ऋषियों की अमूल्य देन- मधुविद्या

June 1993

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सविता-अमृत तत्व का स्रोत है। इसकी उपासना साधक के जीवन में प्राण भरती-मन में उल्लास तरंगित करती और आत्मा को उसके अमृत स्वरूप का बोध करा देती है। इसकी ओर से साधक का ध्यान हट न जाय ऐसी सतर्कता रखते हुए अध्यात्म विद्या के अन्वेषक मनीषियों ने जगह-जगह पर उसके अर्थ, गुण, कर्म एवं स्वरूप को प्रतिपादित किया है।

छान्दोग्य-उपनिषद् में वर्णित मधुविद्या इस रहस्यमयी तत्व का सर्वांगीण विवेचन है। स्थान-स्थान पर बिखरी उपासना की रहस्य रश्मियाँ एकत्रित होकर यहाँ प्रकाशित है। इस उपनिषद् के प्रथम खण्ड के प्रथम बारह श्लोकों में मधुविद्या एवं सविता साधना को मनोरम ढंग से समझाया गया है। इसके अनुसार आदित्य देवताओं का मधु है-

ॐ असौ वा आदित्यो देव मधु तस्यद्यौरेव । तिरश्चीनवँ शोऽन्तरिक्षमपूपो मरीचयः पुत्रः ॥ (छा.उ.3-1-1)

अर्थात् “ ॐ यह आदित्य निश्चय ही देवताओं का मधु है। द्युलोक ही वह तिरछा बाँस है। जिस पर यह मधु लटका है। अंतरिक्ष छत्ता है और किरणें मधुमक्खियों के बच्चे के समान है।”

इस मंत्र में जहाँ तत्वदर्शी ऋषियों द्वारा साक्षात्कृत परम तत्व की अनूठी अभिव्यंजना की गई है वहीं उनकी वैज्ञानिक जानकारी का भी परिचय मिलता है। आदित्य का आधिभौतिक रूप परमाणु है। आधुनिक विज्ञान पदार्थ विद्या मात्र होने के कारण मात्र पदार्थ तत्वों का विश्लेषण करता है। इसलिए इसकी पदावली मात्र भौतिक द्रव्य के लिए निर्दिष्ट होती है। आमतौर पर आधुनिक परिवेश में पले और पढ़े लोग इसे ही एकमात्र सही वैज्ञानिक विधि मान बैठते हैं, क्योंकि वे मस्तिष्कीय क्षमताएँ जो कि चिंतन प्रणालियों का निर्धारण करती हैं, वे अभ्यस्त क्रम का ही विचार करने में सुविधा का अनुभव करती हैं। यही कारण है कि मनुष्य अपने प्रिय एवं परिचित विषय को ही बार-बार सुनना-देखना एवं अनुभव करना पसंद करता है और थोड़े हेर-फेर से उसी अनुभव को दुहराने को वह नयापन-नवीनता आदि कहता समझता रहता है। उस प्रचलित ढर्रे से भिन्न सोचने करने वाले को सामान्य मनुष्य न समझ पाते और न सह पाते हैं। वे उसे अप्रामाणिक , अशास्त्रीय, अवैज्ञानिक आदि कहने लगते है। बाद में कालक्रम में जब वह नया प्रतिपादन उनके लिए जाना-पहचाना हो जाता है तब वे उसे तो स्वीकार कर लेते हैं किंतु अगले नये प्रतिपादन, नये अन्वेषण के प्रति पुनः वैसी ही प्रतिक्रिया करते हैं।

यह सब यहाँ इसलिए स्मरण करना आवश्यक लगा क्योंकि इन दिनों जो वैज्ञानिक पदावली चली है उसमें सिर्फ पदार्थ तत्व का निर्देशन रहने से लोग उसे ही एक मात्र वैज्ञानिक अभिव्यक्ति मानने लगे है। किंतु प्राचीन भारतीय चिंतक वैज्ञानिकों की अभिव्यक्ति प्रणाली भिन्न थी। वे मात्र पदार्थ विद्या के जानकार नहीं होते थे अपितु देवतत्व तथा आत्मतत्व के भी मर्मज्ञ होते थे। अपनी हर समग्रता के कारण उन्होंने अभिव्यक्ति की ऐसी प्रणाली का आविष्कार किया था जिसमें एक ही पदावली एक साथ आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक तीनों ही अभिप्रायों-अर्थों को अभिव्यक्ति करती थी। ऐसा करना जहाँ आज की अभिव्यक्ति शैली से बहुत अधिक जटिल-कठिन कार्य था, वहीं सामान्य जन के लिए वह आधुनिक शैली की तुलना में अधिक उपयोगी एवं लाभकारी था। उनका एक साथ ही तीनों स्तरों पर परीक्षण होता चलता था। स्पष्टतया इस अभिव्यक्ति प्रणाली के लिए अनुपम मेधा की आवश्यकता है, जो ऋतम्भरा प्रज्ञायुक्त ऋषियों में ही संभव है।

