प्राणतत्व का महासागर-महाप्राण-सविता देवता

June 1993

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विज्ञान वेत्ताओं ने इस संसार में ऐसी शक्ति का अस्तित्व पाया है, जो पदार्थ का हलचल करने के लिए और प्राणियों को सोचने के लिए विवश करती है। यही वह मूल प्रेरक शक्ति है जिससे निश्चेष्ट को सचेष्ट और निस्तब्ध को सक्रिय होने की सामर्थ्य मिलती है, वस्तुओं और प्राणियों की तरह-तरह की हलचलें इसी के प्रभाव से संभव हो रही हैं। समस्त अज्ञात और विज्ञात क्षेत्र के मूल में यही तत्व गतिशील है और अपनी गति से सबको अग्रगामी बनाता है। वैज्ञानिकों की दृष्टि में इसी जड़-चेतन स्तरों की समन्वित क्षमता का नाम प्राण है। पदार्थ को ही सबकुछ मानने वाले प्रैविटी, ईथर,मैगनेट के रूप में उसकी व्याख्या करते हैं अथवा इन्हीं की उच्चस्तरीय स्थिति बताते हैं। चेतना का स्वतंत्र अस्तित्व मानने वाले विज्ञानी उसे “साइकिक फोर्स” या “लेटेन्ट हीट” कहते है।

ऋषियों ने इन तत्व की गहराइयों का अन्वेषण करके इस चेतन की जीवनी शक्ति के रूप में अनुभव किया है। उनके अनुभव के अनुसार जीवन का सार तत्व प्राण है। यही प्रगति का आधार है। समृद्धि उसी मूल्य पर खरीदी जाती है। यह प्राणतत्व अपने भीतर प्रचुर परिणाम में भरा पड़ा है। उसका चुम्बकत्व बढ़ा देने पर विश्व प्राण से भी उसे अभीष्ट मात्रा में उपलब्ध और धारण किया जा सकता है। मानवीय सत्ता में सन्निहित यह प्राण भण्डार सामान्यतया प्रसुप्त स्थिति में पड़ा रहता है। उसे साधना विज्ञान के आधार पर जाग्रत किया जा सके तो सामान्य में से असामान्य का प्रकटीकरण हो सकता है।

ऋषियों और वैज्ञानिकों के शोध प्रयासों की व्यापकता और गहराई में अंतर भले हो पर दोनों ने निर्विवाद रूप से विश्व में जीवन चेतना के स्पंदन फैलाने वाले प्राण तत्व का उद्गम स्रोत सूर्य को माना है। 1973 ई. के अगस्त में विख्यात अमेरिकन पत्रिका “न्यू सायन्टिस्ट” में आणविक जीव विज्ञानी डॉ. फ्राँसिस डॉ. फ्रिक और डॉ. लेसली ने अपने शोध निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कहा है विश्व में जीवन और प्राण के स्पंदन सूर्य से ही प्रकट हुए है।अपनी इस स्वीकारोक्ति के बावजूद वैज्ञानिक इस तत्व की गहनता में प्रवेश नहीं कर पाते। जबकि भारतभूमि के पुरातन वैज्ञानिक तत्वदर्शी ऋषियों ने यह रहस्यमयी प्राण विद्या आविष्कृत की। जिसके आधार पर की गयी सूर्य-साधना व्यक्तित्व के अलौकिक क्षमताओं, सामर्थ्यों को विकसित करने वाली होती है।

इस संदर्भ में उपनिषदों के एक विवरण के अनुसार प्राण तत्व की शोध में संलग्न सुकेशा, सत्यकाम, गार्ग्य, कौसल्य, वैदर्मी तथा काबंधी यथार्थ समाधान पाने के लिए महर्षि पिप्पलाद के पास गये। जिज्ञासा एक ही थी-प्राण का उद्गम स्रोत क्या है? जिज्ञासा का समाधान करते हुए पिप्पलाद ने गंभीर स्वर में कहा-

“आदित्यो हं वै प्राणो रयिरेव चंद्रमा रयिर्वा एतर्त्सव द्यन्मूर्त च तस्मान्मूर्तिरेव रयि॥ अथादित्य उदयन्यत्प्राचीं दिशं प्रविशति तेन प्राच्यान् प्राणान रश्मिषु संनिधत्ते॥

यद्दक्षिणाम......सहस्ररश्मि शतधा वर्तमान प्राणः प्रजानाँ मुदत्येष सूर्यः ॥” प्रश्नो. 1-5-8॥

