अलौकिक-अद्भुत है, सौर रश्मियों का गुह्य विज्ञान

June 1993

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जिज्ञासु की दृष्टि लिए अपने सम्मुख बैठे अपने भावी आध्यात्मिक उत्तराधिकारी की ओर देखकर योगी ने कहा-”प्रकृति के आपूरण से एक जातीय वस्तु अन्य जाति की वस्तु में सूर्य की रश्मियों द्वारा परिणित की जा सकती है “, इस प्रकार “जात्यंतरपरिणामः प्रकृत्या पूरात” वाला पतंजलि का योग सूत्र सत्यापित किया जा सकता है। ऐसा अनुमान लगने पर कि संभवतः उनके इस कथन पर इस जिज्ञासु को अविश्वास हुआ है, उनने अपने आसन पर से एक गुलाब का फूल हाथ में लेकर पूछा “अच्छा ! तुम बताओ? क्या यह पुष्प अपनी जाति स्वतः बदल सकता है? नहीं न! किंतु सूर्य विज्ञान द्वारा इसकी जाति बदली जा सकती है। शिष्य ने कहा-”तो इसे जवा के फूल में बदल दीजिए।” बांये हाथ में गुलाब का फूल लेकर दाहिने हाथ से स्फटिक यंत्र द्वारा उस पर फैली हुई सूर्य रश्मियों को उनने क्रमशः संग्रहित किया। धीरे-धीरे गुलाब का फूल गायब हो गया, मात्र उसकी आभा वहाँ विद्यमान थी और धीरे से उसकी जगह एक ताजा हाल का खिला जवा पुष्प प्रकट हो गया। परमहंस स्वामी विशुद्धानंद नाम से प्रख्यात उस योगी ने सूर्य की शक्ति व आत्मबल से प्रकृति के नियमों में परिवर्तन कर एक दृश्य वस्तु की मूल प्रकृति ही बदल डाली थी। उनने अपने शिष्य गोपीनाथ कविराज को समझाकर बताया कि “यह सारा जगत प्रकृति की इस क्रीड़ा पर ही आधारित है। इस विद्या को योगी ही समझ सकता है एवं जिस प्रकार पतंजलि ने कहा है “भुवनं ज्ञानं सूर्ये संयमात” (योगदर्शनः विभूतिपाद 26), साक्षात स्वयं जीवन में सूर्य में संचय कर भुवन का सारा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

पंडित गोपीनाथ कविराज के लिए निजी रूप में यह एक अलौकिक घटनाक्रम था। वे चमत्कार से नहीं सूर्य रश्मियों को माध्यम बनाकर योगबल से जड़ प्रकृति में किये गये परिवर्तन से अभिभूत थे। स्वामी जी ने उन्हें उस दिन विस्तार से बताया कि “योगबल एवं विज्ञान कौशल दोनों का प्रयोग कर कैसे ब्राह्मी सृष्टि की जा सकती है? सूर्य जगत का प्रसविता है-रचयिता-पोषक व सृजनकर्ता है। दो वस्तुओं को एकत्र करना योग कहलाता है। सूर्ययोगी जो रश्मियों के विज्ञान में सुपरिचित हैं-वर्णमाला (स्पेक्ट्रम) से भलीभाँति अवगत हैं। इन वर्णों को शोभित करके परस्पर मिश्रित कर पदार्थों का संघटन या विघटन कर लेता है। इस प्रकार पदार्थ की प्रकृति में परिवर्तन हो जाता है। जो अव्यक्त है दिखायी नहीं दे रहा-शून्य के गर्भ में समाया हुआ है, उसे भी अभिव्यक्ति इस सूर्य विज्ञान के द्वारा किया जा सकता है।” वे अपने शिष्य को बता रहे थे कि “चित्त की वृत्तियाँ, मनोविकार, भावना उद्वेग भी सीधे सूर्य की रश्मियों को प्रवाहित होते हैं। सूर्य-विज्ञान का मर्मज्ञ सूक्ष्म स्तर पर रश्मियों द्वारा संस्कारगत परिवर्तन कर व्यक्ति की चिंतन प्रक्रिया को ऊर्ध्वगामी मोड़ दे उसे अध्यात्मिक प्रगति की ओर प्रवृत्त भी कर सकता है। इस प्रकार सूर्य विज्ञान मात्र जड़ प्रकृति ही नहीं चैतन्य सृष्टि के साथ भी हस्तक्षेप करता है एवं दृश्य स्थूल परिवर्तनों से लेकर मानव की चेतनात्मक हलचलों को भी प्रभावित कर पापनाशक विकार शामक वृत्तियों को जनमानस में बढ़ाता है।”