उपरोक्त मंत्र भी उसी महान भारतीय शास्त्रीय शैली में सविता तत्व का विवेचन है। आदित्य का आधिभौतिक रूप है परमाणु, आधिदैविक रूप है ग्यारह प्रमुख देवगणों में से एक आदित्य देव तथा आध्यात्मिक रूप है चेतना-आदित्य, सर्वव्यापी सविता ब्रह्म। यत्पिण्डे-तत ग्रह्मण्डे की अद्भुत शैली में ही सृष्टि संरचना होने के कारण ही ऐसा प्रतिपादन संभव हो सका है क्योंकि जो अणु में है वही विराट रूप में विभु में है।

यहाँ पर मंत्र में आदित्य का जो वर्णन है, वह परमाणु पर भी लागू होता है। तिरछे बाँस की तरह का द्युलोक परमाणु में इलेक्ट्रान की भ्रमण कक्षा वाला बाह्य स्तर है। आर्बिटल्स से युक्त परमाणु-कलेवर ही मधु का छत्ता है। परमाणु के इन अन्तस्थ कोष्ठकों में जो फोटान कण होते हैं वे ही मधुमक्खियों के बच्चे रूपी मरीचि है। भौतिक सूर्य पर भी यही विवरण लागू होता है, क्योंकि वह ऐसे ही परमाणुओं की एक विशाल, विराट “मास” ही तो है। फोटान में विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा भरी रहती है और वे सूर्य किरणों की तरंगों से समाहित रहते हैं।

फोटान प्रकाश कण हैं, यह अब सर्वविदित है। मरीचि सूर्य की रश्मियों का ही नाम है। सूर्य का भी एक नाम मरीचि या मारीचि है। यहाँ अभिव्यंज्जित दृश्य यानि प्रकाश विकिरण ऊर्जाओं के स्तर पर सक्रिय चेतना शक्तियाँ है। आध्यात्मिक दृष्टि से यह आदित्य सर्वव्यापी सविता ब्रह्म है। वह देवताओं का मधु है। चेतन देव सत्ताओं की अमरता और मधुमयता का उद्गम स्रोत सविता ही है। “सविता वा देवानाँ प्रसविता” शास्त्रीय कथन है। सविता ही देवों का प्रसविता है। उसी से मधु रस ग्रहण कर देव सत्ताएँ बलवान बनती हैं। यह मधु संपूर्ण अंतरिक्ष में संव्याप्त है। अंतरिक्ष या आकाश तत्व, ब्रह्मांडव्यापी अमूर्त मौलिक तत्व है। उसमें जो चेतना का मधु भरा है, वही आदित्य-सा सविता है। देव ऊर्जाएँ उसी से शक्ति या प्राण-रस , मधु -रस ग्रहण करती रहती है।

उपनिषद्कार में इससे आगे सूर्य से चारों ओर विकीर्ण होने वाली रश्मियों को मधु नाड़ियाँ कहा है। इन मधु नाड़ियों से भिन्न-भिन्न दिशाओं में प्रवाहित मधु की चर्चा की गयी है। इस संबंध में जहाँ तक आधुनिक भौतिकी का प्रश्न है, वह सृष्टि के मूल कणों की खोज के क्रम में इस तथ्य तक तो पहुँच चुकी है कि परमाणु नाभिक के परितः ऊर्जा स्तरों में इलेक्ट्रान का परिभ्रमण करते रहते हैं। यह परिभ्रमण गति आवर्तक होती है। किंतु इस गति को दिशा और उसके सापेक्ष वेग का निर्धारण आधुनिक भौतिकी के द्वारा अभी संभव नहीं हो सका है। कारण यह है कि इलेक्ट्रान की ठीक-ठीक स्थिति एवं उसके वेग का वैज्ञानिक अध्ययन प्रयोगशाला में प्रकाश रश्मि के ही उपयोग से किया जाता है और स्वयं प्रकाश रश्मि में फोटान कण होते है जो सृष्टि के मूल कणों में से एक हैं और अजर अमर हैं।

