आदित्यो हवै बाह्यः प्राण उदयत्येष हीनं चाधुषं प्राणमनुग्रह्ननः। पृथिव्या या देवता सैषा पुरुषस्यापानमवष्टभ्याँतरा यदाकाशः स-समानो वायुव्यानि॥ तेजो हवा उदानस्तस्यादुवशाँततेजाः पुनर्भवभिन्द्रि सै संपद्यमानैः। -प्रश्नोपनिषद् 3-8-9
निश्चय ही आदित्य बाह्य प्राण है। यह इन आँखों में स्थित प्राण पर अनुग्रह करता हुआ उदित होता है। पृथिवी में जो देवता हैं वे पुरुष के अपान वायु को आकर्षण किये हुए हैं। इन दोनों के मध्य में जो आकाश है वह समान है और वायु ही व्यान है। लोक प्रसिद्ध (आदित्यरूप) तेज ही उदान है। अतः जिसका तेज (शारीरिक ऊष्मा) शाँत हो जाता है, वह मन में लीन हुई इंद्रियों के सहित पुनर्जन्म के हेतु भूत मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।