महामहोपाध्याय पंडित गोपीनाथ कविराज की गुरुदीक्षा इसी प्रारंभिक कथन के साथ हो गयी एवं तंत्र विज्ञान का मर्मज्ञ यह विद्वान इसके बाद सूर्य विज्ञान का अध्येता ही नहीं, एक शोध विद्यार्थी भी बन गया। पं. गोपीनाथ कविराज ने अपने गुरु के प्रति समर्पण कर अनेकानेक वृत्तांत सूर्य विज्ञान से जुड़ी अलौकिकताओं पर लिपिबद्ध किये हैं। इन्हें पढ़ने पर उस विलक्षण विद्या की जानकारी मिलती है जो चिरपुरातन देव संस्कृति की एक अति महत्वपूर्ण निधि है, हिमालय व तिब्बत क्षेत्र से ऋषि चेतना जिसका नियमन संचालन करती है। भारतीय संस्कृति की चंद्र विज्ञान, नक्षत्र विज्ञान, वायु विज्ञान, क्षण विज्ञान, शब्द विज्ञान व सूर्य विज्ञान जैसी विधाओं पर सतत् दुर्गम हिमालय में शोध कार्य चलता रहता है। मात्र कौतूहल दृष्टि रखने वाले उथले चिंतन वालों के लिए तो यह विधाएँ गुह्य व गोपनीय है। किंतु जो विशुद्धतः परमार्थिक भाव से अथवा आत्मशक्ति के जागरण के निमित्त प्रयोग करना चाहें, उनके लिए इसके सभी मार्ग खुले पड़े हैं, ऐसा परमहंस विशुद्धानंद जी ने जिन्हें सुगंधी बाबा के नाम से ख्याति प्राप्त थी, अपने शिष्य व उनके माध्यम से समस्त विज्ञ समुदाय को बताया।

सौर-विज्ञान या सावित्री विद्या वैदिक साधना पद्धति का आधार स्तम्भ मानी जाती रही है। श्री अरविंद ने कहा है कि आर्यों का इष्ट एक ही रहा हैं-स्वयं प्रकाशित एकमेव(तद् एकं, तत् सत्यं)-सूर्य। सविता, सृजेता, स्रष्टा सूर्य ही सत्य का अधिपति, आलोक प्रदाता एवं रचयिता है, पुष्टिदायक पूषा है जो उसका ध्यान करने वाले साधक में केवेलेशन (स्वतः प्रकाशित ज्ञान) इंस्पीरेशन (अंतःप्रेरणा), इंट्यूशन (अंतर्ज्ञान) तथा ल्युमीनस डिसर्नमेण्ट द्वारा विवेक दृष्टि प्रदान करता है, मन की त्रिविध लोकों वाली सृष्टि को प्रकाश प्रेरणा से अनुप्राणित कर देता है। भौतिक चेतना वाला, “भूलोक” क्रियाशील-प्राणमय चेतना वाला “भूषः लोक” तथा प्रकाशमान मन (विशुद्ध मानसिक चेतना वाला) लिए “स्वःलोक” उसी सविता से प्रेरित है जिसकी रश्मियों ने इस सृष्टि का सृजन किया है। इनके माध्यम से सृष्टि के किसी भी जड़ चेतन घटक की संरचना में परिवर्तन संश्लेषण-विश्लेषण सभी कुछ कर पाना योगी के लिए संभव है।

