विराट प्राण पुरुष- सविता देवता

June 1993

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विश्व रचना के दो प्रभाव तत्व है। पहला-प्राण दूसरा भूत। इन दोनों तत्वों का जहाँ भी मिलन हो जाता है, वहीं गतिमान या क्रियाशील जीवन के दर्शन होने लगते है। केवल भूत पदार्थ प्राण के बिना स्पन्दित नहीं हो सकता। इसलिए भौतिक जगत में जहाँ भी जीवन तत्व है, वह प्राण ही है इसे ही गायत्री कहते हैं ऐसी ऋषियों की मान्यता है।

मनुष्य में भूत व प्राण दोनों ही शक्तियाँ स्पष्ट रूप से प्रकट होती है। बचपन में छोटा-सा पंच भौतिक पदार्थों का पिण्ड छोटा-सा प्राण धारण किये हुए था। तब उसकी शक्ति और तेजस्विता कम थी पर जैसे-जैसे शरीर का विकास होता है, प्राण की मात्रा बढ़ने के साथ शक्ति और क्रियाशीलता भी बढ़ती है। अवस्था के क्रम में बाल्यावस्था, यौवन और वृद्धावस्था को गायत्री की समिधा कहा गया है क्योंकि प्राण तत्व इन्हीं में जलता है। उसके बाद दोनों तत्व फिर अलग-अलग हो जाते है। प्राण निकल जाता है और पंचसूत्रों से बना निताँत प्राकृत शरीर पड़ा रह जाता है। इस छूटे हुए शरीर को ऋग्वेद में-

यद् गायत्रे अधि गायत्र माहितम्। 1-164-23

अर्थात् “पंचभूतों से बना शरीर मर्त्य मर्त्य गायत्री है। इसमें सोचने, समझने, सुख-दुःख अनुभव करने क्षोभ और विकलता व्यक्त करने वाली शक्ति प्राण थी। शरीर निस्पंद और अनुभवहीन होता है। इसलिए सुख-दुख ही नहीं मनुष्य जीवन की सारी हलचल, परिवर्तन, गति, उन्नति, अवनति का कारण भी प्राण ही है।”

अधिक सूक्ष्मता से विचार करने पर स्पष्ट होता है कि जो प्राण शरीर के विभिन्न क्षेत्रों में क्रियाशील रहता है, वह भी भौतिक है। किरणें, ज्योति या अग्नि जैसा कोई स्थूल तत्व कह सकते हैं। उसे नियंत्रित और प्रेरित करने वाली एक तीसरी मनोनयन शक्ति है। इसी की इच्छा और संकल्प शक्ति से शरीरगत व्यापार चलते हैं। इसलिए गायत्री इस एक शब्द में ही पंच भौतिक प्राण में मन-त्रिक शक्ति का समग्र रूप आ जाता है। शास्त्रों में इसे भौतिक क्लेश और प्रपंच से मुक्ति दिलाने वाली विद्या कहा गया है।

गायत्री का आविर्भाव कहाँ से होता है? यह सवाल उठता है उपनिषद्कार कहते हैं-

“देवात्म शक्तिं स्वगुणे निगूढ़ः”

देव माया या इंद्र शक्ति ही वह सत्ता है जो विश्व गायत्री अर्थात् अनेक रूप में विकसित होती है। यह देवशक्ति या इंद्र कौन है-”तस्य दृश्यः शतादशः”

सूर्य ही वह इंद्र है जिसकी हजारों किरणें हैं। एक-एक किरण एक-एक रूप है। इन किरणों में प्राण शक्ति भरी होती है। सूर्य को त्रयी विद्या भी कहा गया है, अर्थात् सूर्य स्वयं भी एक वैसी ही गायत्री है जिस तरह की एक गायत्री शरीर प्राण और मनोनयन रूप में धरती में विद्यमान रहती है। इस तरह यदि सूर्य को एक विराट पुरुष की संज्ञा प्रदान करें जो एक व्यापक क्षेत्र में बिलकुल मनुष्य की तरह क्रियाशील रहता है। सोच-विचार भी कर सकता है, विकल और क्षुब्ध हो सकता है। दंड और पुरस्कार दे सकता है। हर्ष और शोक, संतोष और असंतोष व्यक्त कर सकता हैं तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

