सूर्यग्रहण- किंवइन्तियाँ एवं साधनात्मक मर्म

June 1993

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सूर्य और चन्द्र पर लगने वाले ग्रहण क्या हैं? इसके जवाब में इतना तो प्राथमिक शाला के विद्यार्थी भी बता सकते हैं कि चन्द्रमा पर पृथ्वी की छाया पड़ने और सूर्य प्रकाश को उस तक पहुँचने में बाधा पड़ने का दृश्य चन्द्र ग्रहण है। इसी प्रकार सूर्य के प्रकाश को पृथ्वी तक आने देने में जब चन्द्रमा व्यवधान उत्पन्न करता है तो उसे सूर्य ग्रहण करते हैं। पर बात इतने तक सीमित नहीं है। ग्रहण की प्रक्रिया अपने में खगोल विज्ञान एवं ब्रह्माण्डीय हलचलों के चेतना जगत पर पड़ने वाले अनेकों रहस्य समेट संजोये।

खगोल विज्ञानियों के अनुसार पृथ्वी अपनी धुरी पर 24 घण्टे में एक पूरा चक्कर लगाती है। भिन्न-भिन्न अक्षांशों पर उसकी गति भिन्न-भिन्न रहती हैं। विषुवत् रेखा पर यह गति 1040 मील प्रति घण्टा 300 अक्षांश पर यह गति 900 मील, 540 अक्षांश पर 73 और 600 अक्षांश पर 520 मील प्रति घण्टा रहती हैं पृथ्वी की दूसरी गति सूर्य की परिक्रमा है जिसमें 18.5 मील प्रति सेकेंड की गति से उसे 365 दिन लगते हैं। वस्तुतः इस अवधि की ठीक गणना का जोर तो वह 365 दिन 5 घण्टा 48 मिनट और 46 सेकेण्ड से कुछ कम होती है। पृथ्वी की धुरी जिसके चारों ओर वह प्रतिदिन घूमती है अपने परिक्रमा पथ के समकोण नहीं है वर 3 2050 झुकी हुई है।

आकाश में सूर्य का मार्ग 160 चौड़ा है। जिसमें सूर्य चन्द्र तथा अन्य ग्रह चलते दिखाई देते है॥ आकाश के इस मार्ग को- जोहिएक कहा जाता है। इसे पहचानने के लिए उसे 12 भागों में विभाजित किया गया है। जिन्हें राशियां कहते हैं। प्रत्येक राशि 300 की होती है। सूर्य को एक राशि से दूसरा में प्रवेश करने में दो घण्टे लग जाते हैं। इन राशियों को मेष,वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक धनु, मकर कुम्भ मीन नाम दिए गए हैं।

घूमता हुआ लट्टू जब गिरने को होता है तो अपनी कीली पर घूमता हुआ लड़खड़ाने लगता है। उसकी कीली भी घूमने लगती है। पृथ्वी की कीली भी अपनी कटि पर इसी प्रकार घूमती रहती है। यदि इसकी कीली को आषका में बहुत ऊँचे तक बढ़ाया जाय तो वह वहाँ पर एक अलग गोल चक्कर बना देगी। यह पृथ्वी की एक विशेष गति है जिसका ज्ञान सामान्य विद्यार्थियों को नहीं होता। इस पूरे चक्कर के पूरा होने में 2600 वर्ष लगते हैं। पृथ्वी की इस गति का ग्रहणों के क्रम पर भी प्रभाव पड़ता है।

चन्द्रमा 27 दिन 7 घण्टे 43 मिनट 11.5 सेकेंड में पृथ्वी की एक परिक्रमा पूरी करता है। इसे नक्षत्र मास कहते हैं। इस अवधि में चन्द्रमा अपनी एक परिक्रमा पूरी करके यथास्थान आ जाता है। किन्तु इस बीच पृथ्वी अपनी वार्षिक परिक्रमा में काफी आगे बढ़ जाती है। पृथ्वी के मान से चन्द्रमा को एक परिक्रमा पूरी करने के लिए आगे बढ़ना पड़ता है। इस तरह उसे कुल 21 दिन 12 घण्टे 44 मिनट 2.8 सेकेंड लग जाते है। इस अवधि को संयुति मास कहते हैं।

