आरोग्यदाता-जीवनीशक्ति प्रदाता हैं-सूर्यदेव

June 1993

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हे प्रातः काल के उगते हुए सूर्यदेव! टाप संपूर्ण शक्ति के प्राण हैं। आप वह प्रकाश भर जाते हैं, जिससे प्रजा का चेतना, आरोग्य और स्वास्थ्य मिलता है। सूर्यदेव की स्तुति में वेद भगवान-”स नो भूड़ाति तन्वेत्र जुगो सजन” “भाइयो, मित्रो! आओ देखो यह जो प्राची में प्रकाश पिण्ड के रूप में सूर्यदेव उग रहे हैं वह हमारे शरीर के दोष दूर करते हैं और आरोग्य शक्ति का गान करने वाले अनेकों मंत्र हैं। इनके अध्ययन से पता चलता है कि प्राचीन भारत में सूर्य चिकित्सा अपने सुविकसित रूप में थी। इसे विश्व की पहली चिकित्सा प्रणाली कहे तो अत्युक्ति न होगी।

आधुनिक चिकित्सा शास्त्री-विज्ञानवेत्ता भी सूर्य की स्वास्थ्यदायिनी शक्ति को अनुभव कर रहे हैं। सूर्य किरण चिकित्सा पर देशी-विदेशी चिकित्सकों ने अनेकों ग्रन्थों की रचना की है। एक अँग्रेजी कहावत है “लाइट इज लाइफ एण्ड डार्कनेस इन डेथ” अर्थात्-प्रकाश ही जीवन है और अंधकार ही मृत्यु है। जहाँ सूर्य की किरणें अथवा प्रकाश पहुँचता है वहाँ रोग के कीटाणु अपने आप मर जाते हैं और रोगों का जन्म नहीं होता। सूर्य रश्मियों द्वारा अनेक तरह के जरूरी तत्वों की वर्षा होती है। उन तत्वों की शरीर द्वारा ग्रहण करने पर अनेकों असाध्य रोग भी दूर हो जाते हैं। शास्त्र कहते हैं कि सूर्य के प्रकाश में सप्त रश्मियां लाल, हरी, पीली, नीली, नारंगी आसमानी और कासमी रंग विद्यमान हैं। प्रकाश के साथ इन रंगों तथा तत्वों की भी हमारे ऊपर वर्षा होती है। उनके द्वारा प्राणी और वनस्पतियाँ नव जीवन व नव चैतन्य प्राप्त करते हैं। यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि सूर्य के बिना हम जीवित नहीं रह सकते थे।

यही कारण है कि वेदों में सूर्य पूजा का विधान और महत्व है। हमारे प्राचीन ऋषिगणों ने सूर्य शक्ति पाकर प्राकृतिक जीवन जीने की बात कही है। आदिकाल के ग्रीक निवासी भी सूर्य चिकित्सालय बनवाने के साथ सौर उपासना करते थे। पश्चिमी चिकित्साशास्त्र का प्रणेता हिपोक्रेट्स भी इसी विधि से रोगियों को ठीक करता था। इसे अपने देश का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि इसने आविष्कार तो बहुत किए, परन्तु बौद्धिक दासता ने सभी प्रयोगों का दबा दिया। मौर्य-गुप्त राजाओं के समय से यूनानी चिकित्सा आयी। अँग्रेजों के साथ एलोपैथी आयी। साथ ही प्राचीन शोध निष्कर्ष दबने लगे। आज के जमाने में प्रचलित सूर्य चिकित्सा को वर्तमान स्वरूप में ‘सर पलिझन होम’ लाए। उन्होंने अपनी किताब ‘आसमानी रंग और सूर्य प्रकाश में आसमानी रंगों एवं सूर्य किरणों से कई रोग समाप्त करने का वर्णन किया है। इसके बाद डॉ. येनस्काट ने ‘नीला और लाल प्रकाश’ तथा डॉ. एडबिन बेबिट ने ‘ प्रकाश और रंगों के नियम नामक पुस्तक में इस पद्धति पर प्रकाश डाला है और डॉ. रॉबर्ट बोहलेन्ड साहब द्वारा अनेक दुस्साध्य रोगों पर इसका सफल प्रयोग हुआ है।