प्रकाश वेग से चलने वाले ये कण इलेक्ट्रान से टकराकर उसके संवेग और उसकी स्थिति एवं दिशा में अंतर उत्पन्न कर देते है। इस प्रकार जिस वैज्ञानिक इलेक्ट्रान की गति एवं स्थिति की जानकारी पाना चाहते हैं। वह खुद भी अपनी सूक्ष्मता एवं प्रखरता के कारण इन सूक्ष्म इलेक्ट्रॉन कणों को प्रभावित कर देता है और सही-सही अध्ययन, परीक्षण-निरीक्षण, विश्लेषण-असंभव हो जाता है। जबकि मधु विद्या के ज्ञाता एवं विवेचक आचार्यों ने चैतन्य विकिरण ऊर्जाओं की गति एवं दिशा का भी विवेचन किया है। जिसमें उसकी वैज्ञानिक क्षमता के भी अति विकसित होने का पता चलता है।

आदित्य से निकलने वाली विकिरण ऊर्जाओं का यह विश्लेषण इस प्रकार किया गया है।

“तस्य ये प्राञ्चो रश्मयस्ता एवास्य प्राच्योमधुनाऽयः।

ऋच एष मधु कृत, ऋग्वेद एवं पुष्पं ता अमृता आपस्ता वा एवा ऋचः।

एवम् ऋग्वेदमभ्यस्तयाँ स्तस्याभितप्तस्य यशस्तेज इंदियं वीर्य सन्नाय्व रसोऽजायत।

तद्धयक्षस्त्तदादित्यमभितोंऽश्रयत्तद्धाएतद्यदेतदादित्यस्य रोहित रुपम।” (छा.उ.3-1-5.314)

अर्थात् उस आदित्य की पूर्ववर्ती दिशा की किरणें ही इस अंतरिक्ष रूपी छत्ते के पूर्व दिशावर्ती छिद्र हैं, ऋचाएँ ही मधुकर हैं। ऋग्वेद ही पुष्प हैं, सोम आदि को अभितप्त किया। अभितप्त ऋग्वेद से यश, तेज, इंद्रिय, वीर्य एवं अन्न का आद्य रूप ‘रस’ उत्पन्न हुआ। वे सब जाकर आदित्य के पूर्व भाग में आश्रय पाकर वहीं उस आदित्य के लाल रूप में प्रतिष्ठित हैं। इसी तरह इसी अध्याय के दूसरे खण्ड में कहा गया है “अथ येऽस्य दक्षिणा रश्मयस्ता एवास्य दक्षिणा मधुनाडय़ो यजूँ प्येव मधुकृतो यजुर्वेद एवं पुष्पं ता अमृता आपः” (छा. 3-2-1)

अर्थात् इस आदित्य की दक्षिण दिशा की किरणें ही इसकी दक्षिणा दिशावर्ती मधु नाड़ियां हैं। यजु श्रुतियाँ ही इसकी मधुकर हैं। यजुर्वेद ही पुष्प हैं, सोमादि जल हैं। आदि।

आगे तीसरे खण्ड में “अथयेऽस्य प्रत्यञ्चो रश्यमयस्ता एवाच्य प्रतीच्यो मधुनाडय़ः” आदि कहकर पश्चिमी छिद्र से प्रस्तुत पश्चिम दिशावर्ती किरणें ही पश्चिमी मधुनाड़ियाँ कही गई हैं। साम श्रुतियाँ उनके मधुकर एवं सामवेद पुष्प बताये गए हैं। (छा. 3-3-1)

चौथे खण्ड में उत्तर दिशा की ओर प्रवाहित किरणें उत्तरी मधुनाड़ियां बताई गयी हैं। अथर्वाडिंःरस उनके मधुकर और इतिहास पुराण ही पुष्प है। (छा.-3-4-1)

पाँचवे खण्ड में ऊर्ध्व रश्मियों का वर्णन है। “अथ येऽस्योध्वी रश्मयस्ता एवास्योध्वी मधुनाडय़ो गुह्य एवादेशा मधुकृतो ब्रह्म वै पुष्पं” अर्थात्-”इन ऊर्ध्व नाड़ियों के मधुकर गुह्य आदेश ही हैं और ब्रह्म ही इनका पुष्प है” आदि। (छा. 3-5-1)