यदि पृथ्वी और चन्द्रमा के वृत्त एक ही तल पर होते तो प्रत्येक पूर्णिमा को चन्द्रग्रहण और प्रत्येक अमावस्या को सूर्यग्रहण दिखाई देता। जब चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करता होता है। तो उसका वृत्त अन्तरिक्ष में इसके समानान्तर रहता है। उन वृत्तों को काटने वाली रेखा वर्ष में कम से कम दो बार सूर्य के केन्द्र की दिशा की ओर इंगित करती है और तब सूर्य चन्द्रमा और पृथ्वी एक सीधी रेखा में हो जताते है। यही ग्रहण का अवसर होता है। इससे यह भी स्पष्ट है कि वर्ष में कम से कम दो ग्रहण जो दोनों सूर्य के भी हो सकते है। अवश्य ही पृथ्वी के किसी न किसी भाग में दिखाई देंगे। वर्ष में ग्रहणों की अधिकतम संख्या 7 है जिनमें 4-5 सूर्य के शेष चन्द्रमा के होते हैं। प्रत्येक ग्रहण 18 वर्ष 11 दिन बीत जाने पर पुनः होता है। किन्तु वह अपने पहले के स्थान में ही हो यह निश्चित नहीं है, क्योंकि संपात बिन्दु चलायमान होता है।

साधारणतया सूर्य ग्रहण की अपेक्षा चन्द्रग्रहण अधिक देखे जाते हैं। पर सच तो यही है कि चन्द्रग्रहण से कहीं अधिक सूर्यग्रहण होते हैं। चन्द्रग्रहणों के अधिक देखे जाने का कारण यह होता है कि वे पृथ्वी से आधे से अधिक भाग में दिखलाई पड़ते हैं, जबकि सूर्यग्रहण पृथ्वी के बहुत थोड़े भाग में-प्रायः सौ मील से कम चौड़े और दो हजार से तीन हजार मील लम्बे भू-भाग में दिखलाई पड़ते है। बम्बई में खग्रास सूर्यग्रहण हो तो सूरत में खण्ड सूर्यग्रहण दिखाई देगा और अहमदाबाद में दिखाई ही नहीं देगा।

चन्द्रमा पृथ्वी से अधिकतम 2.53.000 और न्यूनतम 2.21.600 मील दूर रहता है। जब वह पृथ्वी के निकट होता है तो चाल बढ़ जाती हैं, दूर होता है तो घट जाती है। पृथ्वी और चन्द्रमा में अपना कोई प्रकाश नहीं होता है। सूर्य द्वारा पाए प्रकाश से ही वे चमकते हैं। पृथ्वी, चन्द्र और सूर्य की अपनी-अपनी अनोखी चालें हैं। इस चला−चली में वे जब एक ही, एक समतल पर सीधी रेखा में आ जाते हैं तब ग्रहण पड़ता हैं जब बीच में चन्द्रमा हो तो पृथ्वी पर से पूरे सूर्य को नहीं देखा जा सकता है। सूर्य का जितना हिस्सा चन्द्रमा के बीच में आने से पृथ्वी पर से नहीं दीखता वह सूर्यग्रहण होता है, सूर्यग्रहण मुख्यतः तीन तरह के होते हैं-(1) सर्वग्रास या खग्रास- जो संपूर्ण सूर्य बिम्ब को ढकने वाला होता है (2) कड्कणाकार या वलयाकार-जो सूर्य बिम्ब के बीच का भाग ढकता है। (3) खण्ड ग्रहण जो सूर्य बिम्ब के अंश को ही ढकता है। इसी तरह जब पृथ्वी सूर्य और चन्द्रमा के बीच आ जाती है और चन्द्रमा पृथ्वी की छाया में होकर गुजरते हैं तब चन्द्रग्रहण होता है। चन्द्रग्रहण के समय यदि कोई व्यक्ति-चन्द्रमा पर ही हो तो उसे उस समय सूर्य ग्रहण दिखाई देगा।

ये खगोल शास्त्रीय गणनाएँ पश्चिमी जगत में भले सौ-दो सौ वर्षों से प्रचलित हुई हों, पर भारतीय तत्ववेत्ता इन रहस्यों से हजारों साल पूर्व परिचित थे। महर्षि अत्रि मुनि ग्रहण-ज्ञान के प्रथम ज्ञाता आचार्य थे। ऋग्वेदीय प्रकाश काल से ग्रहण के ऊपर अध्ययन अन्वेषण होते चले आये हैं। ऋग्वेद के एक मंत्र में यह चमत्कारिक वर्णन मिलता है कि “हे सूर्य! असुर राहु, ने आप पर आक्रमण कर अंधकार से जो आपको विद्ध कर दिया, ढँक दिया, उससे मनुष्य आपके रूप को समग्रता से देख नहीं पाए और अपने-अपने कार्यक्षेत्रों में हतप्रभ से हो गए। तब महर्षि अत्रि ने तुरीय यंत्र से छाया का अपनोइन कर सूर्य का समुद्धार किया”।

यत त्वा सूर्य स्वर्भानुस्तमसा विध्यदासुरः। अक्षेत्र विद्यथा मुग्धो भुवनान्यवीधयुः॥