पहले-पहल डॉ. नाईस फिसेन ने 1293 ई. में सूर्य प्रकाश के महत्व को प्रकट कर 1294 ई. में इस विधि से एक क्षय रोगी का स्वस्थ किया था। किन्तु तैंतालीस सोल की अवस्था में उनकी असामयिक मृत्यु हो गई। दूसरे वैज्ञानिक इतने से सन्तुष्ट न हुए। उन्होंने ने नई-नई खोजें की। जिसके फलस्वरूप चिकित्सा संसार में सूर्य चिकित्सा अपना महत्व रखने लगी। डॉ. ए.जी हार्वे डॉ. एलफ्रेड वरालियर आदि ने बड़े-बड़े सेनेटोरियम स्थापित किए। सन् 1903 से डॉ. रोलियर ने अपनी इन पद्धतियों द्वारा आल्पस पर्वत पर लेसीन नामक प्राकृतिक सुसज्जित जगह में रोगियों की चिकित्सा का काम शुरू किया।

इधर हाल में हुए अनुसंधानों ने बताया है कि धरती के प्रत्येक कण एवं क्षेत्र में पाई जाने वाली शक्तियों का उद्गम केन्द्र सूर्य है। उसकी गुलाबी, नीली, हरी, पीली, नारंगी, लाल दिखने वाली किरणें वस्तुतः शक्ति तरंगें ही हैं। जो विभिन्न स्तर के उपहार लेकर धरती के प्राणियों और पदार्थों को देने के लिए अनवरत रूप से अन्तरिक्ष को चीरती भागी आती हैं। अल्फा, बीटा, गामा किरणों की चमत्कारी परतों का खुलना जैसे-जैसे शुरू हुआ है। वैसे-वैसे मालूम होता जा रहा है कि इन स्रोतों में सर्वशक्तिमान बनने के साधन मौजूद हैं अल्ट्रावायलेट और इन्फ्रारेड किरणों का जो थोड़ा बहुत उपयोग पता चला है उसी ने मनुष्य को विभोर कर दिया है। आगे जो परतें खुलने वाली हैं वे अप्रत्याशित हैं। उनकी संभावनाओं पर विचार करने पर मस्तिष्क जादुई तिलस्मी लोक में सैर करने लगता है।

सूर्य शक्ति प्रवाह में पदार्थों के साथ पहला स्पर्श अल्ट्रावायलेट किरणों का होता है। जहाँ भी यह स्पर्श होता है-वहाँ चमत्कारी-उपलब्धियाँ पैदा हो जाती हैं। खाने की चीजों को ही लें। उनकी परत सूर्य किरणों के ज्यादा संपर्क में रहती हैं। फल, शाक, अन्न, आदि का ऊपरी भाग जिसे चोकर या छिलका कहते हैं, सूर्य प्रकाश के संपर्क में रहने के कारण उसमें अन्य उपयोगी तत्वों के साथ विटामिन ‘डी’ विशेष रूप से पाया जाता है।

संसार के अनगिनत प्रकृति विशेषज्ञों ने भी उपेक्षित सूर्य रश्मियों के गुणकारी प्रभाव के संबंध में जन साधारण का ध्यान आकर्षित किया है और कहा है कि सूर्य किरणों के रूप में मिलने वाले बहुमूल्य प्रकृति के वरदान की अवज्ञा न करें। इस दिशा में अधिक शोध कार्य करने वाले विज्ञानियों में डॉ. जेम्स कुक, ए.बी गारडेन, वेनिट, फ्रेंकक्रेन, एफ.जी. वुल्ब जेम्स जेक्सन आदि के नाम अग्रिम पंक्ति में रखे जा सकते हैं।

सुबह को सूर्य किरणों में ‘अल्ट्रा वायलेट’ तत्व की समुचित मात्रा रहती है जैसे-जैसे धूप चढ़ती जाती है लाल रंग की किरणें बढ़ती हैं। उनमें अधिक गर्मी पैदा करने का गुण है। प्रातः कालीन सूर्य किरणों को नंगे शरीर पर लेने का महत्व शारीरिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टि से माना गया है। प्रातः कालीन वायु में टहलना भी इसीलिए अधिक उपयोगी माना गया है कि उस समय सूर्यदेव द्वारा निःसृत अल्ट्रा वायलेट किरणों के साथ जितना संपर्क स्थापित किया जा सकता है और जितना लाभ लिया जा सकता है वैसा अवसर फिर चौबीस घण्टे में कभी नहीं आता।