“निश्चय ही आदित्य ही प्राण और चंद्रमा ही रयि है। सभी स्थूल और सूक्ष्म मूर्त और अमूर्त रयि ही है अतः मूर्ति ही रयि है। जिस समय उदय होकर सूर्य पूर्व दिशा में प्रवेश करते हैं, उससे पूर्व दिशा के प्राणों को सर्वत्र व्याप्त होने के कारण अपनी किरणों में उन्हें प्रविष्ट कर लेते है। इसी प्रकार सभी दिशाओं को वे आत्मभूत कर लेते है। इसी प्रकार सभी दिशाओं को वे आत्मभूत कर लेते हैं। वे भोक्ता होने के कारण वैश्वानर, विश्वरूप प्राण और अग्नि रूप में प्रकट होते हैं। ये सर्वरूप ज्ञान संपन्न, समस्त प्राणों के आश्रयदाता सूर्य ही सम्पूर्ण प्रजा के जनक हैं। “

सूर्य के माध्यम से प्रस्फुटित होने वाला महाप्राण परब्रह्म परमात्मा का वह अंश है जिससे इस विश्व ब्रह्मांड का संचालन होता है। एक से अनेक बनने का ब्रह्म संकल्प ही महाप्राण बन का फूट पड़ा है। यह निर्झर जिस दिन तक झर रहा है उसी दिन तक सृष्टि है। जिस दिन परम प्रभु उस संकल्प को समेट लेंगे उसी दिन महाप्राण शाँत हो जायेगा और फिर महाशून्य के अतिरिक्त और कुछ भी शेष न रहेगा। यह ब्रह्म संकल्प महाप्राण-परब्रह्म की सत्ता असीम है उस अनंत, असीम, अचिंत्य का भाग जो सृष्टि के संचालन में उसकी समस्त प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित रखने में लगा हुआ है। उस महाप्राण को ही सूर्य की आत्मा-सविता देवता समझना चाहिए। प्राणी की जीवधारी का सीधा संबंध उसी से है।

जीवन की बाह्य और आँतरिक सुव्यवस्था के लिए प्रगति और शाँति के लिए परब्रह्म की महाप्राण सत्ता को अधिकाधिक मात्रा में उपलब्ध करना प्राणी को अभीष्ट होता है। इसी प्रयोजन की पूर्ति प्राण-विद्या के माध्यम से सविता देवता की उपासना से की जाती है। यह प्रक्रिया सूर्य की आत्मा सविता शक्ति के साथ उपासक के साथ संबंधित करती है। जिसके द्वारा वह परब्रह्म महाप्रयाण को अपने शरीर और अन्तःकरण में आवश्यक मात्रा में धारण करके लौकिक सुख एवं आत्मिक शाँति को अनुभव करता हुआ जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करता है।

यह महाप्राण जब शरीर क्षेत्र में अवतीर्ण होता है तो आरोग्य आयुष्य, तेज, ओज, बल, उत्साह, स्फूर्ति, प्रफुल्लता, साहस, एकाग्रता, स्थिरता, धैर्य, संयम आदि सद्गुणों के रूप में देखा जा सकता है। जब उसका अवतरण अध्यात्मिक क्षेत्र में होता है तो त्याग, तप, श्रद्धा, विश्वास, दया, उपकार प्रेम विवेक आदि के रूप में दिखायी देता है। तीनों ही क्षेत्र उस महाप्राण से जैसे-जैसे भरते जाते हैं, वैसे ही मनुष्य अपूर्णता से पूर्णता की ओर लघुता से विभुता की ओर तुच्छता से महानता की ओर बढ़ने लगता है।

श्रुति में प्राण को प्रत्यक्ष ब्रह्म मानकर उसका अभिनंदन किया गया है।

“वायोत्वं प्रत्यक्ष ब्रह्मसि” (ऋग्वेद)

“हे प्राणवायु आप प्रत्यक्ष ब्रह्म हैं”

प्राणायनमो यस्य सर्व मिदं वशे यो भूतः सर्वस्येश्वरो यस्मिन्त्सर्व प्रतिष्ठितम् (अथर्व.)

