तू कैसे घुस आया यहाँ-शूद्र कहीं का? अपने ही समवयस्क बालकों की व्यंग भरी झिड़कियाँ सुनकर उसका बालमन बिलख पड़ा। गुरुकुल के आचार्यों के पास से रुइन के प्रत्युत्तर में उपेक्षा और अवमानना ही पल्ले पड़ी। आँखों में आँसू भरे, व्यथित हृदय हो चल पड़ा। कितनी आशा सँजोई थी उसने ऋषित्व पाने की परंतु....। झोंपड़ी में घुसते ही माँ कहकर अधेड़ उम्र की अपनी जननी से लिपट कर रो पड़ा। क्या हुआ बेटा? जवाब में हिचकियाँ लेते हुए उसने बताया सभी कहते हैं इतरा, दासी है शूद्र है उसका बेटा मंत्रज्ञ नहीं हो सकता।
बस इतनी-सी बात! इतरा ने बेटे को सान्त्वना देते हुए कहा “आकाश में भगवान सूर्य को देख रहा है न ये आदि गुरु परमात्मा हैं तू इन्हीं से प्रार्थना कर, इन्हीं का ध्यान कर, सब पा जायेगा। माँ के ये वाक्य धारणा में बदले, धारणा ध्यान में घनीभूत हुई। ध्यान−समाधि में बदल गया। मंत्र हृदयाकाश में प्रकाशित होने लगे। तत्वबोध की वीणा झंकृत होने लगी। इन स्वरों ने उपनिषद् का रूप लिया। सूर्य की उपासना से शूद्र इतरा का बेटा ब्रह्मर्षि ऐतरेय हो गया था। इनके आत्मबोध के स्वरों को अपने में समाहित करने वाली उपनिषद् ऐतरेय उपनिषद् कहलाई। भगवान सूर्य की उपासना से कोई भी मनुष्य ब्रह्मर्षि पद पाने में समर्थ हो सकता है। “