डॉ. वारनर मेकफेडन, वेनडिकट लस्ट, स्टेनली लीफ आदि प्रकृति विज्ञानी प्रभात-कालीन सूर्य किरणों के सेवर पर बहुत जोर देते रहे हैं। इन किरणों में विटामिन डी, विटामिन बी, विटामिन ए की प्रचूर मात्रा शरीर को प्रदान करने की शक्ति है। बलवर्धक आनिकों की अपेक्षा यह किरणें कहीं अधिक शक्तिशाली एवं निश्चित परिणाम उत्पन्न करने वाली हैं। इसी तत्व को शास्त्रकारों ने “सूर्यो हि नाष्ट्राणाँ रक्षा सम्पहान्ता”। सूर्य की किरणें रोग रूपी राक्षसों का विनाश करती हैं। कहकर स्पष्ट किया है।

सूर्य से आरोग्य लाभ की बात सर्वप्रथम शुक्ल यजुर्वेद में देखी जाती है-

तरणिर्विष्वदर्षतो ज्योतिष्कृदसि, सूर्य विष्वमाभासिरोचनम्॥ (यजु. 33/36)

सूर्यदेव! आप निरन्तर गतिशील एवं आराधकों के रोगों के अपहारक तथा संपूर्ण जीव-जगत के लिए दर्शनीय तथा आकाश के सभी ज्योतिर्पिंडों के प्रकाशक हैं।

अथर्ववेद में पाँव, जानु, श्रोणि, कंधा, मस्तक, कपाल, हृदय, आदि रोगों को उदीयमान सूर्यरश्मियों द्वारा दूर करने की बात कही गई है। (अथर्व. 9-8-19-21-22)। पुनः इसी वेद में उगते हुए सूर्य की रक्ताभ किरणों से रोगियों को चिरायु करने का वर्णन प्राप्त होता है। (1-22-1-2)। अथर्ववेद में ही सूर्य से पण्डमाला रोग को दूर करने की बात आयी है। ( अथर्व 1-83-1)। पुराणों में सूर्य से आरोग्य लाभ पाने की बात को मुक्त कण्ठ से स्वीकारा गया है -

आरोग्यं भास्करा दिच्छेद धनमिच्छेदुताषनात्। ईष्वरान्ज्ञान मिच्छेच्च मोक्षमिच्छेज्ज नार्इनात्॥ (मत्स्य पु. 67-71)

सूर्य चिकित्सा से ही भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब का कुष्ठ रोग दूर हुआ था। महाराज हर्षवर्धन के दरबारी मयूरभट्ट, जो बाणभट्ट के साले भूषणभट्ट के मामा थे, सूर्य चिकित्सा द्वारा दीर्घकालीन व्याधि से निवृत्त हुए थे। उन्होंने सूर्य की स्तुति में सूर्य शतकम् की रचना भी की।

यों सूर्य सफेद रंग का दिखता है और उसकी किरणें भी उजली ही लगती हैं। पर वस्तुतः उनमें सात रंगों का सम्मिश्रण होता है। वे परस्पर मिलकर तो अनगिनत संख्या में हलके गहरे रंगों का निर्माण करती हैं। हर किरण की अपनी विशेषता है। किस पदार्थ पर किस किरण का कितना प्रभाव पड़ा इसका परिचय उसके रंग को देखकर प्राप्त किया जा सकता है। विभिन्न वस्तुओं के विभिन्न प्रकार के रंग दृष्टिगोचर होते हैं यह अकारण नहीं है। उन पदार्थों ने अपनी विशेषताओं के कारण सूर्य शक्ति की अमुक किरणों को विशेष रूप से आकर्षित एवं संचित किया है। फलस्वरूप उनका वह रंग बना है जिसे हमारी आंखें देखती व पहचानती हैं।

रंगों का उपयोग मात्र उनकी पहचान करने तक सीमित नहीं है वरन् उन्हें देखने से उस विशेषता की सहज उपलब्धि हमें होती है जो सूर्य शक्ति से प्राप्त पदार्थों ने अपने भीतर जमा की है। हरियाली को ही लें। पेड़-पौधे घासपात हरे रंग के होते हैं। इन्हें देखने से आंखों को प्रसन्नता मिलती है। गर्मी के दिनों में हरियाली के समीप पहुँचने पर जो प्रसन्न होता है यह अकारण ही नहीं है। हरे रंग में वह गुण है जिससे गर्मी के आतप का समाधान हो सकें।

सर्दियों में गर्मी से दूर रहने पर उसकी दूरवर्ती सिन्दूरी आभा मन पर गरम प्रभाव डालती है। ठंड से बचने में उसका दर्शन भी बहुत राहत पहुँचाता है। आग के निकट पहुँचने पर उसकी गर्मी का लाभ तो मिलता ही है। उसका सिन्दूरी रंग भी कम उत्साह नहीं देता। सिन्दूरी रंग में सूर्य की ऊष्मा का बाहुल्य अनुभव होता है।