अब तक यह विषय हमारी श्रद्धा का रहा है। अर्थात् उसके हृदय में वैराग्य और श्रद्धा उत्पन्न होती थी वह यह मान लेता था कि “निखिल आकाश या किसी लोक में गायत्री नाम की कोई देवी बैठी होगी, जो हमारे आँतरिक भावों को सुन और समझकर अपने वरदान दे सकती होगी। “ पर अब उनके विराट पुरुष को विज्ञान ने इस तरह सिद्ध कर दिया है कि जिनके हृदय में उस रूप से भाव विह्वलता न हो तो वे भी इस प्राण पुरुष से अपना संपर्क स्थापित कर उसी प्रकार लाभान्वित हो सकते है जिस तरह बड़े बिजली घर से संपर्क स्थापित करके छोटा बिजली घर भी प्रकाशमान हो उठता है।

मनुष्य एक छोटी गायत्री है, सूर्य एक विराट गायत्री। छोटी गायत्री को जब विराट गायत्री के साथ जोड़ देते है तो वह भी वैसी ही शक्ति और संपन्नता अनुभव करने लगती है जैसे धनवान पिता का पुत्र पास में कुछ न होने पर भी अपने पिता की तरह ही धन का अभिमान और कुछ भी क्रय कर सकने का विश्वास कर सकता है। अर्थात् गायत्री के विराट स्वरूप को पा जाने पर मनुष्य भी उतनी ही क्षमता वाला हो सकता है जितनी सूर्य भगवान की क्षमता है। इसे ही सिद्धि कहते है।

यह जानना जरूरी है कि क्या सचमुच सूर्य मनुष्य की तरह त्रिकशक्ति वाला विराट पुरुष है जिसमें मनुष्य की तरह संवेदनशीलता हो सकती है? सूर्य रश्मियों के वर्णन में वैज्ञानिक यह कहते है कि यह तीन रंगों का (सात रंग इन रंगों के मिश्रण से बनते हैं मूल रंग तीन ही हैं) सम्मिश्रण है। स्पेक्ट्रोमीटर के द्वारा इन रंगों को अलग-अलग भी कर दिखाया जा सकता है। यदि मनुष्य और सूर्य में ऐसा कुछ साम्य है तो मनुष्य शरीर में भी इन रंगों को परिलक्षित होना चाहिए पर यहाँ तो रक्त का रंग भी लाल है। फिर साम्य कहाँ हुआ?

लेकिन विज्ञान के विद्यार्थियों को पता होगा कि रक्त का रंग लाल नहीं है। कई तथ्यों के सम्मिश्रण से वह लाल दिखायी देता है। अन्यथा रक्त के कोषाणु विशुद्ध पीले रंग के होते हैं। आजकल पूर्ण मृत्यु का पता लगाने के लिए त्वचा में यूरेनाइन नाम का इंजेक्शन दिया जाता है। यदि मनुष्य की मृत्यु नहीं हुई और रक्त संचार हो रहा होता तो त्वचा का रंग पीला और हरा हो जाता है। नीला रंग राल रंग की गहराई के कारण दृश्य नहीं हो पाता। अन्यथा इस विधि से शरीर की इस त्रिक शक्ति का स्पष्ट विश्लेषण हो जाता है। मृत देह में इंजेक्शन का कोई असर नहीं होता।

प्रत्यक्ष में निर्विकार दिखायी देने वाले सूर्य के संबंध में सर्वप्रथम इन्गोल स्टाड के पादरी क्रिस्टाफ शाइनर ने एक संदेश अपने अध्यक्ष पादरी को दिया था कि उसमें काले-काले धब्बे विद्यमान हैं। लेकिन अरस्तू के ग्रंथ में ऐसा कुछ न था। इसलिए बेचारे शाइनर की कड़ी डॉ.ट-फटकार सुननी पड़ी। किंतु सौभाग्य से उन्हीं दिनों गैलीलियो ने दूरदर्शक यंत्र की सहायता से इस बात की पुष्टि कर दी कि सूर्य में सचमुच विभिन्न वर्णों के धब्बे दिखायी देते हैं और यह धब्बे हलचल करते है। कभी फूट कर फैल जाते हैं कभी एक धब्बा लुप्त हो जाता है, उसके पास का धब्बा कौंधने लगता है। कई बार वे कई भागों में बँट जाते हैं। पहले ही इन हलचलों का कारण वैज्ञानिक नहीं जान सके थे, पर धीरे-धीरे पता चला कि यह सब तपी हुई गैसों के बहुत बवण्डर हैं और वे बिल्कुल मनुष्य की सी इच्छा शक्ति से मेल खाते हैं।

