भव बंधनों से मुक्ति

July 1991

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तत्वदर्शियों ने मानव जीवन का सबसे बड़ा लाभ एक ही बताया है- ‘मोक्ष’ मुक्ति। मोक्ष अर्थात् भव बंधनों से छुटकारा। भव बन्धनों में मानसिक लिप्साएँ और कुत्साएँ ही प्रमुख कारण होती हैं। जनसाधारण में लालसाएँ ही प्रमुख कारण होती हैं। आकर्षण और प्रलोभन ही जन्म धारण करने के लिए विवश करते हैं। रोष, आक्रोश, प्रतिरोधों की जलन मिटाने के लिए प्रायः जन्म धारण करना पड़ता है, अशुभ कर्मों के दंड भुगतने के लिए भी ऐसी परिस्थितियों में जन्म धारण करना पड़ता है, जिनमें आये दिन शारीरिक कष्ट और मानसिक त्रास बरसते हैं।

चौरासी लाख योनियों में सभी भोग योनियाँ है। उनके जन्म मरण का चक्र प्रकृति गति से चलता रहता है। केवल मनुष्य योनि ही ऐसी है, जिसमें भव-सागर से पार होने का द्वार है। इस अवसर का प्राप्त होना एक अनुपम सौभाग्य है। यदि सतर्कता रखी और सावधानी बरती जाय, तो उस त्रास से छुटकारा मिल सकता है, जिसमें बँधा हुआ जीव निरन्तर व्यथा-देवताओं की पीड़ा सहन करता रहता है।

आत्मा और शरीर की मध्यवर्ती कड़ी है- मनः चेतना। उसमें अनेकानेक कल्पनाएँ उठती रहती हैं। आकर्षणों की यहाँ कमी नहीं। सभी ज्ञानेन्द्रियों में अपने-अपने स्वाद है। जिस प्रकार व्यंजनों में षड्रस होते हैं, उसी प्रकार आँख, कान, नासिका, जीभ जननेन्द्रिय सभी के अपने-अपने स्वाद हैं। इनका रसास्वादन करने के लिए मन सदा मचलता रहता है। यों इन इंद्रियों के सदुपयोग भी हैं। नेत्रों से प्रेरणाप्रद सत्प्रवृत्तियों को देखा जाय, जिह्वा से सीमित मात्रा में सात्विक आहार करके पेट को, समूचे स्वास्थ्य को सही रखा जाय। सत्परामर्श देकर वाणी को धन्य बनाया जाय। कानों से सत्संग सुना जाय। नासिका के सहारे सुगंधित वातावरण में रहकर मन और मस्तिष्क को प्रसन्न रखा जाय। जननेन्द्रिय का संयम साधकर ब्रह्मचारी, तपस्वी, ऊर्ध्वरेता बना जाय। यह सदुपयोग है। दुरुपयोग करना हो तो आँखें कामुकता भड़का सकती हैं, जीभ चटोरी होकर स्वास्थ्य का सर्वनाश कर सकती है। जननेन्द्रिय व्यभिचार में प्रवृत्त होकर अपना और दूसरों के शारीरिक, मानसिक, आर्थिक प्रतिष्ठ क्षेत्र को नष्ट-भ्रष्ट कर सकती है। इन्द्रिय लोलुप व्यक्ति लिप्साओं में फंसकर अपनी आदतें बिगाड़ते हैं, अतृप्त, अशाँत, उद्विग्न रहते हैं और अगले जन्म में उन्हीं के रसास्वादन के लिए भटकते रहते हैं, अधोगामी योनियों में जन्म पाते हैं।

मानसिक लिप्साओं में लोभ, मोह और अहंकार प्रधान हैं। अधिकाधिक समृद्ध संपन्न वैभवशाली बनने के लिए व्यक्ति अनाचारपूर्वक कमाता है। अपराधी दुष्प्रवृत्तियों में संलग्न रहता है। मोह में परिवार बढ़ता है। बढ़े हुए परिवार के प्रति बहुत कुछ करने, बहुत कुछ उत्तराधिकार में छोड़ने की ललक लगी रहती है। अहंकारी अपना बड़प्पन प्रकट करने के लिए झूठ बोलता, शेखी बघारता, ठाट-बाट जमा करता है। अमीरी जताने के लिए अपव्यय में बहुत कुछ ठगाता, उड़ाता है। शृंगार की सजधज प्रकारांतर से कामुकता में विकसित परिणत होती है। इनका प्रतिफल मनोभावों की इन्हीं कामनाओं में जकड़ जाना है और पतंगे की तरह इन दीप शिखाओं पर जल मरना है। चासनी में फँसी मक्खी की तरह तड़प-तड़प कर मरना है।