स्वर्भानोरध यदिन्द्र माया अवो दिवो वर्तमाना अवाहन्। गुलं सूर्य तमसाप व्रतेन तुरीयेण-ब्रह्मणाऽविन्ददत्रि-ऋग्वेद 5-40-5.6

‘सिद्धान्त शिरोमणि’ के पर्व सम्भवाधिकार में श्री भास्कराचार्य ग्रहण की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए कहते है ‘भूमा विधुँ विधुरिनं ग्रहणे पिधन्ते’। यही बात ‘सूर्य सिद्धान्त’ के चन्द्र ग्रहणाधिकार प्रकरण में कहीं गई है-

छादको भास्करस्येन्दु धस्थो घनपद् भवेत्। भू छायाँ प्राड्गमुखश्रन्द्रा विषत्यस्य भवेद सौ॥

अर्थात्-नीचे होने वाला चन्द्र बादल की भाँति सूर्य को ढ़क लेता है। पूर्व की ओर चलता हुआ चन्द्रमा पृथ्वी की छाया में प्रविष्ट हो जाता है। इसलिए पृथ्वी की छाया चन्द्रमा को ढ़कने वाली है। सूर्य सिद्धान्ताकार ने पृथ्वी की छाया को, राहु और चन्द्रमा की छाया को केतु

केतुकृण्बन्न केतवे पेषोमर्या अपेषसे। समुर्षद्धि जायथः॥(-ऋ 1/3/6)

हे मनुष्यों! अज्ञानी को ज्ञान देते हुए अरूप को रूप देते हुए ये सूर्य रूप इन्द्र किरणों द्वारा प्रकाशित होते हैं।

कहा है। यह छाया भी अपने ग्रहों के अनुसार सही गति से नियमबद्ध रूप से भ्रमण करती हैं इसलिए नवग्रहों में उन्हें भी सम्मिलित कर लिया गया है।

भारतीय तत्ववेत्ताओं ने ग्रहण ब्रह्माण्डीय रहस्य को पिण्ड में, स्वयं के शरीर में भी साक्षात्कार किया है जाबालोपनिषद् के चतुर्थ खण्ड में योगी के लिए शरीरस्थ चन्द्रग्रहण का स्वरूप बताते हुए उनका साधनात्मक मर्म बताया गया है।

महायोगी दत्तात्रेय जी अपने शिष्य साड्कति को अष्टाँगयोग का उपदेश करते हैं। उसी योगोपदेश के प्रसंग में इड़ा, कुण्डली-पिंगला इन नाड़ियों का वर्णन है। कन्द के मध्य में सुषुम्ना नाड़ी हैं। जिसके चारों ओर बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैं सुषुम्ना के बांये भाग में इड़ा नाड़ी है और दक्षिण में पिंगला नाड़ी है। नाभिकन्द से दो अंगुल नीचे कुण्डली नाड़ी है। इड़ा नाड़ी से जब प्राण कुण्डली के स्थान में पहुँचता है तब चन्द्र ग्रहण होता है। जब पिंगला से कुण्डली के स्थान में प्राण जाता है तब सूर्यग्रहण होता है। ग्रहण संबंधी यह पिण्ड परक प्रतिवादन स्वयं में अनूठा है।

किन्तु जिन देशों की मानवीय सभ्यताएँ-पिण्ड और ब्रह्माण्ड के इस रहस्य से अपरिचित थीं, उनमें ग्रहण को लेकर तरह-तरह की किंवदंतियाँ फैली थी। चीन देश में मान्यता थी कि आकाश के दोनों सिरों पर ड्रैगन दैत्य परिवार समेत बसते हैं। जब परिभ्रमण करते हुए चन्द्र-सूर्य उनके समीप से गुजरते हैं तब वे दैत्य उन पर टूट पड़ते हैं। मनुष्य लोक का शोर सुनकर ही वे डर कर भागते और इन देवताओं को मुख से उगलते हैं। यूनान में भी ग्रहण को दैत्यों का आक्रमण माना जाता रहा है। अमेरिकी रेड इण्डियन, अफ्रीकी हब्शी उस समय सूर्य चन्द्र के बीमार पड़ने की किंवदंती पर विश्वास करते हैं। अन्यान्य देशों में उन पर भेड़ियों, कुत्तों, बाघों, साँपों का आक्रमण होने की मान्यता है। प्रशांत के तराहती द्वीपवासियों की कल्पना इन सबसे अनोखी है। वे सूर्य को प्रेमी और चन्द्र को प्रेमिका मानते है और कभी सुयोग मिलने पर उनके मधुर मिलने की बेला को ग्रहण मानते हैं। उस दृश्य को देखने में वे लज्जा अनुभव करते हैं और मुँह छिपाते फिरते हैं।