इन प्रतिपादनों के सूक्ष्म आधिभौतिक स्वरूप की पुष्टि तो आधुनिक भौतिकी के भावी शोध निष्कर्षों पर निर्भर है। यों स्थूल भौतिक स्वरूप तो स्पष्ट ही है। सूर्य चारों ओर किरणें फेंकता है। ऊर्ध्वारोही किरणों का रहस्य अभी भौतिकी की नजर में ओझल है। पहले खण्ड में आदित्य के रक्त वर्ण का संकेत है, दूसरे खण्ड में शुक्ल वर्ण का, तीसरे में कृष्ण और चौथे में अतिकृष्ण का। सूर्य उगते समय रक्त वर्ण का रहता है। थोड़ी देर बाद शुक्लोज्वल हो जाता है। पीछे जहाँ छाया रहती है अर्थात् पृथ्वी के जिस हिस्से में सूर्य प्रकाश नहीं पहुँच रहा होता है, वहाँ की दृष्टि से उसका तेज कृष्ण यानि की सायंकाल के उपराँत की आभा वाला तथा और गहरी रात्रि में व्यतीत होने वाली गहरी कालिमा, अधिक काली आभा वाला कहा गया है। आधिदैविक स्वरूप इन पाँच विकिरण ऊर्जाओं की चेतना के मूल में सक्रिय पाँच देवगण हैं। वसुगण, रुद्रगण, आदित्यगण, मरुद्गण एवं साध्यगण। इनकी पर्याप्त भौतिक ऊर्जाएँ क्रमशः रेडियो विकिरण ऊर्जा, अवरक्त विकिरण ऊर्जा, दृश्य विकिरण ऊर्जा, एक्स विकिरण ऊर्जा एवं गामा विकिरण ऊर्जा हैं। ये पाँच विकिरण ऊर्जाएँ इन पाँच देवगणों की वाहन हैं। इनके मूल में सक्रिय चेतना प्रवाह ही देवगण हैं।

उपनिषद् में विवेचित मधु विद्या का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष इसका आध्यात्मिक अर्थ है। इसमें सविता के प्रवाह के माध्यम पाँच अंतरिक्षीय छिद्रों को बताया गया है। इसी छान्दोग्य उपनिषद् के तीसरे अध्याय में आगे तेरहवें खण्ड में उनका विवेचन है। उन्हें पाँच देव ऋषि कहा गया है और उनसे प्रवाहित पाँच प्राण प्रवाहों प्राण, अपान, व्यान समान एवं उदान का उल्लेख स्पष्टतः किया गया है। प्रकट है कि सर्वव्यापी चेतना सूर्य सविता जो समष्टि प्राण है, उससे प्रवाहित पाँच प्राण धाराएँ ही अंतरिक्षीय छिद्रों से बहने वाली पाँच प्रकार की किरणें है। इनमें से चार प्राण प्रवाहों से क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद पुष्पित बतलाए गये हैं। यहाँ वेद से तात्पर्य ग्रंथ रूप में उपलब्ध वैदिक संहिता से नहीं है। अपितु चेतना में परा एवं पश्यंती वाक् के रूप में स्फुरित ज्ञान प्रेरणाओं से है क्योंकि इन्हीं पुष्पों से मधुकर रस ग्रहण करते हैं। ऋचाएँ यजुः श्रुतियाँ साम श्रुतियाँ एवं अथर्वाडंरस श्रुतियाँ मधुकर कही गई है। अर्थात् वे श्रुतियाँ मूल ज्ञान चेतना का वाहक है। उनमें वही ज्ञान चेतना प्रकाशित है। मधुकरों का सत्व पुष्परस है। श्रुतियों का सत्त्व वहीं परा वाक् तथा पश्यंती वाक् है, जो समस्त ज्ञान-विज्ञान की आधार है। इस प्रकार मूल ब्राह्मी चेतना ज्ञान विज्ञान, इतिहास पुराण आदि विविध ज्ञान रूपों में अभिव्यक्ति होती रहती है। ये सभी ज्ञान रूप सविता की ही किरणें है। ऐसा यहाँ स्पष्ट विवेचित है। ऊर्ध्व दिशा में प्रवाहित होने वाली किरणोँ में ऊर्ध्वमुखी प्राण प्रवाह का वर्णन है। ऊर्ध्वगामी चेतना के लिए चारों वेदों का सारभूत बोध ही महत्वपूर्ण होता है। क्योंकि वह आप्त काम स्थिति है। गीता कहती है।

भावानर्थ उद्पाने सर्वतः संप्लुतोदके । तादान, सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥ (गीता 2-43)