सुप्रसिद्ध इण्डॉ.लाजिस्ट व अपने समय का एक अनोखा ही प्राच्यविद् पाल ब्रण्टन अपनी भारत व्यापी शोध के दौरान तिब्बत, मिश्र, भारत के गुह्यज्ञान के विस्तार को जानने के निमित्त वाराणसी आया। उस दौर का विवरण उसने “ए सर्च इन सीक्रेट इण्डिया” पुस्तक में विस्तार से दिया गया है। उसमें सूर्य विज्ञान को समर्पित एक निबंध में उसने विशुद्धानंद कानन आश्रम मलदहिया बनारस में श्री गोपीनाथ कविराज के माध्यम से परमहंस विशुद्धानंद जी से हुई चर्चा का वर्णन लिखा है। चूँकि ब्रण्टन की दृष्टि कौतुक की थी, परमहंस ने उसे पहले स्फटिक के माध्यम से एक रूमाल में भाँति-भाँति की सुगंध संग्रहित करके दीं। यही नहीं उसने यह भी देखा कि शून्य से ताजा अंगूर, हवा से मिठाइयाँ कैसे पैदा की जा सकती हैं, मुरझाये फूल को फिर से ताजा हरा-भरा कैसे बनाया जा सकता है? इन सबका विज्ञान सम्मत आधार समझाते हुए उनने कहा कि सूर्य रश्मियाँ प्राणशक्ति का अजस्र स्रोत हैं। इनके मर्म को जानकर उनका संघटन या विघटन करना ही सूर्य विज्ञान कहलाता है। इस गुह्यविज्ञान से दुर्लभतम सिद्धि सृष्टि संरचना की शक्ति हस्तगत की जा सकती है। संभवतः विश्वामित्र द्वारा नूतन सृष्टि की उत्पत्ति इसी विधा के आधार पर हुई हो क्योंकि गायत्री मंत्र सविता देवता की अभ्यर्थना की ही प्रार्थना रूप में है तथा गायत्री का ऋषि उन्हें ही माना जाता है।

परमहंस विशुद्धानंदजी मात्र सुपात्र, पवित्र अंतःकरण वाले व्यक्तियों के समक्ष ही सूर्य विज्ञान की इन सिद्धियों का प्रदर्शन कर उन्हें सविता देवता की साधना की गायत्री अनुष्ठान व योग साधना के क्षेत्र में गहरे प्रवृत्त होने की प्रेरणा देते थे। कभी भी उनका प्रदर्शन ख्याति के निमित्त अथवा सिद्धि चमत्कार दिखाने के लिए नहीं रहा। यही कारण था कि वह एकाकी गहन शोध कर सूर्य विज्ञान विधा को तिब्बत की दुर्गम गुफाओं से लाकर पवित्र नगरी वाराणसी में प्रतिष्ठित कर सके। हीरा, सोना, मोती, मूँगा आदि सूर्य किरणों से विनिर्मित कर वापस उसे ब्रह्मांड में लौटा देने की क्रिया अनेकों व्यक्तियों ने अपनी आँखों से देखी है। यही नहीं सभी की नाभि में कमल होता है, यह उनने अपनी नाभि से नाल सहित कमल उत्पन्न कर अपने शिष्यों को दिखाया था । वे निज की काया में प्रयोगशाला के परीक्षण की तरह भाँति-भाँति के प्रयोग कर उनकी व्याख्या करते थे व जिज्ञासु साधकों को सावित्री विद्या में प्रवृत्त करते थे। एक दिन उनने एक सुपात्र शिष्य जोगेश वसु को व्याधिग्रस्त पाकर दो बेला के फूलों को सूर्य की किरणों द्वारा स्फटिक में बदल दिया तथा एक को उनके तथा दूसरे को गुरुभाई केदार भौमिक के शरीर में योगबल से प्रविष्ट करा दिया व कहा कि इससे तुम्हारे शरीर निरोग रहेंगे तथा परमाणु उत्तम बनेंगे। गोलाकार स्फटिक शरीर में प्रवेश भी कर गये व शरीर से रक्त की एक बूँद भी न निकली। दोनों भाई धर्मक्षेत्र की सेवा स्वस्थ जीवन जीकर काफी समय तक कर सके। (स्वामी विशुद्धानंद की जीवनी लेखक नंदलाल गुप्त, प्रकाशक विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी से उद्धृत)।

