व्यक्ति के विविध क्रियाकलाप जिस ऊर्जा से संचालित होते हैं, उसका स्त्रोत निज का व्यक्तित्व है। इसकी परिपक्वता अपरिपक्वता के आधार पर ही आचरण व व्यवहार का सुगढ़ या अनगढ़ होना बन पड़ता है। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अद्वितीयता भी है। निज के व्यक्तित्व में ही प्रत्येक की अनन्यता निहित होती है।
मनोविज्ञानी गार्डन वाकर आलपोर्ट ने अपने अध्ययन ‘पर्सनॉलिटी ए साइकोलॉजिकल इण्टरप्रिटेशन’ में इसी तथ्य की स्वीकारोक्ति की है। उनके अनुसार व्यक्ति सिर्फ समाज की इकाई भर नहीं है। वह स्वयं अपने में पूर्ण भी है एवं उसकी अपनी अनन्यता है। यही कारण है कि व्यक्तियों के औसत के रूप में व्यक्तित्व को नहीं समझा जा सकता।
इसकी संरचना एवं गठन के सम्बन्ध में विभिन्न मनीषियों ने अपने विचारों का प्रकाशन किया है। मार्टनप्रिंस अपनी कृति ‘द अनकान्शस’ में इसे व्यक्ति की समस्त जैविक, जन्मजात विन्यास, उद्वेग, रुझान एवं मूल प्रवृत्तियों का समूह मानते हैं।
मनोविज्ञानी सिग्मंड फ्रायड का ‘द एनाटमी आफ मेण्टल पर्सनॉलिटी’ में कहना है कि मानवीय व्यक्तित्व ईड, इगो, एवं सुपर इगो का समुच्चय है। उन्होंने अपने इस कथन को समझाते हुए बताया है कि ईड मानसिक ऊर्जा का स्टोर हाउस है, पर इसमें बिखराव है। इगो को इसी के एक विशेष भाग के रूप में स्वीकारते हैं। जो व्यक्ति का बाहरी संसार से सम्बन्ध स्थापित कराने वाला होता है। इन दोनों के परस्पर सम्बन्धों को समझाते हुए उनका कहना है कि ‘अहं’ में क्रियाशील अनुभव अपना विकास मूल प्रवृत्तियों के रूप में करते है। आगे वह कहते हैं कि इगो में जहाँ तर्क व सद्बुद्धि का स्थान है, वही ईड में वासनाओं का। सुपर इगो को वह ईड की एक अभिवृद्धि तथा इगो के उस नवीकरण के रूप में स्वीकारते हैं जो व्यक्ति में नैतिक मर्यादाओं का पोषक है।
व्यक्तित्व के सम्बन्ध में उपरोक्त चिन्तकों द्वारा किया गया विवेचन व्यक्ति में जैविक प्राणिक स्तर की प्रभाविकता तथा अपरिपक्व मानसिकता को स्पष्ट करता है। जबकि यह तथ्य मानवेत्तर प्राणियों में घटित होता है न कि स्वयं मानव पर। इन अध्येताओं ने व्यक्तित्व की यह व्याख्या पर्सनॉलिटी के आधार पर की है। यह पर्सोना से बना है जिसका मतलब है मुखौटा। मुखौटे का मतलब है जो बाहर दिखाई दे। प्रायः जैविक प्राणिक क्रियाकलाप ही बाहर दिखाई देते हैं। अतएव इनके द्वारा इन्हीं की प्रधानता स्वीकारना कुछ आश्चर्यजनक नहीं है।
भारत के प्राचीन ऋषि कहे जाने वाले वैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व की संरचना का साँगोपाँग अध्ययन किया था। उनके अनुसार इसका केन्द्रीय आयाम आत्मा है। इसी के गुण और दिव्यता हमारे व्यवहार और चिन्तन में दिखाई पड़नी चाहिए। इसमें आने वाले अवरोधों, बाधाओं को समाप्त करके समूचे जीवन को आत्मा के गुणों से अलंकृत करना ही व्यक्तित्व का विकास है। केन्द्रीय आयाम करना ही व्यक्तित्व का विकास है। केन्द्रीय आयाम की अवहेलना कर व्यक्तित्व का ठीक-ठीक विकास सम्भव नहीं।
इस तथ्य को विलियम जेम्स ने न्यूनाधिक रूप से स्वीकारा है। उनके अनुसार व्यक्तित्व के चार सोपान हैं। इसमें पहला सोपान भौतिक है। जिसके अंतर्गत व्यक्ति के शरीर की बनावट तथा अनुवाँशिकता से प्राप्त विशेषताएँ सम्मिलित हैं। इसे उन्होंने मैटेरियल सेल्फ कहा है। दूसरे सोपान को वह सामाजिक व्यक्तित्व या ‘सोशल सेल्फ’ कहते हैं। इसके विकास का आधार व्यवहारिक जीवन में आवश्यक गुणों का भली प्रकार समावेश करके सामाजिक सम्बन्धों का सुरुचिपूर्ण निर्वाह है।