अर्थात्-”सब ओर से परिपूर्ण श्रेष्ठ जलाशय को छोटे-छोटे कुओं-ताल तलैयों आदि से जितना लेना-देना होता है (यानि कि कोई विशेष प्रयोजन नहीं होता) उतना ही लेना-देना परम तत्वविद् ब्रह्मवेत्ता को समस्त वेदों से होता हैं। “

सविता साधना के क्रम में विभिन्न दार्शनिक मतों का गम्भीर अनुशीलन, वेदों का अध्ययन, स्वाध्याय आवश्यक होता है। साधना की उच्चतम स्थिति में समाधि की अवस्था में जहाँ परमतत्व में एकात्म होता है, उस समय इन ग्रंथों से प्रत्यक्ष प्रयोजन नहीं रहता। यद्यपि चेतना के उत्कर्ष का आधार उनके स्वाध्याय से ही विनिर्मित होता है। साधना की प्रक्रिया के निर्देशक ग्रंथों का एवं मार्गदर्शक सद्गुरु की आवश्यकता तो पग-पग पर पड़ती है। किंतु सविता संपर्क की प्रत्यानुभूति के क्षणों में आत्मसत्ता ही वेद और गुरु बन जाती है।

कुण्डलिनी साधना के समय सुषुम्ना प्रवाह में जब प्राण ऊर्जा प्रविष्ट होकर ऊर्ध्वारोहण करती है, तब अति चेतन में जो प्रकाश संव्याप्त हो जाता है। सूक्ष्मदर्शियों ने उसका ध्वनिमय प्रतीक ॐ को ही बतलाया है। उन्हें गुह्य आदेश कहा गया है। ये आदेश प्रणव रूपी पुष्प से ही प्राप्त होते है। आनंद और उल्लास से भरी जो प्रखर सक्रियता उस समय उत्पन्न होती है, वही केन्द्रवर्ती मधु है। पूर्ववर्ती चार मधु नाड़ियों से प्रवाहित जो मधुरस साधक को प्राप्त होता है-उससे अन्न आदि रस यानि पौष्टिकता, इंद्रियों की स्वस्थ सक्रियता, तेजस्विता, वीर्य एवं यश प्राप्त होता है। ये ही चार प्रकार के मधुरस हैं। किंतु जो पांचवां मध्यवर्ती मधु है, वह रसों का भी रस है।

ते वा एते रसानाँ रसा, वेदा हि रसास्तेषामेते रसास्तानिवा एतान्यमृतानाममृतानि, वेदाह्यमृतास्तेषा मेतान्यंमृतानि (छा.उ.3-5-4)

अर्थात् वहीं रसों के रस हैं। (वे दिव्य अनुभूतियाँ ही सर्वोत्तम मधु हैं) वेद ही रस है, ये (दिव्य अनुभूतियाँ) उनका भी रस हैं। वेद ही अमृत है और ये उनका भी अमृत है।

पंचकोशी साधना की दृष्टि से इस तत्व को यों समझना होगा कि अन्न आदि रस की उत्पत्ति का मतलब है अन्नमय कोश की पुष्टि। जिससे प्रखरता उत्पन्न होती है। प्राणशक्ति बढ़ती है तथा प्राणमय कोश की इस प्रकार हुई सक्रियता से यश वृद्धि होती है। इंद्रियों का अधिपति मन है। अतः उनकी उत्पत्ति का अर्थ है मनोमयकोश की सिद्धि। वीर्य की पुष्टि विज्ञानमय कोश की सिद्धि का आधार है। तेज की उत्पत्ति से अक्षय आनंद, उल्लास की उपलब्धि होती है। यही आनंदमय कोश की सिद्धि है। ये सिद्धियाँ सविता की चतुर्मुखी चतुर्वर्गी किरणों से संपर्क का परिणाम होती है। सविता की ऊर्ध्वगामी किरणें उस अनुभूति का बोध कराती हैं जो अमृतों का भी अमृत है। जिसे योग की भाषा में निर्बीज समाधि, धर्ममेध समाधि, स्वरूप प्रतिष्ठा, जीवन्मुक्ति आदि के रूप में कहा गया है। सविता के मध्यवर्ती मधु का पान इसी स्थिति में होता है। सविता साधना की सर्वोच्च उपलब्धि चरम परिणति यही है। वशिष्ठ पद पाने पर यह संभव होता है।

सविता के उस अमृत साक्षात्कार करना ही उसका पान है। यही समष्टि प्राण है, प्राणों का आधार है जीवनों का जीवन है। अपने अमृतसर से परम तृप्ति देने वाले यही सविता देवता समष्टि चेतना, परमब्रह्म गायत्री साधकों के उपास्य व इष्ट हैं।


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