अमेरिकी डॉक्टर अर्नेस्ट ने मानव शरीर के विभिन्न अंगों में घटते-बढ़ते रंगों को देखकर उसकी आन्तरिक स्थिति जानने का विज्ञान विकसित किया है। कनाडा के डॉ. सेलिट ने भी इस संदर्भ में लम्बी खोज की है और रोगियों की त्वचा, आंखें, नाखून, जीभ, मल मूत्र का रंग देखने भर से यह जानने में सफलता प्राप्त की कि उनकी आन्तरिक स्थिति क्या है?

सूर्य चिकित्सा सिद्धाँत के अनुसार रोगोत्पत्ति का कारण शरीर में रंगों का घटना-बढ़ना है। रंग एक रासायनिक मिश्रण है। हमारा शरीर भी रासायनिक तत्वों से बना हुआ है। जिसके जिस अंग में जिस प्रकार के तत्व की अधिकता होती है, उसके उसी अंग में उसके अनुरूप उस अंग का रंग हो जाता है। शरीर के विभिन्न अंगों के विभिन्न रंग होते हैं, जैसे त्वचा का गेहुँआ, केशों का काला एवं नेत्र गोलक का श्वेत आदि। शरीर में किस तत्व की कमी है, यह रंग परीक्षा द्वारा जान लिया जाता है। सूर्य में सातों रंग विद्यमान रहते हैं। इसलिए विभिन्न रंगों की बोतलों में जल भर कर उन्हें धूप में रख कर उन रंगों को उन रंगीन बोतल के माध्यम से उस जल में आकर्षित किया जा सकता है। इस जल को औषधि के रूप में रोगियों को देने से वे स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करते हैं।

अथर्ववेद में सूर्य चिकित्सा के संबंध में यह उल्लेख मिलता है।

अनु सूर्य मुदयताँ हृद्द्योतो हरिमा च ते। गो रोहितस्य वर्णेन तेन त्वा परिदध्वसि॥

अर्थात्- “तुम्हारा पीलापन (पीलिया) तथा हृदय की जलन सूर्य की अनुकूलता से उड़ जाये। रश्मियों के तथा उस प्रकाश के लाल रंग को तुझे सब ओर से धारण करना हैं।” भाव यह है कि पीलिया और हृदय रोगों में सूर्योदय के समय सूर्य की लाल रश्मियों के प्रकाश में खुले शरीर बैठना तथा लाल रंग की गौ के दूध का सेवन करना बहुत ही लाभदायक होता है।

यही नहीं सूर्य चिकित्सा विज्ञानियों का कहना है कि सभी प्रकार के रोगों में सूर्य की किरणों से लाभ प्राप्त किया जा सकता है। भूख न लगना, पेचिश, खाँसी, फोड़ा, फुन्सी, नेत्ररोग मानसिक असंतुलन आदि सब में सूर्य किरणों की लाभदायक शक्ति का उपयोग हो सकता है। डॉ. स्किली का मत है कि रोगों से छुटकारा पाने, स्वस्थ होने के लिए रवि-रश्मियों का विधिवत् उपयोग किया जाये।

रश्मि चिकित्सा के इस क्रम में पीला रंग पाचक, नीला शीतल शांति दायक, लाल ऊष्मा प्रधान गरम माना गया है। यह तीन रंग मुख्य हैं। इन्हीं के सम्मिश्रण से अन्य हलके भारी रंग बनते हैं। शरीर की स्थिति एवं आवश्यकतानुसार रंगीन काँचों में छानकर रुग्ण अंग पर उसी रंग की सूर्य किरणें ली जा सकती हैं। सूर्य चिकित्सा की इस प्रक्रिया में सूर्य किरणों के उपयोग के अलावा सूर्य स्नान, सूर्य नमस्कार आदि क्रम भी उपयोगी और लाभदायक अनुभव किए जा सकते हैं।

सामान्यतया सूर्य के संपर्क में रहना ही अच्छा है। असह्य तेज धूप में फिरने की तो आवश्यकता नहीं है पर अपना निवास एवं कार्य क्षेत्र ऐसे स्थानों में ही रखना चाहिए जहाँ सूर्य किरणों का उन्मुक्त आवागमन होता रहें। खुली वायु और सूर्य किरणों के संपर्क में रहकर हम पौष्टिक भोजन से भी कहीं अधिक आरोग्य लाभ कर सकते हैं।


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