जनसाधारण को कुछ ज्ञान ही होता है और वे इससे कुछ लाभ ही उठा पाते हैं।

प्रत्येक चक्र किसी तत्व विशेष से संबंधित एवं प्रभावित होता है। उसको सक्रिय करने के लिए किसी विशेष रंग का ध्यान करना होता है। जैसे सूर्य चक्र अग्नि तत्व प्रधान है। उसे जाग्रत करने के लिए पीतवर्ण कमल का ध्यान किया जाता है। वास्तव में लाल-पीले हरे-बैगनी एवं सफेद रंगों का सूर्य ज्योति की सात किरणों का संबंध है। चक्रों में इनके मानसिक ध्यान मात्र से संबंधित तत्व में विशेष हलचल होकर हमारे ज्ञान तंतुओं एवं मस्तिष्क को प्रभावित करता हुआ शरीर स्थित व्यष्टि प्राण तथा चेतना से जोड़ देता है। जिस तरह बिजली की बैट्री की पावर समाप्त हो जाने पर उसे जनरेटर से चार्ज कर शक्ति सम्पन्न कर लिया जाता है अथवा किसी छोटे स्टोर में संगृहीत भंडार खर्च हो जाने पर समीपस्थ किसी बड़े स्टोर से उसकी पूर्ति कर ली जाती है। उसी तरह विश्व में अनंत शक्तियों के भण्डार समष्टि प्राण से व्यष्टि प्राण के केन्द्र मणिपूर चक्र (सूर्यचक्र) द्वारा वाँछित शक्ति को आकर्षित करके संचित किया जाना तथा आवश्यकतानुसार उसका उपयोग होना संभव है। जिस भी व्यक्ति ने इस केन्द्र को साध लिया उसकी इंद्रियाँ काबू में रहती हैं एवं नियत निर्धारित क्रम से अपनी सुव्यवस्थता कौशल का परिचय देती है। ऐसे सामान्य मनुष्य की तुलना में कई गुने परिणाम में उत्कृष्ट कार्य कर सकने में सफल होते है।

इसको जाग्रत करने के लिए प्रातः काल सूर्योदय से पहले और सायंकाल सूर्यास्त से पहले साधना करने का विधान है। किसी पवित्र एवं एकाँत स्थान में अथवा अपने दैनिक साधना कक्ष में पद्मासन में कमर सीधी स्थिति में बैठकर दस से बीस बार गहरी-गहरी श्वास लें अथवा तीन से पाँच मिनट तक नाड़ी शोधन प्राणायाम करें। इससे प्राण का सुषुम्ना नाड़ी में संचार प्रारंभ हो जाता है। इसके पश्चात रीढ़ की हड्डी को बिलकुल सीधा रखते हुए अजपा गायत्री (सोऽहम्) का श्वास के साथ पाँच मिनट तक मौन जप करना चाहिए। बाद में अपनी नाभि के पीछे मेरुदण्ड स्थित सूर्य चक्र में पीले चमकीले रंग वाले चमकीले कमल के मानसिक ध्यान में स्वयं को तन्मय कर देना चाहिए।

इस तन्मयता में यह भाव गहराई में समाहित रहे कि सूर्यचक्र जाग्रत हो रहा है। पीतवर्ण कमल से निकलती प्रकाश रश्मियाँ सारे नाभि संस्थान को प्रकाशित कर रही हैं। इस भावना की गहराई में स्वयं को खोते हुए अपनी श्वास को धीरे-धीरे हृदय में फेफड़ों में ले जाते हुए पेट में भर दे। इस प्रक्रिया के साथ यह भावना गहरी होती जाय कि “मैं आरोग्यता सुख शाँति, प्राणशक्ति, स्फूर्ति, सफलता एवं सिद्धि के परमाणुओं को समष्टि प्रकृति के भंडार से अपने भीतर आकर्षित कर रहा हूँ तथा सूर्य चक्र में उनका संचय और संग्रह हो रहा है। “ दस पाँच मिनट श्वास को सूर्य चक्र में ठहराने के पश्चात यह भाव गहरा करें कि “मेरा प्राण ऊर्ध्वगामी होकर शरीर के समस्त अंग प्रत्यंगों में व्याप्त हो गया है और उसका प्रकाश पहुँच रहा है।”

इस ऑटोसजेशन के साथ श्वास को बिलकुल धीरे-धीरे बाहर छोड़ दें और सूर्य चक्र से प्राण का स्पंदन मेरुदंड में ऊपर की ओर गति करता अनुभव करें। एक-दो मिनट के विश्राम के पश्चात फिर यही क्रिया पाँच से दस बार तक दुहराई जाय। श्वास अंदर भरने तथा छोड़ने का क्रम इतने धीरे-धीरे हो कि उसकी ध्वनि न सुनाई पड़े। सुखपूर्वक परम विश्राँति के साथ उपरोक्त क्रिया को दुहराने के साथ ही आत्म निर्देश पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास के साथ दुहराना जरूरी है। एक-दो महीने की नियमित साधना के पश्चात शरीर, मन, मस्तिष्क में परिवर्तन समझ पड़ते है। इन परिवर्तनों में यह स्पष्ट अनुभूति होती है कि भावनाओं के अनुरूप ही मन व बुद्धि विकसित हो रहे हैं। इसकी दीर्घकालीन साधना द्वारा दृढ़ संकल्पपूर्वक चेतना का प्राण के साथ संयोग हो जाने पर साधक के मन व मस्तिष्क में चुम्बकीय विद्युत तरंगों का निर्बाध प्रवाह जारी हो जाता है। जो साधक के आस-पास एवं उससे संबंधित वातावरण को प्रभावोत्पादक बनाने में समर्थ होता है।

इस प्रकार के आकर्षक वातावरण का प्रभाव एवं उसकी अनुभूति हम उच्चकोटि के साधक संत महात्माओं के सान्निध्य में सहज ही कर सकते हैं। उपर्युक्त साधना से सूर्यचक्र एवं अनाहत चक्र में एक सुनियोजित सीधा संबंध स्थापित होकर साधक की सर्वतोमुखी उन्नति में जो स्वैच्छिक सहयोग मिलता है वह शीघ्र ही लक्ष्य तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त कर देता है। साधना के प्रति उपेक्षा नाभि स्थित सूर्य के अमृत तत्व को पतनोन्मुख कर देती है। इसे फुलझड़ी की तरह जलाकर तनिक-सा विनोद भी खरीदा जा सकता है। जबकि साधना प्रक्रिया को अपनाकर उसे मधुमक्खी की तरह संचित करके अपना श्रेय और दूसरों का सुख बढ़ाया जा सकता है। आत्म विद्या के अनुसार सूर्य चक्र प्राण सत्ता का साहसिक पराक्रमशीलता का एवं प्रतिभा का केन्द्र बिंदु माना गया है। इस स्थान की ध्यान साधना करते हुए इस प्राण शक्ति को निग्रहित और दिशा को सुनियोजित किया जाता है। फलतः उसके सत्परिणाम भी ओजस्विता की वृद्धि के रूप में सामने आते हैं।


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