“उस प्राण को नमस्कार है जिसके वश में सब कुछ हैं जो सबका स्वामी है, जिसमें सब समाये हुए है। उपनिषदों में भी ऐसे वर्णन मिलते है।”

प्राणो भवेत् परब्रह्म जगत्कारणमव्ययम् प्राणो भवेत् तथा मंत्र ज्ञान कोश गतोऽपिवा॥ -ब्रह्मोपनिषद्

“प्राण ही जगत का कारण परब्रह्म है। मंत्र ज्ञान तथा पंचकोश प्राण पर आधारित है।”

प्राणाग्नय एवास्मिन ब्रह्म पुरे जाग्रति। -प्रश्नोपनिषद्

“इस ब्रह्मपुरी में प्राण की अग्नियाँ ही सदा जलती रहती है।”

आरण्यक और ब्राह्मण ग्रंथों में प्राण को प्रजा आयु और अमृत कहा गया है-

प्राणोऽस्मि प्रज्ञात्या। तं भामायुरमृत भित्युपास्स्वाऽऽयुः प्राणः प्राणो वा आयुः। यावद्स्मिञ्छरीरे प्राणो वसति तावदायुः। प्राणेन हि एवास्मिन् लोकेऽमृतत्वमाप्नोति। शंखायन आरण्यक 5-2

“मैं ही प्राण रूप प्रज्ञा हूँ। मुझे ही आयु और अमृत जानकर उपासना करो। जब तक प्राण है, तभी तक जीवन है। इस लोक में अमृतत्व प्राप्ति का आधार प्राण ही है।”

अमृतमु बै प्राणः -शतपथ 9-1-2-32

प्राण ही निश्चित रूप से अमृत है। सात प्राण ही सात ऋषि हैं। सप्त ऋषियों को ज्ञान, तप और अध्यात्म बल का प्रतीक माना जाता है। यह ऋषि सप्त प्राणों के रूप में हमारे अंदर मौजूद हैं। प्राण-विद्या के द्वारा इन्हें अपने अंतस् में जाग्रत करके साधक ऋषि तत्व को धारण का अधिकारी बनता है।

ऐतरेय ब्राह्मण में आता है कि हिरण्यइन नामक ऋषि के प्राण के स्वरूप को जाना और उपासना की। फलस्वरूप उन्हें विपुल सत्परिणाम प्राप्त हुए। प्राण स्वयमेव ऋषि है। मंत्र द्रष्टा ऋषियों का ऋषित्व उनके शरीर पर नहीं वरन् प्राण पर अवलंबित है। इसलिए विभिन्न ऋषियों के नाम से उसका ही उल्लेख हुआ है। इंद्रियों के नियंत्रण को कहते हैं गृत्स। कामदेव को कहते है “मद”। यह दोनों ही कार्य प्राणशक्ति के द्वारा संपन्न होते हैं, इसलिए उसे “गृत्समद” कहते है।

विश्वं मित्र यस्य असौ विश्वामित्रः। प्राण का यह समस्त विश्व अवलंबन होने से भिन्न है, इसलिए उसे विश्वामित्र कहा गया है। वंदनीय, सेवनीय, भजनीय और श्रेष्ठ होने के कारण उसे वामदेव कहा गया है। सर्वं पाप्यनोऽत्रायत इति अत्रिः। सबको पाप से बचाता है इसलिए वही अत्रि है। इस वाज रूप शरीर का भरण करने से भारद्वाज भी वही है। विश्व में सबसे श्रेष्ठ विशिष्ट होने से वशिष्ठ भी वही हुआ। इसी प्रकार प्राण के अनेक नाम ऋषि बोधक है।

प्राणा वा ऋषयः। इमौ एव गौतम भरद्वाजौ। अयमेव गौतमः अयं भरद्वाज। इमौ एव विश्वामित्र जमदग्नी।

अयमेव विश्वामित्रः अयं जमदग्निः इमौ एव वशिष्ठ कश्यपौ। अयमेव वशिष्ठः अयं कश्यपः। वागे वात्रिः।

सात प्राण ही सात ऋषि हैं। दो कान गौतम और भारद्वाज। दो आंखें विश्वामित्र और जमदग्नि हैं। दो नासिका छिद्र वशिष्ठ और कश्यप हैं। वाक् अत्रि है।

इन सातों प्राणों का स्रोत महाप्राण सविता देवता स्वयं है। इसकी आराधना से ऋषित्व उपलब्ध होता, विभूतियाँ व्यक्तित्व को सौंदर्य मण्डित करती है। इसी तत्व का स्पष्टीकरण शास्त्रों में स्थान-स्थान पर विस्तारपूर्वक किया गया है।