पंडित गोपीनाथ कविराज सूर्य विज्ञान के ऊपर पड़े रहस्य के पर्दों को अनावृत्ति कर लिखते हैं कि “यह विधा विशुद्धतः सूर्य रश्मियों के ज्ञान पर निर्भर है। इनके विभिन्न प्रकारों से संयोग व वियोग होने पर विभिन्न प्रकार के पदार्थों की अभिव्यक्ति होती है। विभिन्न रश्मियों का परस्पर सुनियोजित संगठन ही सूर्य विज्ञान का रहस्य है। इनसे सृष्टि भी की जा सकती है व संहार भी। इसीलिए सही विधा को जानना बहुत जरूरी है।” वे लिखते हैं कि विज्ञान की सृष्टि व योग बल से की गयी सृष्टि में अन्तर स्पष्ट समझ लिया जाना चाहिए। उनके अनुसार योग सृष्टि इच्छाशक्ति से होती है। स्रष्टा की आत्मा व उसका आचवल ही इसमें मुख्य उपादान है। अपनी प्रबल इच्छा द्वारा आत्मा के अंदर स्थित स्वरूप को बाहर प्रकाशित करना ही योग सृष्टि है। साव़ी विधा के अंतर्गत यही ताँत्रिक परिभाषा के अनुसार बिंदु की विर्स्पलीला है।”

आघ श्रीशंकर कहते हैं कि समग्र विश्व का लीली व्यापार आत्मा के निज स्वरूप के अंतर्गत चल रहा हैं दर्पण के प्रतिबिंब रूप में दिखाई दे रही नगरी जैसे दर्पण के ही अंतर्गत है, पृथक नहीं, वैसे ही प्रकाशमान आत्मा में प्रतिभासित दृश्य आत्मा के ही अंतर्गत है, उससे पृथक नहीं जाती इसी रूप में विश्व को देखा करते है। ज्ञानी मायाशक्ति का आश्रय लेकर ही आत्मा की शक्ति का बाहर प्रकाशन करते है।”

योगी की विज्ञान की सृष्टि वह है जिसमें स्फटिकादि माध्यमों द्वार सूर्य रश्मियों के संघटन या विघटन द्वारा प्रकृतिगत पदार्थ के मूलभूत द्रव्यों का बनाया या बिखराया जा सकता है। प्रयोजन के अनुसार प्रकृतिगत संरचना में उस गुण को उभारा जा सकता है जो प्रयोगकर्ता चाहता है। जिस हम गुलाब कहते है वह बाह्य रूप में तो गुलाब है किन्तु उसमें विश्व सृष्टि के मूलभूत सभी द्रव्य विद्यमान है। इसलिए आवश्यकता पड़ने पर कमल के उपादान-द्रव्यगुणों का आकर्षण कर गुलाब में से ही कमल पुष्य का निर्माण किया जा सकता है। केवल पुष्य ही नहीं, जो भी वस्तु चाहें उसमें उस गुलाब के रूप को बदला जा सकता है। रूप बदलने पर भी गुलाब का वह फूल शून्य नहीं होता-अव्यक्त अवश्य हो जाता है। गुलाब सूक्ष्म रूप में रह गया एवं कमल स्थूल रूप में फूट उठा। सूर्य विज्ञान यह मानता है कि विज्ञान की सृष्टि का यह सिद्धांत संसार में जाये जाने वाले हर पदार्थ व चेतन घटकों पर लागू होता है।

प्रत्येक वस्तु की पृष्ठभूमि में अव्यक्त और स्थूल दोनों रूप में मूल प्रकृति रहती है। प्रकृति में परिवर्तन योगी ही कर पाता है।

सूर्य विज्ञान का प्रस्तुत प्रसंग अलौकिक भी है तथा अनेकानेक अद्भुतताओं के साथ संभावनाओं से भरा हुआ भी। यह बताता है कि सूर्य का सूक्ष्म व कारण रूप रचयिता व पोषणदाता वाला स्वरूप है तथा सूर्य रश्मियों के स्पेक्ट्रम के संकुचित ज्ञान द्वारा स्थूल रूप से स्फटिक-लेन्स आदि से अथवा योगबल से उनकी क्रम व्यवस्था में न्यूनाधिक परिवर्तन कर सृष्टि के घटकों के रूपों का बदला जा सकता है। यह विधा असीम संभावनाओं से भरी पड़ी है। भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ क्रांतिदर्शी ऋषिगण इन विधाओं में निष्णात् होने के कारण ही बिना किसी मंत्र की सहायता के विभिन्न प्रयोग संपन्न कर लिया करते थे। यदि आज उपलब्ध साधनों व ज्ञान का सही नियोजन किया जा सके तो अनेकानेक व्यक्तियों को विज्ञान की इस गुह्य विधा से लाभान्वित किया जा सकता है।


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