किंवदंतियों एवं भ्रामक मान्यताओं का लाभ उठाकर कुछ बुद्धिवादी लोग ग्रहण का चतुरतापूर्वक उपयोग करने में भी सफल रहे हैं। अमेरिका के आदिवासियों का विद्रोह शान्त करने के लिए कोलवत ने ऐसी ही चतुरता से काम लिया। उसने बागियों के नेताओं को बुलाकर कहा तुम्हारे कृत्यों से देवता बहुत नाराज हैं। वे पूर्व सूचना के रूप में अमुक दिन चन्द्रमा को अपनी झोली में डालकर ले चलेंगे और तुम्हारे ऊपर विपत्ति बरसने का शाप देंगे। नियत समय पर आदिवासी एकत्रित हुए और उनके उस पूर्व कथन को सर्वथा सच पाया। फलतः वे बुरी तरह डर गए और कोलंबस का साथ देने लगे।

अपने में अनेकों किंवदंतियों, रहस्यों को समेटे ग्रहण की प्रक्रिया जितनी महत्वपूर्ण है, ग्रहण की बेला उससे कहीं अधिक कीमती है। वैज्ञानिकों ने सूर्यग्रहण को शोधों के निमित्त बड़ा अनुकूल माना है। खग्रास अथवा अधिक ढके सूर्यग्रहण के समय प्रकृति की विलक्षणताओं को अपेक्षाकृत आसानी से खोजा जा सकता है। भूतकाल में कितने ही महत्वपूर्ण अनुसंधान सूर्यग्रहण की अवधि में संभव हुए हैं।

ग्रहण बेला में न केवल प्रकाश ही घटता है वरन् वातावरण में और भी बहुत कुछ परिवर्तन हो जाता है। इसकी जानकारी पक्षियों को विशेष रूप से मिलती है। फलतः वे डरकर अपने घोसलों में जा छिपते हैं। जबकि उससे भी अंधेरा करने वाली बदली आसमान पर छा जाने के समय उनकी सामान्य-गतिविधियों में कोई अंतर नहीं पड़ता। वातावरण का यह विचित्र परिवर्तन सामान्य जीवन तथा पदार्थों पर भी विशेष रूप से पड़ता है। फलतः उसकी स्थिति में सावधानी रखने तथा सुरक्षा बरतने की आवश्यकता होती है। वातावरण में ग्रहण काल में होने वाले इस परिवर्तन का साधनात्मक दृष्टि से भी गंभीर महत्व है। अगस्त्य संहिता में का है-

सूर्यग्रहण कालेन समाडन्यो नास्ति कष्चन । तब यद् यत्कृत सर्वमनन्त फलदं भवेत् ।

सिद्विर्भवति मंत्रस्य विनाडयासेन वेगतः । कर्त्वव्य सर्वयत्रे! मंत्रसिद्विरभीप्सुभिः॥

सूर्याद् भविन्त भूतानिः सूर्येण पालितानि तु । सूर्यलयं प्राप्नवन्ति यः सूर्य सोडहमेव च ॥

सूर्य से ही समस्त प्राणियों की उत्पत्ति होती है।

सूर्य से ही पालन होता है और सूर्य में ही लय होता है और जो सर्व है वहीं मैं हूँ।

अर्थात् तीर्थों और सूर्यग्रहण तथा चन्द्रग्रहण में मंत्र दीक्षा लेने के लिए कोई विचार न करे। सूर्यग्रहण के समान और कोई समय नहीं है। सूर्यग्रहण में अनायास ही मँत्रसिद्धि हो जाती है।

गणपत्योपनिषद् के अनुसार-

सूर्यग्रहणे महानद्याँ प्रतिमा संनिद्यों का जपत्या स सिद्ध मन्त्रो भवति (गणपत्युपनिषद् मंत्र 8)

अर्थात्-सूर्यग्रहण में महानदियों या किसी प्रतिमा के पास मंत्र जपने से वह तुरन्त सिद्ध हो जाता है।

प्रायः हर वर्ष सूर्यग्रहण व चन्द्रग्रहण की एक श्रृंखला बनी ही रहती है। इनके साथ होने वाले वातावरण के परिवर्तन हमारे व्यक्तित्व में सार्थक परिवर्तन कर सकें इसके लिए हमें अपने उपासनात्मक आधार को बढ़ाना और मजबूत करना चाहिए। अगले दिनों सौर ग्रहणों की संख्या में बढ़ोत्तरी होने जा रही है चूँकि यह संधिकाल है। इस अवधि में की गयी साधना निश्चित रूप से भगवान भुवन-भास्कर की अनुकम्पाओं की निमित्त कारण बनेगी, इसमें कोई संदेह नहीं है।


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