प्राणो वै अर्कः - शतपथ 10-4-7-23

प्राण सूर्य है।

स एष वैश्वानरो विश्व रुपः प्राणेऽग्नि रुदयते -प्रश्नोपनिषद् 1-7

सूर्य के उदय होने पर सारे विश्व में प्राणाग्नि का संचार होने लगता है।

योऽसौ तपःन्नुदेति स सर्वेषाँ भूतानाँ प्राणानाँ दायोदेति

“इस सूर्य से ही सब प्राणियों को प्राण प्राप्त होता है।”

स एष वैश्वानरो विश्व रुपः प्राणाग्नि रुदयते।

“यह प्राण ही सर्वव्यापी अग्नि के रूप में प्रकट होता है।”

आदित्यो वै बाह्यप्राण उदयत्येषत्द्येनं चाक्षुष प्राणामनुग्रहणीते। -प्रश्नोपनिषद् 1-7

“बाह्य जगत में यह प्राण आदित्य रूप होकर दसों दिशाओं में विद्यमान है। “

विश्व रुपं हरिणं जातवेद सं परायणं ज्योतिरेकं तपन्तम्। सहस्र रश्मिः शतधा वर्तमानः प्राणः प्रजानामदयत्येष सूर्यः ॥ (शतपथ)

विश्वरूप, व्यापक, सर्वाधार, प्रकाशवान, तप्तकिरणों वाला सहस्र रश्मियों वाला यह सूर्य समस्त जीवों का प्राण होकर उदय होता है।

सूर्याद भवन्ति भूतानि सूर्येण पालितानि तु सूर्ये लयं प्रान्पुवन्तियः सूर्यः सोऽहमेव च॥

“सूर्य से ही सब प्राणी उत्पन्न होते हैं उसी से उनका पालन होता है, उसी में वे लय हो जाते हैं, जो सूर्य है, वहीं मैं हूँ।”

गायत्री का देवता-सविता सूर्य विश्व के जीवन का ज्ञान और विज्ञान का केन्द्र भी है। चारों वेद में जो कुछ है वह सब भी इस सविता शक्ति का विवेचन मात्र है। तप, श्रद्धा और साधना के द्वारा योगी जन इसे ही प्राप्त करने में संलग्न रहते है। नाम-रूप सुविधानुसार कोई माना जाय-वस्तुतः यह सविता देवता ही सबका उपास्य है। उसी को प्राप्त करने के लिए प्रत्येक साधक को प्रयत्नशील होना पड़ता है।

उद्यन्तं वादित्यामग्निसु समारोहति। सुषुम्नः सूर्यरश्मिः चंद्रमा गंधर्वः ॥

“इस सूर्य के अंतर्गत ही अग्नि, सुषुम्न, चंद्र, गंधर्व आदि हैं।”

अथोत्तरेण तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया विद्ययात्मा नमन्विण्यादित्यमधिः जयंते एतद्वै प्राणानामाय तनमेतदमृतममतमे तत्परायण मेतस्यान्न पुनरावर्तन्त इत्येष निरोधः।

“तपः ब्रह्मचर्य, श्रद्धा तथा विद्या द्वारा जो आत्मा की खोजकर उस आदित्य को प्राप्त करते हैं वे पुनः जन्म नहीं लेते यह आदित्य ही प्राणों का आश्रय है। वहीं मोक्ष है, वही पद है, जीव को उसी से परम आश्रय मिलता है। “

भवद्भूतं भविष्यं च जंगमंस्थावरं चयत्। अस्यैकं सूर्यर्मेवैकं प्रभवं प्रलयं विदुः॥

असतश्व सतश्चैव योनिरेषा प्रजापतिः। तदक्षरं चाव्ययं च यच्चैतद ब्रह्मशाश्वम्॥

कृर्त्वैवहि मिधात्मान्नेषु लोकेषुतिष्ठति। वेदान् यथायथं सर्वान निवेश्य स्वेषु रश्मिषु ॥ क्त सूर्योपनिषद्

जो जड़ चेतन पदार्थ इस संसार में अब मौजूद हैं भूतकाल में थे या भविष्य में होंगे वे सभी सूर्य से उत्पन्न हुए और उसी में लीन होते हैं। यह सूर्य ही प्रजापति है। यह सत् और असत् की योनि है। अक्षर, अव्यय शाश्वत ब्रह्म यही है। यह तीनों लोकों में व्याप्त है। समस्त देवता इसी की किरणें है।