अहंकारी व्यक्ति अपने आप में ही इठलाता रहता है। दूसरों का दोष हो या न हो, अपनी प्रभुता, अमीरी, सुन्दरता बुद्धिमत्ता स्वल्प होने पर भी वस्तु स्थिति से कहीं अधिक बड़ी मालूम पड़ती है। अपनी मान्यता को दूसरे के गले उतारने के लिए चापलूसी से लेकर धमकी देने तक के अनेक आडम्बर बनते हैं। यदि दाल नहीं गलती, तो फिर असाधारण रूप से खीज आती है। कभी अपने ऊपर कभी दूसरों के ऊपर। वस्तुओं की आवश्यकता ऋण लेकर या दूसरों की सहायता से भी पूरी की जा सकती है, किन्तु उस अहंकार की पूर्ति प्रायः असंभव ही रहती है, जो वास्तविकता न होने पर भी दूसरों के सिर पर चढ़कर हावी होना चाहती है। इस प्रपंच में अपव्यय भी बहुत करना पड़ता है, फिर उस अपव्यय के साधन जुटाने के लिए अनेकानेक प्रकार की चिंताएँ सवार रहती हैं। पाखण्ड को छिपाये रहने और दूसरों से उसे स्वीकार कराने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक करना पड़ता है। इतने पर भी सफलता मिले या न मिले, यह संदिग्ध रहता है। ऐसे व्यक्ति क्रोधी भी होते हैं। विनम्र, नम्रता का अंश घटते चले जाने से व्यक्ति क्रमशः अधिकाधिक उद्धत बनता जाता है। उद्धत के अहंकार की पूर्ति में जब कभी अड़चन पड़ती है, तो वह क्रोध से उबल पड़ता है। फिर चाहे उसके कारण दूसरों से द्वेष बनता हो या अपना संतुलन बिगड़ने से खीज का आवेश चढ़ता हो।

मनुष्य के हाथ पैर में हथकड़ी बेड़ी तो तभी पड़ती हैं, जब उसे किसी अपराध में जेल जाना पड़ता है, किन्तु मनोविकारों के बंधन ऐसे हैं, जो इस प्रकार जकड़ते हैं, मानों किसी भयंकर व्यथा ने जकड़ लिया हो। आध्यात्मिक चिकित्सा उसकी होती नहीं। इच्छानुकूल परिस्थितियाँ बनने या बनाने की उत्कंठा रहती है, विश्व व्यवस्था ऐसी है, नहीं कि किसी उद्धत व्यक्ति के अनुरूप लोक प्रवाह बन पड़े या चल सके। ऐसी दशा में दोहरे दबाव अनुभव करने पड़ते हैं। एक तो यह कि जैसा चाहा गया था, वैसा बनता नहीं। दूसरे प्रतिकूलता रहने पर आवेशों के उभार उठते रहते हैं। वह विवेक इस विषमता के बीच तिरोहित ही हो जाता है, जिसके आधार पर कि तालमेल बिठाया जा सके और मनोवाँछा पूरी न होने पर भी संतोषपूर्वक मन को संतुलित, रखते हुए समय गुजारा जा सके। ऐसी ही विपन्न परिस्थितियों का विश्लेषण मद-मत्सर के रूप में किया जाता है।

संसार में बाहरी शत्रु तो कितने ही हैं। अपराधी, विद्वेषी, ठग, पाखंडी चित्र-विचित्र जाल बिछाये रहते हैं। मित्र बनकर शत्रु जैसे विश्वासघाती व्यवहार करने वालों की बाढ़ सी आई हुई है। इनके जाल में फँसकर मनुष्य बहेलिये, चिड़ीमारों, मछलीमारों द्वारा सताये गये जीवों की तरह दुसह्य दुःख सहता है। शारीरिक रोग असंयमी स्वभाव के कारण आये दिन बने ही रहते हैं। आर्थिक अभावों का ठिकाना नहीं। औसत नागरिक स्तर का निर्वाह अपनाया जाय और उपार्जन के लिए जी तोड़ परिश्रम किया जाय तो अभावों का कष्ट सहने का कोई कारण नहीं, पर आय और व्यय का सन्तुलन न बिठा पाने पर अधिक आजीविका होने पर भी सदा ऋणी, दरिद्र एवं व्यथित बने रहते हैं। मकड़ी की तरह यह अपने बुने जाल में स्वयं ही फँसना है या समझा यह जाता है कि दुर्भाग्य ने बेहतर जकड़ रखा है और प्रतिकूल परिस्थितियों में रहना पड़ रहा है।

भव-बन्धनों में अनेकों परिस्थितिजन्य हैं। यों प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी अनगढ़ मनः स्थिति की ही देन होती हैं अन्यथा सृष्टि के सभी प्राणी सुखपूर्वक जीते हैं। पेड़ों में चिड़ियाँ, बिलों में दीमक, जंगलों में हिरन कुदकते-फुदकते प्रसन्नता का जीवन जीते हैं। जलाशय में मछलियाँ कल्लोल करती हैं। एक मनुष्य ही ऐसा है, जो उत्कृष्ट शरीर संरचना और विशिष्ट बुद्धिमत्ता के होते हुए भी हर घड़ी चिंतित, उद्विग्न, शंका-शंकित, भयभीत आवेश ग्रस्त रहता है। इसका कारण न तो संसार की परिस्थितियाँ हैं और न प्रतिकूलताओं की भरमार। केवल अपनी ही मनः स्थिति अस्त-व्यस्त अनगढ़ होने से विचारणा भावना आशंका


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