सूर्य की इस दमक के साथ जो प्रकाश फूटता है उसे फ्लेयर कहा जाता है और उस समय जो प्रकाश सर्पिलाकार लहरों में दौड़ता है-वह फिलामेण्ट कहलाता है। अब इनके संबंध में कई आश्चर्यजनक तथ्य सामने आने से वैज्ञानिक यह मानने को सहमत हो रहे हैं कि सूर्य के अंदर संवेदना व्याप्त है। अर्थात् यह हलचल विकलता, शोध, प्रसन्नता और क्रोध जैसी भावनाओं के स्थूल स्पंदन हैं और जिस तरह विचारों का प्रभाव मनुष्य के शरीर पर पड़ता है। उसी प्रकार यह विकलताएँ भी प्रकृति में भारी हलचलें उत्पन्न करती रहती है। विकलता की स्थिति में सूर्य विशेष प्रकार के सूक्ष्मकण और किरणों के अंबार छोड़ता है जो बड़े वेग से चलकर करोड़ों मील तक अपना प्रभाव डालते हैं। यहाँ तक कि चुम्बकीय क्षेत्र को भी मथ डालते हैं। ऐसे समय कुतुबनुमा की सुई तक काँपने लगती है।

इनका प्रभाव पृथ्वी पर पड़ता है तो उससे हिमपात ओले, अनावृष्टि, वृक्षों की वृद्धि, बाढ़, वर्षा झंझावात, ताप और शीत की मात्रा में तीव्रता से परिवर्तन आदि दृश्य उपस्थित होते हैं। इतना ही नहीं विगत दिनों इनके प्रभाव राजनीतिक आर्थिक, सामाजिक एवं भावनात्मक क्षेत्र में भी देखे गये हैं। कुछ महीने पूर्व “साँइटिफिक अमेरिकन” पत्रिका में प्रकाशित विज्ञानवेत्ता एम. ममफोर्ट के शोध पत्र “सनस्पाटः एक्खिनेस एण्ड इफेक्टस” के अनुसार सूर्य से एक प्रकार की आँधी चल पड़ी है और वहाँ इस समय तेजी से विकलताएँ परिलक्षित हो रही है। उनका पृथ्वी पर तेज प्रभाव होगा। प्राकृतिक हलचलें तीव्र होंगी। वायु दुर्घटनाओं की संख्या बढ़ेगी मानवीय संकट बढ़ेंगे।

यह आपदाएँ 6-7 वर्षों तक बनी रह सकती हैं। सूक्ष्मदर्शियों के अनुसार ये हलचलें सूर्य की मनोमय क्राँति है और उनका यह विश्वास है कि इससे विश्व के भूगोल में कितने ही बड़े और भयंकर परिवर्तन क्यों न हों पर भारतीय संस्कृति को उससे संरक्षण ही मिलेगा। इसके अभ्युत्थान के मूल में उन विराट पुरुष की ही इच्छा काम कर रही है। चाहे इसे कोई वैज्ञानिक दृष्टि से मान ले अथवा श्रद्धापूर्वक स्वीकार कर ले। सूर्यदेव की इस मनोनयन प्रकृति के अलावा उनकी प्राणशक्ति और पंचभौतिक प्रकृति भी है।

शरीर में जितनी धातुएँ रासायनिक तत्व आदि हैं, वह सब सूर्य में ही है। मनुष्य का शरीर सूर्य और पृथ्वी के तत्वों के सम्मिश्रण से बना है। इसलिए शारीरिक और मानसिक दृष्टि से शरीर पृथ्वी से ही प्रभावित नहीं होते वरन् उन पर सूर्य का भी प्रचण्ड हस्तक्षेप रहता है। हम यदि शरीर पर विचार करें तो प्रतीत होगा कि अन्न जल आदि पृथ्वी का रस सेवन करने से हमारे शरीर में आक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन, लोहा गंधक, सोडियम, कैल्शियम आदि विभिन्न तत्व उत्पन्न होते है। वहाँ उसमें इन तत्वों से भी सूक्ष्म प्राण शक्तियाँ भी क्रियाशील हैं। प्राण के द्वारा ही हमारे शरीर में स्पंदन है। छींकना, जम्हाई लेना, अपान, वायु का विसर्जन, निद्रा, पलक झपकना आदि क्रियाएँ प्राण के द्वारा ही संभव है। इस प्राण और पंचभौतिक प्रकृति को सूर्य विज्ञान के द्वारा आसानी से समझा जा सकता है। मनुष्य की तरह प्राण पंचभौतिक प्रकृति और मनोमय क्रियाशील तीनों ही अंग सूर्यदेव में विद्यमान है।