तीसरा सोपान है आध्यात्मिक व्यक्तित्व ‘स्प्रिचुअल सेल्फ’। जेम्स के अनुसार यह उस समय विकसित होता है जब व्यक्ति आध्यात्मिक विषयों के प्रति जिज्ञासु हो। साथ ही जीवन में एकता समता सुचिता का समावेश करे। चौथा सोपान शुद्ध अहं अथवा प्योर इगो का है। दूसरे शब्दों में व्यक्ति जब अपने आत्म स्वरूप का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेता है और सभी वस्तुओं का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेता है और सभी वस्तुओं में अपनी आत्मा का दर्शन करता है तब वह अपने व्यक्तित्व विकास की पूर्णता प्राप्त कर लेता है।
जेम्स की इस व्याख्या में महत्वपूर्ण बिन्दु है व्यक्तित्व के लिए पर्सनॉलिटी के स्थान पर सेल्फ का प्रयोग। यही कारण है कि वह व्यक्तित्व संरचना को अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट कर सके।
श्री अरविन्द ने इसे और भी अधिक उत्तम रीति से समझाने की चेष्टा की है। उनके अनुसार व्यक्तित्व विकास के सोपान चार न होकर छः हैं। इनको उन्होंने भौतिक, प्राणिक, बौद्धिक, चैत्य, आध्यात्मिक एवं अतिमानसिक कहा। इनमें प्रत्येक का अपना गुण है। भौतिक का गुण है सफलता। प्राण का गुण है क्रियाशीलता। बौद्धिक स्तर का गुण है चिंतन की प्रखरता। चैत्य का गुण है अंतराल की पवित्रता। आध्यात्मिक स्तर का गुण है क्षुद्रता से उबर कर महानता की ओर बढ़ चलने की अभीप्सा तथा अतिमानसिक स्तर का गुण है, प्रत्यावर्तन, महानता में, स्वराट का विराट में, संकीर्णता का विस्तीर्णता में, स्वार्थपरता का उत्सर्ग में, परिवर्तन। इन सभी स्तरों के गुणों के समुच्चय ही यथार्थ में व्यक्तित्व है। इन्हें जीवनक्रम में भली प्रकार व्यवहार में लाना ही विकसित व्यक्तित्व का लक्षण है।
इस तथ्य को भली प्रकार समझ पाने के बाद ही यह सोचना बन पड़ता है कि कहाँ किस सुधार की जरूरत है। किस स्तर से हम अभी परिचित नहीं है अथवा कौन से गुणों को जीवन में समुचित स्थान नहीं मिल पा रहा है। इसे ढूँढ़ना और विकसित करना और भली प्रकार निर्वाह करने की प्रक्रिया को आवश्यक कर्तव्य कर्म कहा जा सकता है।
इसे उपेक्षित छोड़ देने के कारण ही जीवन में विकृतियों, असफलताओं, परेशानियों की भरमार दिखाई देती है। विभिन्न स्तरों में जो स्तर कमजोर होगा, जहाँ भी गुणों का अभाव होगा, वहीं परेशानी, समस्या, कठिनाई आ खड़ी होगी। इनके निवारण का सही और सटीक उपाय है उस स्तर के आवश्यक गुणों का विकास।
प्रसिद्ध, दार्शनिक प्रो. एस. एन. दासगुप्त अपनी रचना ‘हिन्दू मिस्टीसिज्म’ में संसार को व्यक्तित्व निर्माण की प्रयोगशाला मानते हैं। उनके अनुसार संसार तथा सामाजिक परिवेश नित्य निरन्तर बदलती परिस्थितियां, रोजमर्रा की समस्याएँ, बाधा, व्यतिरेक इस काम में हमारी सहायता हैं। इनमें से प्रत्येक स्थिति हमें अपने अन्दर झाँकने को बाध्य करती है, साथ ही प्रेरणा प्रदान करती है कि आवश्यक कमी को पूरा किया जाय।
यही कारण है कि मनोवैज्ञानिक एरिक फ्राम व्यक्तित्व विकास की साधना को गुणों के विकास की साधना का नाम देते हैं। बात भी सही है न्यूनाधिक रूप से दोनों एक दूसरे के पर्याय ही हैं। इस साधना हेतु श्री अरविन्द ने दो चरण बताए हैं। प्रथम शुद्ध अभीप्सा अर्थात् वही व्यक्ति जीवन में परम शान्ति आनन्द एवं प्रकाश पा सकता है जो इसके लिए आवश्यक गुण दया, करुणा, ममता, सेवा-सहकार जैसे सद्गुणों को चाहे।
दूसरे चरण के रूप में वह कहते हैं कि हमें निम्न एवं अवाँछनीय प्रवृत्तियों, दोष, दुर्गुणों को त्यागना होगा। वह स्पष्ट करते हैं कि जब तक कोई भी आदमी निम्नता की ओर अपना झुकाव रखता है तब