आदित्योह्यदि धूतत्वात प्रसूत्या सूर्य उच्यते। परं ज्योतिः तमः पारे सूर्योऽयं सवितेति च॥ -सूर्य सिद्धाँत

“वह समस्त जगत का आदिकारण है इसलिए उसे आदित्य कहते हैं। सबको उत्पन्न करता है इसीलिए सविता कहते हैं। अंधकार को दूर करता है, इससे उसे सूर्य कहा जाता है। “

अथादित्य उदयन्य प्राची दिशं प्रविशति तेन प्रच्यान् प्राणान रश्मिषु संनिधत्ते। यद्दक्षिणाँ यत् प्रतीची यदुदीची यदधो यदहर्थ यइन्तरा दिशो यर्त्सव प्रकाश यति तेन सर्वान् प्राणान रश्मिषु संनिधत्ते। -प्रश्नोपनिषद्

“पूर्व में उदय होता हुआ सूर्य अपनी किरणों से पूर्व पश्चिम, उत्तर, दक्षिण नीचे ऊपर तथा उनके कोणों की सभी दिशाओं को प्रकाशित करता है। उसकी किरणों में समस्त जगत का प्राण धारण किया जाता है। “

अपश्यं गोपायमनि पद्यमान् माच पराच पथिभिश्चरंतम् स सन्धीचीः स विषूचीर्वसान आनरीवर्ति भुवनेष्वन्न्तः - ऐतरेय

“मैंने प्राण को देखा है। साक्षात्कार किया है यह प्राण सब इंद्रियों का रक्षक है। यह कभी नष्ट नहीं होता। यह नाड़ियों द्वारा शरीर में दौड़ता रहता है। मुख और नासिका द्वारा यह आता और जाता है। यह शरीर में वायु रूप है, पर ब्रह्मांड में सूर्य रूप है। “

तेन संसार चक्रेऽस्मिन भ्रमतीत्वेच सर्वदा। तदर्थ ये प्रवर्तंते योगिनः प्राण धारणे॥ तत एवालिखा नाड़ी निरुद्धाचाष्ट वेष्टनम्। इयं कुँडलिनी शक्ति रंध्रंत्यजति नान्यथा॥ - गोरक्ष

इसी को ही शक्ति से जीवधारी इस संसार में गतिमान रहते है। इसी से ही योगी लोग दीर्घ जीवन प्राप्त करते हैं। इसी प्राण के कारण ही इंद्रियाँ सशक्त और निरोग रहती हैं। प्राण के अभ्यास से ही नाड़ियाँ शुद्ध होती हैं और तभी कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है।

इसका एक अत्यंत महत्वपूर्ण विज्ञान है। सूर्य साधना से इस विज्ञान को प्रत्यक्ष किया जाता है। गायत्री महामंत्र सूर्य की रहस्यमयी प्राण विद्या ही है। जिसके द्वारा प्राण को जगाया और उसके रहस्यों को अनुभव किया जाता है। जिसने अपने प्राण को जगा लिया उसके लिए चारों ओर जाग्रति ही जाग्रति है। सब दिशाओं में प्रकाश ही प्रकाश है। सोता वही है जिसका प्राण सोता है। जिसकी प्राणशक्ति जम गई, इस संसार में वही जाग्रत माना जाता है। उसी के सामने इस विश्व का वह रहस्य प्रकट होता है जो सर्वसाधारण के लिए छिपा हुआ है।

तदाहुः कोऽस्वप्नुमर्हति यद्वाव। प्राणो जागार तदेव जागरितम् इति॥ -ताण्डय़. 10-4-4

कौन सोता है? कौन जागता है? जिसका प्राण जागता है वस्तुतः वही जागता है।

य एवं विद्वान्प्राणं वेद रहस्य प्रजा हीयतेऽमृतो भवति तयेव श्लोकः -प्रश्नोपनिषद् 3-11

जो विद्वान सविता की प्राण-विद्या के रहस्य को जानता है उसकी परम्परा कभी नष्ट नहीं होती। अमर हो जाता है। निश्चित ही सविता आराधना द्वारा प्राण का ज्ञान एवं जागरण ही अमृतत्व एवं मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग है। उसी से यह लोक और परलोक सुधरता है। इसी भौतिक और आध्यात्मिक विभूतियाँ प्राप्त होती है।


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