हम उनको आत्मा के रूप में “गायत्री” के रूप में ध्यान और धारण करते हैं, चाहे तो उनकी कल्पना एक विराट पुरुष के रूप में भी कर सकते है। यह निश्चित है कि जिस तरह मनुष्य का एक छोटा-सा अहंभाव है, सूर्य का भी वैसा अहंभाव संभव है और जिस तरह हम किसी तेजस्वी महात्मा के वरदान द्वारा प्राण प्राप्त कर सकते हैं। इन प्राण पुरुष गायत्री के तत्व देवता-सविता से और अधिक विश्वासपूर्वक ऐसे आशीर्वाद और स्नेह प्राप्त कर सकते हैं। शर्त इतनी भर है कि यदि हम उनको अपनी श्रद्धा और निष्ठा से उसी तरह प्रभावित कर सकें, जिस तरह पुत्र अपने पिता को प्रसन्न करके स्नेह के साथ उनकी अन्य भौतिक वस्तुओं का भी अधिकार प्राप्त कर लेता है।

अभी यह रहस्य और विस्तृत होने वाले हैं। अभी वैज्ञानिकों को ध्यान की प्रणाली का पूरा-पूरा ज्ञान नहीं है। जिस दिन इस विद्या की वैज्ञानिक जानकारी देनी संभव हो जायगी उसी दिन उपासना श्रद्धा और भक्ति आदि का रहस्य भी प्रकट हो जायेगा और सिद्धियों सामर्थ्यों की बात भी सत्य साबित हो जायेगी। सूर्य भगवान का दृश्य और अदृश्य क्रिया क्षेत्र पृथ्वी ही नहीं अनेक ग्रह नक्षत्रों तक व्याप्त है। मनुष्य की दृश्य शक्ति उसकी आँखें ऐसी नहीं हैं कि वह उतने व्यापक क्षेत्र को देख सके। किंतु जब वह अपना संबंध सूर्यदेव के साथ जोड़ लेता है, तो वह भी उसी तरह ने केवल पृथ्वी की हलचलों और परिवर्तनों का जानकार हो जाता है वरन् उसे ब्रह्मांडों के भी रहस्य ज्ञात होने लगते है। यही नहीं वह एक अंश तक उन परिवर्तनों के साथ अपनी सम्पत्ति जोड़कर उन्हें कुछ कम या ज्यादा कर सकता है।

हजारों वर्ष पूर्व प्राण विद्या के आचार्यों ने कहा था-

तेजसा वै गायत्री प्रथमं त्रिरात्रं दाधार पदैद्वितीयमक्षरै स्तृतीयम्। ता. 10-53

तेजो वै गायत्री -गो.उ. 5-3

ज्योतिवैं गायत्री छंदसाम ता. 16-7-2

अर्थात्-गायत्री एक प्रकार का तेज है जो प्रकाश और ऊष्मा के रूप में विश्व का मूल है। सूर्य गायत्री तेज का सबसे बड़ा भंडार है और विश्व के निर्माण में सबसे बड़ा कारण भी।

इसी प्रकार गायत्री के मनुष्य जीवन में प्रादुर्भाव के स्वरूप को व्यक्त करते हुए शास्त्रकार ने बताया कि “मन एवं सविता” अर्थात् मन ही सविता है। तात्पर्य यह कि जब मन और सूर्यदेव का तादात्म्य करते है तो सूर्यदेव की भर्ग शक्ति मनुष्य के अन्तःकरण में प्रवेश करती है। इसी का नाम असत् संस्कारों का निष्कासन और सत्संस्कारों का विकास है। जब तादात्म्य की स्थिति ऐसी हो जाय कि सूर्य का ध्यान करते हुए मन की अग्नि और सूर्य का रूप दोनों एक हो जायें। कोई और तब गायत्री की सम्पूर्ण अनुभूति और शक्ति का स्वामी वह मनुष्य होगा और उन क्षमताओं से प्रकृति में परिवर्तन की शक्ति से विभूषित होगा, जिनकी ऊपर व्याख्या की गई है।


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